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सर सय्यद अहमद खां : उर्दू सहाफत और सय्यद उल अखबार

12 जीअकादा 1444 हिजरी
जुमा, 2 जून 2023
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अकवाले जरीं
‘ये बहुत बड़ी खयानत है कि तुम अपने भाई से ऐसी बात बयान करो, जिसे वो सच् जाने जबकि तुम खुद उससे ­ाूठ बोल रहे हो।’
- अबू दाऊद
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सर सय्यद अहमद खां : उर्दू सहाफत और सय्यद उल अखबार

एमडब्ल्यू अंसारी, भोपाल
सर सय्यद अहमद खां की बुलंद पाया शख़्सियत किसी तआरुफ की मुहताज नहीं। मुस्लमानों के अजीम मुसल्लेह, रहनुमा और एमएओ कॉलेज के बानी (संस्थापक) सर सय्यद अहमद खां जैसी शख़्सियत की दूसरी कोई नजीर नहीं मिलती। फी जमाना उनकी शख़्सियत, अफ़्कार-ओ-नजरियात और उनके गिरां कदर कारनामे पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, और लिखा जाता रहेगा। 
    हम सब वाकिफ हैं कि सर सय्यद अहमद खां की बेश-बहा खिदमात का दायरा बहुत वसीअ है। सियासी, तालीमी, मजहबी फ्रंट के अलावा इल्मी, अदबी और तहकीकी मैदान में उन्होंने जो गहरे नक़्श सबूत किए हैं, वो बहुत मूसिर हैं। अलीगढ़ तहरीक को आम तौर पर महज तालीमी या सियासी तहरीक ख़्याल किया जाता है मगर एक लिहाज से ये एक फिकरी, तहजीबी और इल्मी तहरीक भी थी जिसने उर्दू शेअर-ओ-अदब पर मुसबत (पाजीटिव) असरात मुरत्तिब किए। सर सय्यद का शुमार उर्दू के अव्वलीन मुअम्मारों में बजा तौर पर होता है।
    उर्दू जबान-ओ-अदब के हवाले से सर सय्यद ने जो कुछ किया, उनके ख़्यालात मुख़्तलिफ तहरीरों में मौजूद हैं। मिसाल के तौर पर एक मौका पर फरमाते हैं कि ‘जहां तक हमसे हो सका, हमने उर्दू जबान के इल्म-ओ-अदब की तरक़्की में अपने इन नाचीज पर्चों के जरीया कोशिश की।’ 
    चुनांचे हम देखते हैं कि सर सय्यद अहमद खां की बदौलत एक नए दबिस्ताँ की इबतिदा हुई जिसमें सादा-ओ-सलीस नस्र निगारी की तरफ तवज्जा की गई और आम फहम अंदाज में चीजों को बयान करने का सिलसिला शुरू हुआ। उर्दू में इन्शाईया निगारी के साथ-साथ तहकीक-ओ-तन्कीद के मैदान में भी नुमायां तबदीली आई और सर सय्यद के रुफका ने भी इल्मी और संजीदा नस्र निगारी के फरोग में गिरां कदर खिदमात अंजाम दिए।
    उर्दू अदब में हकीकत और फितरत की तहरीक भी सर सय्यद ने ही शुरू की। उर्दू जबान-ओ-अदब के फरोग-ओ-इरतका में सर सय्यद और उनके रुफका के नुमायां किरदार का हर कोई मोतरिफ है। उर्दू जबान-ओ-अदब से सर सय्यद की गैरमामूली वाबस्तगी के नतीजे में उर्दू नस्र सहल और सलीस बनी, बाकौल सय्यद अब्दुल्लाह ‘सर सय्यद ने उसे आम इजतिमाई जिंदगी का तर्जुमान और इल्मी मतालिब के इजहार का वसीला बनाया।’  इस सिलसिले में ये बात भी काबिल-ए-जिÞक्र है कि सर सय्यद ने नस्र में उसलूब की जगह मजमून को तरजीह दी और पुरानी नस्र, जिसमें तकल्लुफ और तिसना पाई जाती थी, उसको तर्क करने की और बेजा इबारत आराई से बचने की तरगीब दी और यूं उर्दू नस्र की हदूद को मजीद वुसअत और नई बुलंदी से हमकिनार किया। सर सय्यद अहमद खां ने मुख़्तलिफ मौजूआत पर कलम चलाई और आला दर्जे के मकाले तहरीर किए जिसके नतीजे में उर्दू जबान, जो उस वक़्त इल्मी तौर पर इतनी मुस्तहकम ना थी, कुछ ही अर्से में आला इल्मी जवाहर पारों से उसका दामन भर गया।
    जहां तक शायरी का ताल्लुक है, सर सय्यद ने उर्दू की रिवायती अस्नाफ और उनके मौजूआत पर तन्कीद करते हुए उर्दू शायरी में वक़्त के तकाजों के मुताबिक नई अस्नाफ को फरोग देने की वकालत की। लेकिन वो बहुत जल्द ही शायरी की दुनिया से बाहर निकल आए। सर सय्यद उर्दू शायरी के उस वक़्त के रंग-ओ-आहंग को अपने इस्लाही मिशन के लिए मुफीद नहीं पाते थे। उनका ख़्याल था कि इससे वक़्ती तफरीह का काम तो लिया जा सकता था लेकिन किसी कौम की तामीर ना-मुम्किन थी। सर सय्यद ने शायरी को इस्लाहे कौम का जरीया बनाया। उनके जेर-ए-असर जो लिटरेचर वजूद में आया, उसकी इब्तिदा मुसद्दस-ए-हाली और इंतिहा कलाम इकबाल की शक्ल में हम देख सकते हैं। 
    उर्दू जबान की मुहब्बत और उसकी इल्मी खिदमत का जो नक़्शा सर सय्यद के दिल में था, उसका अंदाजा उनके चंद खुतूत और दीगर मुतफर्रिक तहरीरों से बखूबी होता है। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने सर सय्यद की खिदमात का जिÞक्र करते हुए कहा था -‘मरहूम सर सय्यद और उनके साथियों ने अलीगढ़ में सिर्फ एक कॉलेज ही कायम नहीं किया था बल्कि वक़्त की तमाम इलमी और अदबी सरगर्मियों के लिए एक तरक़्की पसंद हलका पैदा कर दिया था। इस हलका की मर्कजी शख़्सियत खुद उनका वजूद था और उसके गिर्द मुल्क के बेहतरीन दिमाग जमा हो गए थे। इस अह्द का शायद ही कोई काबिल-ए-जिÞक्र अहल-ए-कलम ऐसा होगा, जो इस मर्कजी हलका के असरात से मुतास्सिर ना हुआ हो। उर्दू की नई शायरी की बुनियाद अगरचे लाहौर में पड़ी थी, मगर उसे नशवो नुमा यहीं की आब-ओ-हवा में मिली। ' (बहवाला रिसाला फिक्र-ओ-नजर, अलीगढ़,खुसूसी शुमारा)
    एएमयू के तलबा जिनकी तादाद हजारों में नहीं बल्कि लाखों में है (जो सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में तमाम शोबों में खिदमात अंजाम दे रहे हैं), सर सय्यद डे के मौका पर डिनर का एहतिमाम करते हैं और सिर्फ होस्टल की पुरानी यादों पर चर्चा करते हुए खुशगवार माहौल से लुत्फ अंदोज होते हैं। क्या ही बेहतर होता अगर सर सय्यद डे के फोर्म से एएमयू के फारगीन भारत की मौजूदा सूरत-ए-हाल, कौम की इकतिसादी, बेरोजगारी, तालीम, सेहत का मसला, समाजी पसमांदगी, उर्दू जबान की बका-ओ-फरोग, कौम व मिल्लत की शिनाख़्त और मुल्क की डेमोक्रेसी को बचाने की कोशिश करने और मुल्क मुखालिफ सरगर्मियों के खिलाफ खड़े होने, स्ट्रेटजी प्लान तैयार करने और इसके लिए काम करते। इन तमाम मसाइल पर रोशनी डालना वक़्त का तकाजा है।
    सर सय्यद ने उर्दू अदब को जो कुछ दिया, उसके हवाले से ये बात कही जा सकती है कि आज का मजमूई अदबी और फिकरी रुजहान भी इसी सिलसिले फिक्र-ओ-अमल की एक इर्तिकाई शक्ल है। सर सय्यद के बेमिसाल कारनामे की बदौलत उर्दू शेअर-ओ-अदब की दुनिया बदल गई और ये कौमी तरक्कियों का वसीला बन गया। बिला-शुबा सर सय्यद ने उर्दू शेअर-ओ-अदब को लब-ए-गोया अता किया।
बेनजीर अंसार एजूकेशनल एंड सोशल वेल्फेयर सोसाइटी


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