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अरबी को महज मज़हबी ज़बान समझ कर महदूद करना ना इंसाफ़ी

रज्जब उल मुरज्जब, 1446 हिजरी
फरमाने रसूल ﷺ
बेशक अल्लाह ताअला रोज़े कयामत फरमाएगा, मेरी अज़मत व ताज़ीम की खातिर बाहमी (आपस में) मोहब्बत करने वाले कहाँ है? मैं आज उनको अपने साए में जगह दूंगा, उस दिन मेरे साए के सिवा कोई साया नहीं होगा।
- मिश्कवात, मुस्लिम 

nai tahreek, bakhtawar adab, hamza travel tales

18 दिसंबर को दुनियाभर में मनाया गया 

वर्ल्ड अरेबिक लैंग्वेज डे

✅  एमडब्ल्यू अंसारी : भोपाल

    18 दिसंबर को दुनिया-भर में आलमी यौम अरबी (वर्ल्ड अरेबिक डे) मनाया गया । ये दिन महज एक ज़बान की याद-दहानी नहीं बल्कि एक ऐसी तहज़ीबी रिवायत का एतराफ़ है, जिसने सदीयों तक इल्म-ए-फ़ल्सफ़ा, साईंस, मज़हब और इन्सानी फ़िक्र को सिम्त दी। अक़्वाम-ए-मुत्तहदा ने 18 दिसंबर 1973 को अरबी ज़बान को अपनी सरकारी ज़बानों में शामिल किया था, उसी तारीख़ी फ़ैसले की मुनासबत से ये दिन मनाया जाता है।

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    वाजेह रहे कि अरबी ज़बान का ताल्लुक़ महज अरबी ममालिक, वर्ल्ड मुस्लिम लीग, अरब लीग, ओपेक मुल्कों तक ही महदूद नहीं बल्कि नॉर्थ अमरीका, यूरोपीयन ममालिक और बर्र-ए-सग़ीर की ज़बानों, बिलख़सूस उर्दू और मुतअद्दिद इलाक़ाई ज़बानों से इसका रिश्ता सदियों से है। उर्दू और फ़ारसी की तशकील में अरबी ने बुनियादी किरदार अदा किया है। मज़हबी इस्तिलाहात हो, इलमी-ओ-फ़िक्री तसव्वुरात हों या अदालती-ओ-समाजी ज़बान, अरबी अलफ़ाज़ उर्दू के मिज़ाज का हिस्सा बन चुके हैं। इसी तरह हिन्दी, बंगाली, मलयालम, तमिल और दीगर इलाक़ाई ज़बानों में भी अरबी के असरात किसी ना किसी सूरत में मौजूद हैं, जो इस बात का सबूत हैं कि अरबी एक ज़िंदा, मुतहर्रिक और हमागीर ज़बान है।
   आज के दौर में जब इलाक़ाई ज़बानें शिनाख़्त, बक़ा और फ़रोग़ के सवालात से दो-चार हैं, अरबी ज़बान के साथ उनका रिश्ता मज़ीद अहम हो जाता है। अल-ग़र्ज़ ये कि तमाम इलाक़ाई ज़बानें अरबी, उर्दू के सहारे फलफूल रही हैं। उनके फ़रोग़ का मतलब इलाक़ाई ज़बानों के इलमी ज़ख़ीरे को तक़वियत देना भी है, क्योंकि तर्जुमा, तदरीस और जदीद उलूम की मुंतकली में अरबी एक मज़बूत पुल का किरदार अदा कर सकती है। अगर तालीमी पालीसियों में अरबी, उर्दू और इलाक़ाई ज़बानों को बाहम मरबूत कर के देखा जाए तो ना सिर्फ लिसानी तनव्वो महफ़ूज़ रहेगा बल्कि कसीर लिसानी मुआशरे में सक़ाफ़्ती हम-आहंगी और फ़िक्री इत्तिहाद भी फ़रोग़ पाएगी।
अरबी ज़बान को ये इमतियाज़ हासिल है कि वो कुरान-ए-करीम की ज़बान है, जो दुनिया के दो अरब से ज़ाइद मुस्लमानों के लिए ना सिर्फ मज़हबी बल्कि फ़िक्री और अख़लाक़ी रहनुमाई का सरचश्मा है। बहुत से लोग अरबी पढ़ तो सकते हैं लेकिन इसके मअनी-ओ-मतलब नहीं समझ पाते जिसे सीखने सिखाने की ज़रूरत है। अरबी महज़ मज़हबी ज़बान नहीं, बल्कि रियाज़ी, फ़लकियात, तिब्ब, कीमिया और फ़लसफ़ा जैसे उलूम की बुनियादों में इसका किरदार तारीख़ का नाक़ाबिल-ए-इनकार हिस्सा है।
    आज अरबी ज़बान अक़्वाम-ए-मुत्तहदा (UNO) की छः सरकारी ज़बानों में शामिल है। इसके अलावा ओपेक (डढएउ) जैसे अहम आलमी इदारे में अरबी ना सिर्फ इबलाग़ की ज़बान है बल्कि पालिसी और सिफ़ारती मकालमे का अहम ज़रीया भी है। अरब दुनिया आलमी मईशत, तवानाई और जुग़राफ़ियाई सियासत में कलीदी किरदार अदा करती है, और अरबी ज़बान इस पूरे निज़ाम की फ़िक्री बुनियाद है।
    इसी तरह वर्ल्ड मुस्लिम लीग अरबी ज़बान के फ़रोग़, इस्लामी तालीमात की दरुस्त तर्जुमानी और बैन उल मज़ाहिब मकालमे के लिए सरगर्म है। ये इदारा दुनिया-भर में इस्लाम के एतिदाल पसंद पैग़ाम, अमन, रवादारी और इन्सानी इक़दार को फ़रोग़ देने में अरबी ज़बान को एक मोस्सर वसीला मानता है।
    आज के दौर में इस्लामो फोबिया एक आलमी चैलेंज बनता जा रहा है। इस्लाम और मुस्लमानों के ख़िलाफ़ फैलाए जाने वाले बहुत से ग़लत तसव्वुरात की एक बड़ी वजह इस्लाम से ना वाक़फ़ीयत है। अरबी ज़बान से दूरी, क़ुरआन और इस्लामी तालीमात को असल सयाक़-ओ-सबॉक् में ना समझने का सबब बनती है, जिसका फ़ायदा नफ़रत फैलाने वाली ताक़तें उठाती हैं इसलिए ज़रूरी है कि अरबी ज़बान घर-घर तक पहुंचे, लोग पढ़ें, बोले और समझें।
    अगर अरबी ज़बान को इसके असल फ़िक्री, अख़लाक़ी और इन्सानी पैग़ाम के साथ समझा जाए तो वाज़िह हो जाता है कि इस्लाम अमन, अदल, इन्सानी वक़ार और बकाए बाहमी का दाई है। इसीलिए अरबी ज़बान का फ़रोग़ दरअसल इस्लामो फोबिया के ख़िलाफ़ एक फ़िक्री जद्द-ओ-जहद भी है।
    वाज़िह रहे कि अरबी ज़बान तक़रीबन 55 करोड़ अफ़राद बोलते हैं, ये 22 ममालिक की सरकारी ज़बान और अक़्वाम-ए-मुत्तहदा की छः सरकारी ज़बानों में शामिल है, इसके बावजूद आलमी डीजीटल मवाद में अरबी का हिस्सा महिज़ तक़रीबन 3 फ़ीसद है, जो एक फ़िक्री और तकनीकी अदम तवाज़ुन की वाजेह अलामत है।
    अरबी समेत तमाम ज़बानों की डिजिटीलाइजेशन नागुज़ीर है, ताकि क़दीम क़ीमती मवाद महफ़ूज़ किया जा सके, ऑनलाइन तालीम को फ़रोग़ मिले और साईंस-ओ-टैक्नोलोजी की जदीद ईजादात को ज़बान से हम-आहंग किया जा सके।
    अरबी ज़बान को मशरिक़-ए-वुसता में रोज़गार के मवाक़े से जोड़ना वक़्त की अहम ज़रूरत है, जिसके लिए कैरीयर काऊंसलिंग, रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट इदारों का क़ियाम ज़रूरी है ताकि तलबा अपनी अरबी तालीम को मुलाज़मत के तक़ाज़ों के मुताबिक़ ढाल सकें। तकनीकी एतबार से तरक़्क़ी याफताह ममालिक के साईंसी और तकनीकी मवाद का अरबी में तर्जुमा किया जाए और अंग्रेज़ी समेत दीगर ज़बानों से मुस्तामल तकनीकी इस्तिलाहात को अरबी में ज़म किया जाए, ताकि ज़बान जदीद इलमी तक़ाज़ों से हमक़दम रह सके।
    भारत में अरबी ज़बान की एक तवील और मज़बूत रिवायत मौजूद है। मदारिस, जमिआत, सूफियाना लिटरेचर और इलमी विरसे में अरबी ज़बान की जड़ें गहिरी हैं। मगर अफ़सोस कि जदीद तालीमी और सरकारी सतह पर अरबी ज़बान को वो मुक़ाम हासिल नहीं जो इसका हक़ है। अरबी को महिज़ मज़हबी ज़बान समझ कर महिदूद करना ना इंसाफ़ी है। हर सूबे में अरबी यूनीवर्सिटी, कॉलेज होना चाहिए।
    आलमी यौम अरबिया हमें ये पैग़ाम देता है कि ज़बानें महिज़ इज़हार का ज़रीया नहीं होतीं बल्कि तहज़ीबों के दरमयान पुल का काम करती हैं। अरबी ज़बान का एहतिराम दरअसल इलम, तारीख़, मकालमे और तनव्वो का एहतिराम है। आज जब दुनिया नफ़रत, ताअस्सुब और ग़लत-फ़हमियों से दो-चार है, अरबी ज़बान अपने अंदर अमन और फ़िक्री गहराई का पैग़ाम रखती है।
    ज़रूरत इस बात की है कि तालीमी इदारे, मीडीया, हुकूमतें और आलमी तंज़ीमें अरबी ज़बान को महिज़ माज़ी की विरासत नहीं बल्कि मुस्तक़बिल की एक मोस्सर आलमी ज़बान के तौर पर देखें।

IPS (Retd.DGP, Chhattisgarh)

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