अल्लामा इकबाल : सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

27 मुहर्रम-उल-हराम 1445 हिजरी
मंगल, 15 अगस्त, 2023
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अकवाले जरीं
‘अल्लाह के जिक्र के बिना ज्यादा बातें न किया करो, ज्यादा बातें करना दिल की कसादत (सख्ती) का सबब बनता है और सख्त दिल शख्स अल्लाह को पसंद नहीं।’
- मिश्कवात
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Allama Iqbal: The desire for sarfaroshi is now in our hearts
अल्लामा इकबाल

नई तहरीक : रायपुर 

अल्लामा मोहम्मद इकबाल की पैदाईश 9 नवंबर सन् 1877 को सूबे पंजाब के स्यालकोट जिले में हुई। आपके वालिद शेख नूर मोहम्मद कारोबारी थे। आपका खानदान कश्मीर से पंजाब आकर मुकीम हुआ था। इकबाल साहब ने अरबी और उर्दू की तालीम मदरसे से हासिल कर मिशनरी स्कूल से मिडिल पास किया। उसके बाद आपने सन् 1899 में लाहौर से गे्रजुएशन और फिलासफी से एमए किया। उसके बाद आप फिलासफी के टीचर हो गए।

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    सन् 1904 में आपके लिखे एक तराने ‘सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा’ से अचानक उन्हें शोहरत मिली। यह तराना सन् 1904 से आज तक मकबूल है। यह इलाहाबाद मैगजीन में शाया हुआ था। आपने सन् 1905 में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से डिग्री हासिल की। उसके बाद उन्होंने द डेवलपमेंट आफ मेटाफिजिक्स इन सब्जेक्ट पर जर्मनी की म्यूनिख यूनिवर्सिटी से पीएचडी की डिग्री हासिल की। इसी नाम से बाद में आपकी एक किताब भी शाया हुई। आप लंदन यूनिवर्सिटी में 5 माह तक अरबी के टीचर भी रहे। सन् 1906 में आप मुस्लिम लीग के मेंबर बनें। उसके बाद आपने स्वदेशी आंदोलन में हिस्सा लिया। उसके बाद आप भारत लौट आए और यहीं वकालत करने लगे। 
    आंदोलन के साथ-साथ आपकी शायरी दिनों-दिन लोगों की पसंद बनती गई। शायरी में मिर्जा गालिब के बाद इकबाल की शायरी आम हिंदुस्तानियों में एक अपना अलग मुकाम रखती है। अल्लामा इकबाल मुस्लिम समाज की तालीम और पसमांदगी पर बहुत फिक्रमंद रहा करते थे। सन् 1926 में आप पंजाब लेजिसलेटिसव एसेंबली के मेंबर चुने गए। 
    अल्लामा ने सन् 1931-32 में सेकेंड राउंड टेबल कांफें्रस में हिस्सा लिया। इकबाल ने अपनी शायरी में महबूब से बात करने का अदांज भी समाज के हर तबके, हर मजहब और मुल्क की आजादी, मुसलमानों की फिक्र व सोच, हिंदुओं की समाजी गैर बराबरी अंग्रेजों के जुल्मो-ज्यादती के हर मौजू को गजल व गीत में ढालने का काम किया है। आपके कुछ मशहूर अशआर :

लब पे आती है, दुआ बनके तमन्ना मेरी,
जिंदगी शमा की सूरत हो खुदाया मेरी।
जाहिदे तंग नजर ने मु­ो काफिर जाना,
और काफिर ये सम­ाा है, मुसलमान हूं मैं। 
आह शूद्र के लिए हिंदूस्तां गम खाना है,
दर्दे इंसानी से इस बस्ती का दिल बेगाना है।
न सम­ोगे तो मिट जाओगे, ऐ हिदुस्तां वालों,
तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा दुश्मन दौरे जमां हमारा।
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,
हिंदी हैं, हम वतन है, हिंदूस्तां हमारा।

    आपने सन् 1930 में इलाहाबाद में हुई मुस्लिम लीग काफें्रस की सदारत की थी। इसी काफ्रेंस में आपने अपनी तकरीर में मुसमलमानों की तालीम को फरोग देने और उनकी पसमांदगी दूर करने के लिए उनकी खातिर कुछ खास सहूलियतों की मांग की जिसका एक ग्रुप ने गलत मतलब निकालकर यह कहना शुरू कर दिय कि इकबाल ने अलग मुल्क की मांग की है। इसे बाद में आपने तरदीद करते हुए कहा कि मैंने मुस्लिम अकसरियत वाले सूबों को एक सूबा बनाकर उनके तालीमी बेदारी के लिए कुछ अलग रियायत व हुकूक की मांग की है, मेरा मकसद कोई अलग मुल्क बनाना नहीं है। 
    इस बारे में आपके बेटे जावेद इकबाल जो लाहौर हाईकोर्ट में जज थे, ने कहा कि अल्लामा इकबाल एक सच्चे मुसलमान हैं। ता जिंदगी हिंदूस्तानी ही रहे। उन्होंने कभी पाकिस्तान बनने की हिमायत नहीं की। अपनी बात की वजाहत करते हुए जावेद इकबाल ने कहा कि पाकिस्तान उनके इंतेकाल के नौ साल बाद वजूद में आया। अल्लामा इकबाल पैदा भी हिंदुस्तान में हुए वफात भी हिंदुस्तान में ही पाई। 
    अल्लामा इकबाल इतनी खूबियों के मालिक थे कि उनके बारे में लिखने के लिए जगह कम पड़ जाएगी। 15 अगस्त सन् 1947 को जब हिंदूस्तान आजाद हुआ तो रात बारह बजे पार्लियामेंट में ंमौजूद सारे लोगों ने इकबाल का तराना ‘सारे जहां से अच्छा, हिंदूस्तान हमारा’ गाया। इस तराने की मकबूलियत का यह आलम है कि अब तक कोई इस तराने की जगह नहीं ले सका। 21 अपै्रल सन् 1938 को अल्लामा इकबाल ने इस दुनिया को अलविदा कहा। 
    महात्मा गांधी ने अल्लामा इकबाल के इंतेकाल पर दुख जाहिर करते हुए कहा कि मैं बडौदा जेल में था, तब इकबाल साहब की नज्म हिदुस्तां हमारा पढता और पढता ही चला गया। मु­ो याद नहीं मैं मैंने कितनी बार इस नज्म को पढ़ा है।

ब शुक्रिया
सैय्यद शहनवाज अहमद कादरी
कृष्ण कल्कि
‘लहू बोलता भी है’
(जंग-ए-आजादी के मुस्लिम मतवालों की दास्तां)
प्रकाशक : लोकबंधु राजनारायण के लोग
कंधारी लेन, 36 कैंट रोड, लखनऊ


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