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जिस अहदे सियासत ने ये जिंदा जुबां कुचली, उस अहदे सियासत को मरहूम का गम क्यों (गालिब की यौमे पैदाईश पर खास)

 जमादी उल आखिर १४४६ हिजरी


फरमाने रसूल ﷺ 

अफज़ल ईमान ये है कि तुम्हें इस बात का यकीन हो के तुम जहाँ भी हो, खुदा तुम्हारे साथ है।

- कंजुल इमान 

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उर्दू पर सितम ढाकर ग़ालिब पर करम क्यों : एमडब्लयू अंसारी 

✅ नई तहरीक : भोपाल 

उर्दू और फ़ारसी के बे-बाक शायर, मुजाहिद आज़ादी, हर दिल अज़ीज़ मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ान जिन्हें दुनिया ग़ालिब के नाम से जानती है, आज यानि २७ दिसंबर को उनकी यौम-ए-पैदाइश है। २७ दिसंबर १७९७ में काला महल, आगरा के मुग़ल ख़ानदान में पैदा हुए गालिब का दुनिया के बारे में नज़रिया था कि दुनिया एक खेल के मैदान की मानिंद है, जहां हर कोई किसी बड़ी चीज़ की बजाय किसी ना किसी दुनियावी सरगर्मियों और ख़ुशी में मसरूफ़ है। जैसा कि उन्होंने लिखा

बाज़ीचा इतफ़ाल है, दुनिया मेरे आगे, 
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे।
उग रहा है दर-ओ-दीवार से सब्ज़ा ग़ालिब, 
हम बया बां में हैं और घर में बहार आई है।

    मिर्ज़ा ग़ालिब ने ११ साल की उम्र में शायरी शुरू की। उर्दू के साथ-साथ घर में फ़ारसी और तुर्की भी बोली जाती थी। उन्होंने कमउमरी में फ़ारसी और अरबी की तालीम हासिल की। उर्दू और फ़ारसी दोनों ज़बानों में अशआर लिखे। आज ग़ालिब ना सिर्फ बर्र-ए-सग़ीर हिंद-ओ-पाक में बल्कि दुनिया-भर में मक़बूल हैं। उर्दू और फ़ारसी का ताअल्लुक़ ग़ालिब से ही नहीं बल्कि तमाम ग़ैर मुस्लिम शोरा, उदबा से हैं। लेकिन ग़ालिब से मुहब्बत तो है, मुहब्बत का दावा भी है लेकिन उनकी ज़बान यानी उर्दू, फ़ारसी, जो उनका ओढ़ना-बिछौना, लिबास था, से बे-एतिनाई है। 
    आज उर्दू के तईं जो ताअस्सुबाना रवैय्या हुकूमतों ने अपना रखा है, वो मख़फ़ी नहीं है। बाक़ायदा सर्कूलर जारी कर सरकारी दफ़ातिर में उर्दू अलफ़ाज़ का इस्तिमाल ना करने को कहा जा रहा है। इससे ज़्यादा बदनसीबी और क्या हो सकती है कि जो ज़बान पूरे मुल्क को बाँधने का काम कर रही है, उसे ही सरकारी दफ़ातिर में बोल-चाल और काम काज में ना लाने को कहा जा रहा है। उर्दू के तमाम इदारे, दफ़ातिर और मुख़्तलिफ़ सूबों की उर्दू अकेडमियां, उर्दू लाइब्रेरियां क़रीब-क़रीब बंद होने के दहाने पर हैं या सरकारी माली तआवुन (ग्रांट) की कमी की वजह से आख़िरी साँसें ले रही हैं या उन्हें इस हालत में कर दिया है कि वो खुद दम तोड़ दे। 



    उर्दू के नाम पर बनाए गए इदारे तो ख़ुद उर्दू को डूबाने पर तुले हुए हैं। उर्दू अकेडमियां, जो ख़ालिस उर्दू ज़बान के तहफ़्फ़ुज़ और उसकी बका के लिए तशकील दी गई है, वहां भी उर्दू की बका-ओ-फ़रोग़ को छोड़कर सब कुछ बरसर-ए-इक्तदार पार्टी को ख़ुश करने के लिए किया जा रहा है। कहीं क़व्वाली की महफ़िलें होती हैं तो कहीं ग़ज़लों और गीतों के प्रोग्राम। पोस्टर-बैनर्स, पांम्पलेंट्स से उर्दू, उर्दू रस्म-उल-ख़त ग़ायब होते हैं, उर्दू की जगह 'रोमन उर्दू' ने ले ली है। 
    हाल ही में पुलिस हेडक्वार्टर भोपाल (मध्य प्रदेश) से जारी खत में कहा गया है कि महिकमा पुलिस में उर्दू और फ़ारसी अलफ़ाज़ का इस्तिमाल ब कसरत हो रहा है। अब उन अलफ़ाज़ की जगह हिन्दी के अलफ़ाज़ का इस्तिमाल किया जाए। इसी तरह राजिस्थान हुकूमत ने भी सर्कूलर जारी किया है। राजिस्थान उर्दू अकेडमी को पहले ही बंद कर दिया गया है। झारखंड हुकूमत ने तो उर्दू अकेडमी की तशकील ही नहीं की है। इससे पता चलता है कि उर्दू के तंई नफ़रत और ताअस्सुब किस क़दर बढ़ चुका है। उर्दू को ख़त्म करना भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब, आपसी भाई चारा और आपसदारी को ख़त्म करने के मानिंद होगा। 
    मौजूदा हुकूमतें ताअस्सुब की बिना पर उर्दू अलफ़ाज़ का सरकारी दफ़ातिर में इस्तिमाल ना करने का सर्कुलर जारी कर, उर्दू इदारों ख़ास कर उर्दू अकेडमियों को बंद कर या ग्रांट ख़त्म कर, उर्दू तलबा के लिए असातिज़ा की तक़र्रुरी ना कर, निसाब की किताबें खासतौर पर साईंसी उलूम और हिसाब वग़ैरा की किताब उर्दू में मुहय्या ना कराने जैसे जितने भी जुल्म उर्दू जबान के साथ कर रही है, उसके लिए उर्दू दां हज़रात, मुहिब्बाने उर्दू को एक प्लेटफार्म पर आकर आवाज़ बुलंद करनी होगी और अपने हुक़ूक़ के लिए लड़ाई लड़नी होगी।
    आज हर तरफ़ मुशायरों का दौर-दौरा है। भारत में भी और बैरून में भी मुशायरों का इनइक़ाद किया जा रहा है। भारतीय शोरा भी बैरून के मुशायरों में शिरकत करते हैं लेकिन काबिल-ए-ज़िक्र है कि प्रोग्राम के फ्लेक्स-ओ-बैनर पर उर्दू या तो होती ही नहीं है या महिज़ सुर्ख़ी बन कर रह जाती है। उर्दू के नाम पर होने वाले प्रोग्राम में उर्दू की जगह रोमन उर्दू या इलाक़ाई ज़बान ले लेती है लेकिन उर्दू दां हज़रात के माथे पर शिकन नहीं आती और ये सब कुछ उर्दू दां और महबान उर्दू के सामने होता है।
    उर्दू ज़बान जो कि भारत के ख़मीर से बनी है, मुहब्बत का दर्स दे रही है। गंगा-जमुनी तहज़ीब की अलामत है। अपने ही मुल्क में इन्साफ़ की गुहार लगा रही है। इसके फ़रोग़ से ही मुल्क की सालमीयत से बरक़रार है। हम सबकी ज़िम्मेदारी है कि हम उर्दू पढ़े, उर्दू लिखे, उर्दू बोलेऔर सबसे अहम उर्दू रस्म-उल-ख़त इख़तियार करें।
    वाजेह रहे कि उर्दू ज़बान की जो तासीर है, वो किसी दीगर ज़बान में नहीं। इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि ग़ालिब जैसे फ़ारसी के अज़ीम शायर, जिन्होंने फ़ारसी में ना जाने कितने अशआर लिखें हैं, उन्हें शोहरत उस वक़्त मिली जब उन्होंने उर्दू में अशआर लिखने शुरू किए। 
    भारत की सरज़मीन जो इस ज़बान की जाये पैदाइश है, अपनी इस बेटी के लिए तंग होती जा रही है। हालाँकि यही ज़बान अपनी जाये पैदाइश से निकल कर दूसरी ममलकतों में अपना जादू जगा रही है, और अपनी सेहर-बयानी से लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ को फ़तह कर रही है। लेकिन अपने ही मुल्क में उसे ख़त्म करने की साज़िश रची जा रही है। एक मख़सूस पालिसी और ख़ास ज़हनीयत के तहत उर्दू को सरकारी और अवामी ज़िंदगी से रफ़्ता-रफ़्ता निकाला जा रहा है। 
    उर्दू की ख़िदमत करते हुए बुलंद पाया शायर मिर्जा गालिब १५ फरवरी १८६९ को इस दुनिया को हमेशा के लिए अल-विदा कह गए। उनके यौम-ए-पैदाइश के मौके पर जरूरत इस बात की है कि हमें उनके मिशन को आगे बढ़ाने का अज़म करना होगा। अह्द करना होगा कि हम ता दमे हयात हम उर्दू की ख़िदमत करेंगे, यही सही माअनों में मिर्ज़ा ग़ालिब मुंशी नवलकिशोर, ब्रज नारायण चकबस्त, फ़िराक़-गोरखपुरी, मुंशी प्रेम चंद, जगन्नाथ आज़ाद, आनंद नारायण मुल्ला, मुंशी हर सुख राय, हरी हरिदत्त, सदा सुख लाल, पण्डित धरम निरावन भास्कर, पण्डित मेला राम वफ़ा, पण्डित रतन नाथ सरशार वग़ैरा को ख़िराज-ए-अक़ीदत होगी। 
    ये बात भी अयाँ है कि अगरचे ग़ालिब के नाम से ढेर सारे इदारे बनाए गए हों, चाहे ग़ालिब अकेडमी हो, ग़ालिब लाइब्रेरी हो, ग़ालिब फाऊंडेशन हो या दीगर कोई भी इदारा ग़ालिब के नाम से मंसूब कर लिया जाए, उस पर ग़ालिब का नाम तो रह सकता है लेकिन जब तक उर्दू, अरबी, फ़ारसी नहीं होगी, ग़ालिब का मिशन अधूरा ही रहेगा। उन्हें सच्ची ख़िराज-ए-अक़ीदत तब ही हो सकती है, जब उर्दू, अरबी और फ़ारसी बाक़ी रहे। 

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