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पैग़ंबर-ए-इस्लाम हजरत मुहम्मद ﷺ की ताअलीम को आम करने की जरूरत : एमडब्ल्यू अंसारी

रबि उल आखिर, 1447 हिजरी 

फरमाने रसूल ﷺ
जिस शख्स की रूह इस हाल में उसके जिस्म से जुदा हो के वो तीन चीजों से बरी हो तो वो जन्नत में जाएगा
1, तकब्बुर
2, कर्ज और 
3 खयानत 
- मसनद अहम


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✅ नई तहरीक : भोपाल

    नबी-ए-करीम   को क़ुरआन ने ''मुअल्लिम' के तौर पर मुतआरिफ़ कराया है। आप   ने अपने सहाबा को सिर्फ किताबी इल्म नहीं दिया बल्कि उनके किरदार को भी संवारा। उनकी फ़िक्र को बुलंद किया और उन्हें दुनिया का सबसे मुहज़्ज़ब मुआशरा बना दिया। वही सहाबा कराम बाद में दुनिया-भर में इलम-ओ-अदल के सफ़ीर बने। ये इस बात की गवाही है कि एक उस्ताद महज मालूमात का ज़रीया नहीं बल्कि नसलों के मुस्तक़बिल का मुअम्मार होता है।
    नबी-ए-करीम 
  ने तालीम को महज मालूमात देने या पेशावराना महारत हासिल करने तक महदूद नहीं रखा बल्कि उसे इन्सानियत की बुनियाद बनाया। यही असल तालीम है। आज का सबसे बड़ा चैलेंज ये है कि तालीमयाफ़ता लोग बड़े ओहदों पर पहुंच कर भी अगर इन्सानियत से ख़ाली हों, तो इल्म मौत की फ़ैक्ट्री में बदल जाता है। यही मंज़र आज ग़ज़ा और फ़लस्तीन में नज़र आ रहा है। तारीख़ गवाह है कि जब तालीम से रहम-ओ-अख़लाक़ निकल जाए तो वो बम, मिज़ाईल और ज़ुलम के आलात पैदा करती है, लेकिन जब तालीम इन्सानियत से जुड़ी हो तो वो अदल, मुहब्बत और ज़िंदगी की हिफ़ाज़त का ज़रीया बन जाती है।
    इस मौक़ा पर हमें सोचना होगा कि तालीम का मक़सद डाक्टर, इंजीनियर या अफ़्सर बनाना नहीं, बल्कि ऐसे इन्सान पैदा करना है, जो ज़ुलम के ख़िलाफ़ खड़े हों, और ज़िंदगी की हिफ़ाज़त करें। उस्ताद का असल काम यही है कि वो शागिर्द के दिल में इल्म के साथ इन्सानियत भी पेवस्त करे। नबी-ए-करीम 
  की तालीमात में यही सबक़ मिलता है कि असल मुअल्लिम वो है, जो इन्सान को इन्सान के क़रीब लाए, ना कि उसे मौत की मशीन बना दे।
    मुश्किल ये कि आज भी करोड़ों बच्चे तालीम से महरूम हैं। सरकारी आदाद-ओ-शुमार के मुताबिक़ भारत में तालीमी ड्राप आउट रेट अभी भी एक बड़ा मसला है। देही इलाक़ों में मेयारी तालीम का फ़ुक़दान है और लाखों बच्चे बुनियादी तालीम से भी दूर हैं। दूसरी तरफ़ जिन्हें तालीम मिलती है, उनके अंदर महज डिग्रियां होती हैं लेकिन किरदार साज़ी और समाजी शऊर का फ़ुक़दान दिखाई देता है। 
    किरदार, तहज़ीब, तमद्दुन, अख़लाक़, बड़ों का अदब, छोटों पर शफ़क़त, बुज़ुर्गों की क़दर और एहतिराम, ये सब महज बातें बन कर रही गई हैं। हमने तालीम को मुलाज़मत का ज़रीया तो समझ लिया है, इन्सान साज़ी का ज़रीया नहीं समझ पा रहे हैं। 
यहां हमें नबी ए करीम 
  की तालीमात से सबक़ लेना है। आपﷺ  ने फ़रमाया:' मैं मुअल्लिम बना कर भेजा गया हूँ, यानी आपﷺ  की बिअसत ही इन्सानियत को इल्म और शऊर देने के लिए थी। आप   ने बताया कि उस्ताद का हक़ बाप से भी बढ़कर है क्योंकि उस्ताद ही औलाद को ज़िंदगी का मक़सद सिखाता है।
    आज ज़रूरत है कि हम असातिज़ा के मुक़ाम को सिर्फ एक दिन की तक़रीबात तक महिदूद ना रखें। असातिज़ा का एहतिराम करें। हमारे मुआशरे में ये रविष आम है कि उस्ताद को महज निसाब पढ़ाने वाला फ़र्द समझा जाता है, हालाँकि उस्ताद किरदार साज़ी, समाज साज़ी और क़ौम की तक़दीर साज़ी करता है। उस्ताद ही वो चिराग़ है जो नसलों के लिए रोशनी बनता है।
    भारत की सरज़मीन ने कई अज़ीम शख़्सियतों को देखा ,जिन्होंने अपने मुल्क और क़ौम व मिल्लतके लिए बहुत कुछ किया। उन्हीं में एक डाक्टर सर्वपल्ली राधा कृष्णन भी हैं जिनकी ज़िंदगी तालिब-इल्म और उस्ताद के लिए नमूना है। 

रहबर भी, ये हमदम भी, ये ग़मखार हमारे,

उस्ताद ये क़ौमों के हैं मुअम्मार हमारे।

    नबी -ए- करीम   की सीरत हमें यही सबक़ देती है कि असल मुअल्लिम वो है, जो इलम के साथ हिक्मत और किरदार भी अता करे। 
    आज अगर मआशरे में इलम के बावजूद अंधेरा है, तो इस पर असातिज़ा को भी ग़ौर करना होगा कि कहाँ कमी रह गई है। जब तक उस्ताद अपने किरदार को संवारने और तालीम को इन्सानियत के साथ जोड़ने का अज़म नहीं करेंगे, तब तक असल मक़सद पूरा नहीं हो सकता।



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