29 मुहर्रम-उल-हराम 1445 हिजरी
जुमेरात, 17 अगस्त, 2023
-------------------------
अकवाले जरीं‘अल्लाह के जिक्र के बिना ज्यादा बातें न किया करो, ज्यादा बातें करना दिल की कसादत (सख्ती) का सबब बनता है और सख्त दिल शख्स अल्लाह को पसंद नहीं।’
- मिश्कवात
---------------------------------------------------------
एमडब्ल्यू अंसारी : भोपाल
भारत की आजादी साझी विरासत की नायाब मिसाल है। ये एक ऐसी विरासत है, जिसकी हिफाजत हर भारतीय पर फर्ज है। साझी विरासत ना सिर्फ भारत की मुशतर्का तहजीब की अमीन है, बल्कि इसी में भारत की रूह बसती है।सदरंग ये फिजा मेरे हिंदुस्तां की है,
खुशबू इसी में देखिए सारे जहां की है।
भारत की अजमत, मध्य प्रदेश की शान-ओ-शौकत और भोपाल को खूबसूरत बनाने में सभी देशवासियों ने अपना खून-ए-जिगर दिया है लेकिन आज चंद मुफाद परस्त अनासिर के सबब मुल्क की अजमत और मुशतर्का तहजीब के नुकूश धुंंदले पड़ रहे हैं। ऐसे में साझी विरासत के वारिसैन की ना सिर्फ जिÞम्मेदारी बढ़ गई है बल्कि एक बार फिर उसी इत्तिहाद-ओ-इत्तिफाक को पेश करने की जरूरत मुल्क को दर पेश आ गई है, जो उनकी नायाब विरासत का हिस्सा है।
Must Read
हम सब जानते हैं कि भारत मुख़्तलिफ तहजीबों का गुलदस्ता है। अगर इसमें से मुख़्तलिफ रंगों को निकाल कर सिर्फ एक रंगी फूल लगा दिए जाएं तो इसकी खूबसूरती का रंग फीका पड़ जाएगा। मादर-ए-वतन को तो जन्नतनिशां कहा जाता है और जन्नत कभी यक-रंगी नहीं हो सकता। किसी शायर ने क्या खूब कहा है :
कोई चमन कहीं जन्नतनिशां नहीं होता,
अगर जमीन पर हिंदुस्तां नहीं होता।
अगर जमीन पर हिंदुस्तां नहीं होता।
भारत के अकलीयतों, बिलखसूस मुसलमानों ने उस वक़्त भी सख़्त मौकिफ का इजहार किया था, जब मुल्क की आजादी के साथ मादर-ए-वतन के सीने पर तकसीम की इबारत लिखी गई थी। वो लोग जो जजबात में हिज्रत करके गए थे, आज जब भारत के अमन-ओ-अमान की जानिब हसरत भरी निगाहों से देखते हैं तो कहते हैं कि काश! हमारे बुजुर्गों ने उजलत में ये गफलत का काम ना किया होता। उस वक़्त भी भारत से मुहब्बत करने वाला मुसलमान यही कहता था :
तुम जाओ कहीं भी, हम इसी जन्नत में रहेंगे,
भारत के हैं, भारत से हैं और भारत में रहेंगे।
भारत के हैं, भारत से हैं और भारत में रहेंगे।
भारत की हमा-जिहत तरक़्की हो, ये हर भारतीय का खाब है। लेकिन खाब की तकमील यूँ ही नहीं होने वाली। उसके लिए हमें अवाम को बेदार करना होगा और अहद-ए-हाजिÞर के जो तकाजे हैं, उससे नई नसल को वाकिफ कराना होगा। नई नसल से वाकिफ कराने के पीछे मकसद ये है कि हर कौम के जो मुजाहिदीन आजादी हैं, उनकी खिदमात को तलाश करके नुमायां किया जाए। अगर ये काम वक़्त रहते नहीं किया गया तो जमाना जो सितम की चाल चल रहा है, उसमें से जिस तरह से साझी विरासत के मुजाहिदीन आजादी के नाम को एक-एक करके फरामोश किया जा रहा है, ये सिलसिला लगातार जारी रह सकता है। ये हम सब के लिए लम्हा फिक्रिया है।
साझी विरासत के मुहाफिजों से कहीं तो गफलत हुई है, जिसके सबब अब मुल्क को आजादी के हीरो में सिर्फ चंद नाम ही नजर आते हैं और वो कौम जिसके मुजाहिदीन लाखों की तादाद में मादर-ए-वतन के लिए कुर्बान हुए हैं, उनका नाम तलाश के बाद ही कहीं नजर आता है। अगर आप गौर से देखें तो 1757 से 1947 तक कोई साल ऐसा नहीं है, जब इस कौम के मुजाहिदीन ने मादर-ए-वतन को अपने खून-ए-जिगर का अतीया ना दिया हो। जब हम झांसी की रानी की बात करते हैं तो नवाब अली बहादुर फौजी, सरदार गुलाम गौस, दोस्त मुहम्मद खां, मुहम्मद जमां खां, खुदाबख़्श, मंजर, वगैरह को भी हमें याद करना चाहिए। जब बेगम हजरत महल की कुर्बानियों का तजकिरा किया जाता है, तो राजा बेनी प्रसाद, गुलाब सिंह, हनुमंत सिंह, राजा बाल भद्र सिंह वगैरह और इसी तरह मजनूं शाह फकीर के साथ भिवानी पाठक, रानी चौधरी को भी याद रखना चाहिए। इसी तरह जब हम महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, अरुणा आसफ अली, सुभाषचंद्र बोस, सरोजनी नायडू, बाबा साहिब आंबेडकर का नाम लेते हैं तो हमारे लबों पर सिराज उद्दीन, टीपू सुलतान, बहादुर शाह जफर, मौलाना आजाद, हसरत मोहानी, अशफाक अल्लाह खान वगैरह का भी नाम रहना चाहिए।
आज हम सबकी इजतिमाई जिÞम्मेदारी है कि हमें अपनी कोशिशों से मुल्क के ऐसे सैकड़ों गुमनाम मुजाहिदीन आजादी, जिन्होंने अपना सब कुछ मादर-ए-वतन के लिए कुर्बान कर दिया और मादर-ए-वतन की खाक ओढ़ कर सो गए, उनकी तसावीर और दस्तावेज को तलाश करना चाहीए। बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि आज की नसल गांधी जी के कातिल का नाम तो जानती है, लेकिन गांधी जी के मुहाफिज बख़्त मियां अंसारी (बत्तख अंसारी) को नहीं जानती। बख़्त मियां अंसारी ने बाबाए कौम को तो बचा लिया लेकिन उनकी ये कुर्बानी हाकिम-ए-वकत ब्रिटिश हुकूमत को पसंद नहीं आई और सिर्फ उन्हें ही नहीं, बल्कि उनके पूरे खानदान को कैद-ओ-बंद की सऊबतें बर्दाश्त करनी पड़ी।
मुल्क की आजादी के बाद उन्हें रिहाई मिली। उनकी खिदमात पर पहले सदर जमहूरीया हिंद डाक्टर राजेंद्र प्रशाद ने जो जमीन का अतीया दिया था, वो आज तक उनके खानदान को नहीं मिल सका।
जश्न-ए-आजादी के मौका पर तलबा के बीच मुसव्विरी मुकाबले के इनइकाद का मकसद यही है कि नई नसल मुल्क की आजादी की रोशन तारीख को जाने। उसे समझे और उसमें अपना किरदार पेश करे। जिस मुल्क-ओ-कौम के बच्चे और नई नसल बेदार होती है, वही इन्किलाब की तारीख लिखती है। मुझे उम्मीद है कि मेरे मुल्क के नौनिहाल मुजाहिदीन आजादी की रोशन तारीख का मुताला (अध्ययन) करेंगे और उसकी रोशनी में साझी विरासत को मजबूत करते हुए एक ऐसे भारत की दाग बेल डालेंगे, जिसमें सभी कौमों के लोगों को यकसाँ हुकूक मयस्सर होंगे और भारत दुनिया में अपनी जहानत से इन्किलाब की नई तारीख लिखेगा और दुनिया भारत के कदमों में अपना तहफ़्फुज तलाश करेगी
साझी विरासत के मुहाफिजों से कहीं तो गफलत हुई है, जिसके सबब अब मुल्क को आजादी के हीरो में सिर्फ चंद नाम ही नजर आते हैं और वो कौम जिसके मुजाहिदीन लाखों की तादाद में मादर-ए-वतन के लिए कुर्बान हुए हैं, उनका नाम तलाश के बाद ही कहीं नजर आता है। अगर आप गौर से देखें तो 1757 से 1947 तक कोई साल ऐसा नहीं है, जब इस कौम के मुजाहिदीन ने मादर-ए-वतन को अपने खून-ए-जिगर का अतीया ना दिया हो। जब हम झांसी की रानी की बात करते हैं तो नवाब अली बहादुर फौजी, सरदार गुलाम गौस, दोस्त मुहम्मद खां, मुहम्मद जमां खां, खुदाबख़्श, मंजर, वगैरह को भी हमें याद करना चाहिए। जब बेगम हजरत महल की कुर्बानियों का तजकिरा किया जाता है, तो राजा बेनी प्रसाद, गुलाब सिंह, हनुमंत सिंह, राजा बाल भद्र सिंह वगैरह और इसी तरह मजनूं शाह फकीर के साथ भिवानी पाठक, रानी चौधरी को भी याद रखना चाहिए। इसी तरह जब हम महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, अरुणा आसफ अली, सुभाषचंद्र बोस, सरोजनी नायडू, बाबा साहिब आंबेडकर का नाम लेते हैं तो हमारे लबों पर सिराज उद्दीन, टीपू सुलतान, बहादुर शाह जफर, मौलाना आजाद, हसरत मोहानी, अशफाक अल्लाह खान वगैरह का भी नाम रहना चाहिए।
आज हम सबकी इजतिमाई जिÞम्मेदारी है कि हमें अपनी कोशिशों से मुल्क के ऐसे सैकड़ों गुमनाम मुजाहिदीन आजादी, जिन्होंने अपना सब कुछ मादर-ए-वतन के लिए कुर्बान कर दिया और मादर-ए-वतन की खाक ओढ़ कर सो गए, उनकी तसावीर और दस्तावेज को तलाश करना चाहीए। बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि आज की नसल गांधी जी के कातिल का नाम तो जानती है, लेकिन गांधी जी के मुहाफिज बख़्त मियां अंसारी (बत्तख अंसारी) को नहीं जानती। बख़्त मियां अंसारी ने बाबाए कौम को तो बचा लिया लेकिन उनकी ये कुर्बानी हाकिम-ए-वकत ब्रिटिश हुकूमत को पसंद नहीं आई और सिर्फ उन्हें ही नहीं, बल्कि उनके पूरे खानदान को कैद-ओ-बंद की सऊबतें बर्दाश्त करनी पड़ी।
मुल्क की आजादी के बाद उन्हें रिहाई मिली। उनकी खिदमात पर पहले सदर जमहूरीया हिंद डाक्टर राजेंद्र प्रशाद ने जो जमीन का अतीया दिया था, वो आज तक उनके खानदान को नहीं मिल सका।
जश्न-ए-आजादी के मौका पर तलबा के बीच मुसव्विरी मुकाबले के इनइकाद का मकसद यही है कि नई नसल मुल्क की आजादी की रोशन तारीख को जाने। उसे समझे और उसमें अपना किरदार पेश करे। जिस मुल्क-ओ-कौम के बच्चे और नई नसल बेदार होती है, वही इन्किलाब की तारीख लिखती है। मुझे उम्मीद है कि मेरे मुल्क के नौनिहाल मुजाहिदीन आजादी की रोशन तारीख का मुताला (अध्ययन) करेंगे और उसकी रोशनी में साझी विरासत को मजबूत करते हुए एक ऐसे भारत की दाग बेल डालेंगे, जिसमें सभी कौमों के लोगों को यकसाँ हुकूक मयस्सर होंगे और भारत दुनिया में अपनी जहानत से इन्किलाब की नई तारीख लिखेगा और दुनिया भारत के कदमों में अपना तहफ़्फुज तलाश करेगी
0 टिप्पणियाँ