जमादी उल ऊला 1446 हिजरी
﷽
फरमाने रसूल ﷺ
आदमी को झूठा होने के लिए यही काफी है कि वह हर सुनी-सुनाई बात बिना तहकिक किए बयान कर दे।
- मिशकवत
ख़ान बहादुर उर्फ़ अकबर ईलाहबादी की उर्दू अदब के तंज़निगार शायरी की बड़ी एहमीयत है। 16 नवंबर 1846 को बारह, ज़िला इलाहाबाद में पैदा हुए अकबर इलाहाबादी का पूरा नाम सय्यद अकबर हुसैन रिज़वी था। इबतिदाई तालीम घर पर अपने वालिद सय्यद तफ़ज़्ज़ुल हुसैन से हासिल करने वाले अकबर को शायरी का शौक़ बचपन ही से था। उन्होंने ज़माने के मिज़ाज के मुताबिक़ शायरी की इब्तिदा ग़ज़लगोई से की। उनका अंदाज तंज़िया व मज़ाहीह उनके दाइमी शोहरत का बाइस बना।
अकबर ने ज़रीफ़ाना शायरी के अपने अंदाज को महज़ हँसने-हंसाने का ज़रीया नहीं बल्कि समाजी इस्लाह के एक मूसिर हथियार के तौर पर इस्तिमाल किया। इसके जरिये उन्होंने अंग्रेज़ी तालीम के मनफ़ी असरात और मग़रिबी तहज़ीब की अंधी तक़लीद पर भी भरपूर वार किए और छोटी-छोटी नज़मों से वो काम लिया जो बड़ी-बड़ी तक़रीरों से नहीं लिया जा सकता था। वे मुआशरे की खामियों को बड़े दिलचस्प अंदाज़ में उभारते और लतीफ़ पैराए में तंज़ करते जो नागवार भी नहीं गुज़रता। इसी तरह अकबर इलाआबादी ने अंग्रेज़ी अलफ़ाज़ से भी ख़ातिर-ख़्वाह फ़ायदा उठाया। 'कुल्लियात अकबरह्ण नाम से उनके कलाम तीन हिस्सों में शाइआ हो चुका है।
अकबर इलाहाबादी की शायरी का मक़सद क़ौम को अंधी तक़लीद से बाज़ रखना था। अपने मज़हब, मुल्क और अपनी तहज़ीब-ओ-सक़ाफ़्त की एहमीयत को समझाना, नीज़ हुकूमत के ज़ुलम-ओ-इस्तिबदाद के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना था। लेकिन आज के हालात में उनका ये मक़सद मफ़क़ूद ही नज़र आता। आज क़ौम ग़ैरों की तहज़ीब और ज़बान से इस क़दर मुतास्सिर हो चुकी है कि खुद पर हो रहे मज़ालिम का उन्हें एहसास तक नहीं है। उर्दू को धीरे-धीरे ख़त्म करने की साजिश तक का कौम को अहसास नहीं है।
मज़ीद ये कि अकबर ईलाहबादी की शायरी का मक़सद हुकूमत वक़्त की सियासी चालों की तरफ़ लोगों को मुतवज्जा करना था। इसके बरअक्स आज हम लोग ख़ाब-ए-ग़फ़लत में पड़े हुए हैं। जिसे भारत की बेटी और हिन्दी की बहन कहा जाता है, इस प्यारी उर्दू ज़बान को ग़लत प्रोपेगंडा कर ख़त्म करने की कोशिशें की जा रही हैं और कहीं ना कहीं हम सब भी इसके ज़िम्मेदार हैं। उर्दू असातिज़ा की तक़र्रुरी नहीं हो रही है, तलबा को साईंस, मैथ्स और बायोलाजी की किताबें दस्तयाब नहीं हैं।
हाल ही में सेंट्रल बोर्ड आफ़ सेकंडरी एजूकेशन ने इमतिहानात के सवालिया पर्चे उर्दू ज़बान में ना देने का हुक्म-जारी कर हम सब के अंदर इज़तिराब-ओ-बेचैनी पैदा कर दी है। इससे कब्ल भी महिकमा पुलिस और दीगर शोबा में उर्दू अलफ़ाज़ का इस्तिमाल ना करने की हिदायात जारी की जा चुकी हैं जिस पर मआशरे से कोई आवाज बुलंद नही की गई।
अकबर ईलाहबादी, इस्माईल मेरठी और इन जैसी उर्दू अदब की कई शख़्सियात हैं, जिन्होंने छोटी-छोटी किताबें और रिसाले लिखे, जो बिलकुल इबतिदाई दर्जों के लिए हैं, जिनसे बच्चा उर्दू लिखना-पढ़ना सीखता है। लेकिन नई नसल उर्दू रस्म-उल-ख़त से नावाक़िफ़ होती जा रही है। रोमन उर्दू का कसरत से इस्तिमाल किया जा रहा है।
आज अकबर ईलाहबादी जैसी अज़ीम शख़्सियत की यौम-ए-पैदाइश पर हम में से हर एक को ये अज्म करना होगा कि तालीम के मैदान में सबसे आगे बढ़ना है, आला तालीम हासिल कर मुल्क-ओ-मिल्लत का नाम रोशन करना है और साथ ही उर्दू की बका-ओ-फ़रोग़ के लिए काम करना है। नीज़ छोटे-छोटे रसाइल और जरीदे ख़रीद कर ख़ुद भी पढ़ना है और दूसरों को भी इसकी तरग़ीब देना है। यही अकबर ईलाहबादी और उन जैसे हज़ारों आशिक़ान उर्दू के लिए सच्ची ख़िराज-ए-अक़ीदत होगी।
- बे नजीर अंसार एजूकेशन एंड वेलफेयर सोसायटी
भोपाल