- सईद खान
उनका आना कभी नागवार नहीं गुजरा। चाहे घर में कोई मेहमान आया हो या मैं कोई जरूरी काम निपटा रहा होऊं। यहां तक कि हम पति-पत्नी के बीच किसी बात को लेकर हुए विवाद की वजह से घर का माहौल अगर तनावभरा हो गया हो, तो भी। वे जब भी आते, गोया अपने साथ हर मर्ज की दवा लेकर आते। ब-जाहिर उनके पास दवा की कोई पुड़िया नहीं होती, तो भी, संभवत: यह उनके व्यक्तित्व का ही कमाल हो कि उनके आते ही घर में शीतल वायु सी ठंडक घुल जाती। जरूरी काम को बाद के लिए टाल दिया जाता और मेहमान तो जैसे उन्हीं से मिलने आए होते हों। पलभर में वे उनसे इतना खुल जाते जैसे वर्षों से उन्हें जान रहे हों। लवी तो उन्हें देखते ही उनकी गोद में बैठ जाता और उनकी मोटी घनी मूंछों के साथ खेलने लगता और बेगम बड़ी अदा से मुस्कुराकर कहती-‘चाचा जी, आज स्पेशल पकौड़े बनाने का मूड था, अच्छा हुआ आप आ गए।’
‘तुम्हारे मूड को मैं जानता हूं बेटी, जो मुझे देखकर ही पकौड़े बनाने का बन जाता है। लेकिन सॉरी...।’ वे हाथ उठाकर कहते-‘आज पकौड़े खाने का मेरा कोई इरादा नहीं है। लेकिन बेगम उनकी एक नहीं सुनती और उन्हें पकौड़े खिलाकर ही मानती।’
वे आते तो कभी इतनी धीर-गंभीर चर्चा करते जैसे सारे जहां कि चिंताएं उन्हीं के हिस्से में आ गई है तो कभी बच्चों की तरह कोई विषय लेकर बैठ जाते। आज आए तो कहने लगे- ‘बेटा, ये तो बताओ, ये गरीबी रेखा क्या होती है।’
मुझे आश्चर्य नहीं हुआ कि वे मुझसे गरीबी रेखा के बारे में सवाल कर रहे हैं। मैं उनकी प्रकृति से वाकिफ हूं। वे कब, क्या पूछ बैठेंगे, कुछ तय नहीं रहता। अक्सर ऐसे सवाल कर बैठते, जिससे आमतौर पर आदमी का अक्सर वास्ता पड़ता है लेकिन आम आदमी का उस पर ध्यान नहीं जाता। और ऐसा भी नहीं कि जो सवाल वे कर रहे होते हैं, उसका जवाब वे न जानते हों। वे कोई सवाल उसका जवाब जानने के लिए नहीं बल्कि उसकी बखिया उधेड़ने के लिए करते हैं, यह मैं खूब जानता हूं।
मैं बोला-‘गरीबी रेखा से आदमी के जीवन स्तर का पता चलता है।’
‘मतलब...गरीबी रेखा से ये पता चलता है कि कौन गरीब है और कौन अमीर है।’
मैं बोला-‘हां, जो इस रेखा के इस पार है, वो अमीर है और जो उस पार है, वो गरीब है।’
‘मतलब...गरीब को उनकी गरीबी का और अमीर को उनकी अमीरी का अहसास दिलाने वाली रेखा।’
‘हां।’ मैं थोड़ा हिचकिचा कर बोला-‘आप इसे इस तरह भी समझ सकते हैं।’
‘यानी...एक तरह से यह कहने वाली रेखा कि तू गरीब है। तू ये वाला चावल मत खा। ये वाले कपड़े मत पहन वगैरह-वगैरह।’
‘नहीं।’ मैं बोला-‘गरीबी रेखा का ये मतलब निकालना मेरे हिसाब से मुनासिब नहीं होगा।’
‘गरीब को उसकी गरीबी का अहसास दिलाने के पीछे कोई और भी मकसद हो सकता है भला।’ उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में पहलू बदलकर कहा- ‘खैर! ये बताओ। ये रेखा खींची किसने है, सरकार ने।’
‘हां, और क्या। सरकार ने ही खींची है। और कौन खींच सकता है।’
‘लेकिन सरकार को ये रेखा खींचने की जरूरत क्यों पड़ी भला।’
‘सरकार गरीबों की चिंता करती है इसलिए। सरकार चाहती है कि गरीब भी सम्मानपूर्वक जिंदगी गुजारे। उनकी जरूरतें पूरी हो। वो भूखा न मरे। गरीबों का जीवन स्तर ऊपर उठाने सरकार ने अनेक कल्याणकारी योजनाएं बना रखी है।’
‘तो ऊपर उठा उनका जीवन स्तर।’
‘उठेगा।’ मैं बोला-‘उम्मीद पर तो दुनिया कायम है। लेकिन ये तय है कि इससे उन्हें उनकी जरूरत की चीजें जरूर आसानी से मुहैय्या हो रही है।’
‘गरीबों को उनकी जरूरत की चीजें गरीबी रेखा खींचे बगैर भी तो मुहैय्या कराई जा सकती थी।’
उनके इस सवाल से मेरा दिमाग चकरा गया और मुझसे कोई जवाब देते नहीं बना। फिर भी मैं बोला-‘आप ठीक कह रहे हैं। ऐसा हो तो सकता था। फिर पता नहीं क्यों, गरीबी रेखा खींचने की जरूरत पड़ गई।’
‘ऐसा तो नहीं कि अमीर लोग गरीबों का हक मार रहे थे इसलिए ये रेखा खींचने की जरूरत पड़ी।’
तभी गर्मागर्म पकौड़े से भरी ट्रे लेकर बेगम वहां आ गई। आते ही बोली-‘थोड़ी देर के लिए आप दोनों अपनी संसद को विराम दीजिए। पहले गर्मागर्म पकौड़े खाईए उसके बाद देश-दुनिया की फिक्र करिए।’ बेगम के वहां आ जाने से चाचा के मुंह से निकला अंतिम वाक्य ‘आया-गया’ हो गया। मैं और चाचा जी पकौड़े खाने में मशरूफ हो गए। पकौड़े गर्म तो थे ही, स्वादिष्ट भी थे इसलिए हम दोनों पकौड़े का आनंद उठाने लगे जिससे कुछ देर तक हमारे बीच कोई बातचीत नहीं हुई। लेकिन यह स्थिति ज्यादा देर तक नहीं रही। चार-छह पकौड़े उदरस्त करने के बाद चाचा जी ने ही मौन तोड़ा। बोले-‘गरीबी रेखा से अगर सचमुच अमीर लोगों को गरीबों का हक मारने का मौका नहीं मिल रहा है और गरीबों को उनकी जरूरत की चीजें मुहैय्या हो रही है तो क्यों न ऐसी दो-चार रेखाएं और खींच दी जाए।’
मैंने एक पकौड़ा उठाकर मुंह में रखा और चाचा जी की तरफ देखने लगा। वे समझ गए कि मैं उनका आशय समझ नहीं पाया हूं इसलिए उन्होंने खुद ही अपनी बात आगे बढ़ाई। बोले-‘एक भ्रष्टाचारी रेखा हो। एक कमीननेपन की रेखा हो। एक चुनाव के दौरान झूठे वादे करने की रेखा हो...।’ उन्होंने एक और पकौड़ा उठाया और उसे मिर्च वाली चटनी में डुबाते हुए बोले-‘भ्रष्टाचार, कमीनापन और चुनाव जीतने के लिए झूठे वादा करना मनुष्य के स्वभावगत गुण हैं। इसे पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता। चुनावी सीजन में जो भ्रष्टाचार खत्म करने और ब्लैकमनी वापस लाने के दावे करते थे, चुनाव जीतने के बाद वे खुद उसमें रम जाते हैं। यहां तक कि अपने मूल काम को भी तज देते हैं। जिसका नुकसान सीधे गरीबों को होता है। इसलिए गरीबी रेखा की तरह कुछ और रेखाएं भी खींची जानी चाहिए। भ्रष्टाचारी रेखा, भ्रष्टाचार करने वालों की लिमिट तय करेगी। तुमने सुना होगा, यातायात विभाग के एक हेड कांस्टेबल के पास से करोड़ों रुपए बरामद हुए थे। भ्रष्टाचारी रेखा खींच दी जाए तो भ्रष्टाचारी एक हद तक ही भ्रष्टाचार करेगा। भ्रष्टाचार जब लाईन आफ कंट्रोल तक पहुंचेगा तो वह खुद ही हाथ जोड़कर रकम लेने से मना कर देगा। कहेगा-‘इस साल का मेरा भ्रष्टाचार का कोटा पूरा हो गया है। इसलिए अब नहीं। कम से कम इस साल तो नहीं। अगले साल देखेंगे।’ इसी तरह चुनावी रेखा चुनाव के दौरान झूठे वादों की लिमिट तय करेगी। चुनाव के दौरान उम्मीदवार यह देखेगा कि उसकी पार्टी के नेता ने पिछली बार कौन-कौन से वादे किए थे और उनमें से कौन-कौन से वादे पूरे नहीं हुए हैं। उस हिसाब से उम्मीदवार वादे करेगा। कहेगा-‘पिछले चुनाव में मेरी पार्टी के नेता ने फलां-फला वादे किए थे जो पूरे नहीं हो पाए, इसलिए इस चुनाव में मैं कोई नया वादा नहीं करुंगा बल्कि पिछली बार किए गए वादों को पूरा करुंगा।’ इसी तरह कमीनी रेखा लोगों के कमीनेपन की लिमिट तय करेगी।’
उनकी इस तजवीज के बाद मेरे पास बोलने को जैसे कुछ रह नहीं गया था। वे भी एकदम से खामोश हो गए थे। जैसे बोलने की उनकी लिमिट पूरी हो गई हो। उसी समय बेगम भी वहां चाय लेकर पहुंच गई थी। तब तक लवी उनकी गोद में ही सो गया था। बेगम ने लवी को उनकी गोद से उठाया और उसे लेकर दूसरे कमरे में चली गई। हम दोनों चुपचाप चाय सुड़कने लगे थे। चाय का घूंट भरते हुए बीच-बीच में मैं उनकी ओर कनखियों से देख लिया करता था। लेकिन वे निर्विकार भाव से बैठे चाय सुड़क रहे थे।
वे ऐसे ही हैं। अजीब से। कुछ न होते हुए भी बहुत कुछ। मोहल्ले के हर घर में उनका आना-जाना था। सभी उन्हें प्यार से चाचाजी कहते। शादी-ब्याह हो, ईद या दीवाली हो, किसी की वर्षगांठ हो या किसी ने कोई नया सामान खरीदा हो, अपनी खुशी में उन्हें शामिल किए बगैर खुद खुश नहीं हो पाता। पता नहीं उनके व्यक्तित्व का वह कौन सा गुण है, जो सभी को बांधे हुए है। उनके दिमाग की थाह पाना भी मुश्किल है। समझ में नहीं आता कि उनके दिमाग में क्या चल रहा होता है। एक दिन पूछ बैठे-‘मुझे देखकर तुम्हारे मन में कभी ये ख्याल नहीं आता कि जब दंगा होता है तो मेरी कौम के लोग तुम्हारी कौम के लोगों का गला काटते हैं, उनके घर जलाते हैं। उनकी संपत्ति लूटते हैं।’
उनके इस अप्रत्याशित सवाल से मैं बौखला गया था। बोला-‘ये कैसा सवाल है चाचा जी।’
‘सवाल तो सवाल है बेटा। सवाल में कैसे और वैसे का सवाल क्यों।’
‘तो एक सवाल मेरा भी है चाचा जी।’ मैं बोला-‘क्या आपके मन में कभी ये ख्याल आया कि मैं मुसलमान हूं, आप हिंदू हैं। जब दंगा होता है तो मेरी कौम के लोग भी आपकी कौम के लोगों के साथ वही सब करती है जो आपकी कौम के लोग हमारी कौम के साथ करते हैं। आप शुद्ध शकाहारी हैं और मैं मांसभक्षी।’
‘जवाब ये है बेटे कि ये ख्याल हम दानों के मन में नहीं आता न आएगा।’
‘फिर आपने ये सवाल पूछा ही क्यों चाचा जी।’
वे अपेक्षाकृत गंभीर लहजे में बोले-‘दरअसल! हम ये समझने की कोशिश कर रहे थे बेटा कि जब एक आम हिंदू और एक आम मुसलमान के मन में कभी ये ख्याल नहीं आता कि मैं हिंदू, तू मुसलमान या मैं मुसलमान तू हिंदू। जब आम दिनों में दोनों संग-संग व्यापार करते हैं, उठते बैठते हैं, एक-दूसरे की रस्मो-रिवाज का हिस्सा बनते हैं तो आखिर दंगा होता ही क्यों है। और जब दंगा होता भी है तो इतनी वैमनस्यता कहां से पैदा हो जाती है कि दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं। कहीं...। वे एक पल के लिए रुके फिर बोले -‘कहीं... ऐसा तो नहीं कि हमारे बीच भी कोई रेखा खींच दी जाती हो। हिंदू रेखा या मुसलमान रेखा।’
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