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तेरी महिमा अपरंपार


 - सईद खान 


भारतीय संस्कृति अनेक रंगों से रंगी-पुती है। और इसकी प्रकृति के अनुरूप हर भारतीय भी जुदा-जुदा रंग ओढ़े हुए है। खान-पान, रहन-सहन और आचार-विचार के अलग-अलग रंगो-बू के बाद अगर कोई कसर रह जाती है तो वह होली के रंगों से पूरी हो जाती है। भला कौन चाहेगा कि कोई उसके मुंह पर लाल-पीला रंग पोते। लेकिन बात अगर होली की हो, तो सब चलता है।ं और बात जब रंगों की हो तो जरूरी है कि थोड़ी चर्चा पान की पीक की भी हो जाए। क्योंकि इसके बगैर यह चर्चा अधूरी होगी। पान की महिमा को देखते हुए इसकी पीक को भी ( कु ) संस्कृति के विविध रंगों से जोड़ा जा सकता है। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि पूरा पान ही हमारी ( कु ) संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। इसलिए पान को या पान की पीक को बुरा-भला कहने और नाक-भौं सिकोड़ने वालों से मैं निवेदन करना चाहूंगा कि वे कृपया अपनी जानकारी दुरुस्त कर लें और भविष्य में पान का आदर अन्न की तरह करने लगें।

‘पान खाए सइयां हमार...’ और ‘खइके पान बनारस वाला...’ जैसे गीत रचकर शायर पहले ही इसका बखान कर चुके हैं। मुहावरों और कहावतों आदि में भी इसकी अच्छी घुसपैठ है। यहां तक कि एक पूरे शहर (बनारस) की पहचान भी इससे कायम है। किसी जिम्मेदारी को हाथ में लेते वक्त लोग ‘बीड़ा’ (अर्थात पान) उठाने की बात करते हैं। तलवार या हथौड़ा नहीं। और देख लो, असामाजिक तत्वों ने भी अपनी सहूलियत के लिए साहित्य से जो शब्द चुना है, वह भी पान की आवश्यक वस्तुओं में से एक है। किसी का बोलोराम करने के लिए वे उसकी गर्दन के नाप का लेन-देन नहीं करते बल्कि ‘सुपाड़ी’ देते-लेते हैं। और आप तो जानते ही हो कि सुपाड़ी के लेन-देन का स्पष्ट अर्थ दुनिया के सारे शब्दकोश में एक ही है। और वो ये कि निकट भविष्य में कोई परलोक सिधारने वाला है। ‘अतिथि देवो भवः’ की परंपरा भी पान के बिना अधूरी जान पड़ती है। अतिथि के आगमन पर चाहे छप्पन भोग उसके सामने परोस दिए जाएं, बिदाई के वक्त अगर पान या सौंफ-सुपाड़ी न परोसी जाए तो मेहमान नवाजी पर सवालिया निशान लग सकता है।

इसी तरह पान ठेलों और गुमटियों की अहमियत को भी नकारा नहीं जा सकता। सर्वविदित है कि देश की राजनीति का भविष्य इन्हीं गुमटियों पर तय होता है। बजट पर जितनी सार्थक बहस पान ठेलों पर होती है, उतनी शायद पांच सितारा होटलों में भी न होती होगी। और तो और मोहल्लेवासियों की जन्म कुंडली का जितना ज्ञान पनवाड़ी को होता है, उतना ज्ञान किसी पंडित को भी नहीं होता होगा। मोहल्लेवासियों की पूरी वंशावली पनवाड़ी के पास दर्ज होती है, जिसका प्रत्यक्ष लाभ यह होता है कि बाहर से आने वाले व्यक्ति को डोर टू डोर एप्रोच कर पता पूछने के झंझट से मुक्ति मिल जाती है। बुद्धिमान आगंतुक किसी का पता पूछने के लिए सीधा उस मोहल्ले के पान ठेले पर जा पहुंचता है, जहां उसे वांछित व्यक्ति की पूरी जन्मकंुडली हासिल हो जाती है जिससे उसका अच्छा-खासा टाईम बच जाता है। 

एक राज की बात बताता चलूं ( प्रसंगवश )। यह तो आप जानते ही होंगे कि टाईम पास के लिए पान ठेले सर्वोत्तम ठीए साबित होते हैं। राज की बात यह कि यही वह स्थान होता है, जहां मोहल्ले के जवान हो रहे छोरे अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि का बड़ी कुशलता से परिचय भी देते हंै। आती-जाती जवान हो रही छोरियों को देखकर यदि कोई फब्ती न कसे और सीटी न बजाए तो छोरियां हीन भावना से भर जाती है। इसलिए मोहल्ले के जागरुक युवा अपना यह महत्वपूर्ण कर्तव्यपालन भी इसी स्थान पर करते हैं। 

पान की गुमटियों और पीक चर्चा के बाद पान के शौकीनों की चर्चा भी लाजिमी है। विज्ञान से साबित है कि पान का सेवन लाभदायी है। पान की गिल्लौरी को मुंह में दबाने का भी अपना अलग ही आनंद है। ज्यादातर लोग काफी समय तक इसे यूं ही मुंह में दबाए रख सकते हंै और धीरे-धीरे इसका रसास्वादन करते रहते हैं। ऐसे लोगों को सुबह उठकर दांतों में ब्रश करने के झंझट से मुक्ति मिल जाती है। इनके दांत इतने लाल हो जाते हैं कि दांतांे का पीलापन नजर नहीं आता है। वहीं कुछ लोग पान को जल्दी-जल्दी चबाकर चट कर जाने के आदि होते हंै। तो कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो मुंह में पीक भरी रखने पर यकीन रखते हैं। ये लोग जब बात करते हैं तो इनकी गर्दन अपने-आप आसमान की ओर उठ जाती है। लेकिन ये कोई रोग नहीं हुआ, अपितु एक स्वभाविक प्रक्रिया है और मुंह में पीक भरी होने पर स्वमेव संपन्न होती है। जैसे, भैंस जब रंभाती है तो उसकी गर्दन स्वमेव उपर उठ जाती है। वैसे ही। यह आनंद केवल हम भारतीयों को ही नसीब है। अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस के गोरों को यह आनंद कहां।

सिनेमाहालों, अस्पतालों, सरकारी और अर्धसरकारी भवनों की दीवारों पर जगह-जगह बनी कत्थे और चूने के सम्मिश्रण से बनी आड़ी-तिरछी लकीरें भी पान के शौकीनों की एक और किस्म का ज्ञान कराती है। मुंह में पान और उंगली की पोर पर चूना रखने वाले ज्यादातर बाबू होते हैं। अर्थात सरकारी कार्यालयों की रीढ़ की हड्डी। दीवारों पर बनी चूने की आड़ी-तिरछी धारियों से इन बाबुओं की कार्यकुशलता का तो पता चलता ही है, इससे चूना लगाने वालों को पे्ररणा भी मिलती रहती है। पान के शौकीन किसी भवन के खाली पड़े कोनों में इसलिए पिचकारी मारते हैं ताकि भवन का कोई भी कोना नीरस न लगे और उसकी रंगत में निखार आ जाए लेकिन साजिश करने वाले उनके इरादों पर पानी फेर देते हंै और उनकी मारी हुई पिचकारी पर आड़ी-तिरछी इतनी पीक उगल देते हैं कि पान की वह पहले वाली प्यारी सी पीक अपना सौंदर्य बोध खोकर वीभत्स हो जाती है। 

वीभत्स रस का एक दूसरा रूप चिकित्सकों और कुछ सामाजिक संगठनों द्वारा जारी उन पोस्टर्स पर भी दिखाई देता है जिसमें मानव अंगों नाक, कान और गला आदि को विकृत रूप में दिखाया जाता है। साथ ही यह प्रचारित किया जाता है कि यह विकृति पान, सिगरेट और पाउच (ज्यादातर पाउच) के सेवन के कारण आती है।

लेकिन मैं समस्त पाउच पे्रमियों और पान के शौकीनों से निवेदन करना चाहूंगा कि कृपया वे किसी बहकावे में न आएं। ऐसे समस्त सामाजिक संगठन भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात करने पर आमादा हैं। वे चाहते हैं कि हम अपनी ( कु ) संस्कति से मुंह मोड़ लें। लेकिन वे क्या जाने कि प्राण जाए पर शान न जाए हमारा नीति वाक्य है। पान, सिगरेट और पाउच के सेवन से चाहे हमारी जान चली जाए या इसके द्वारा उत्पन्न गंदगी से किसी को उबकाई आए, हम अपनी परंपरा, अपनी ( कु ) संस्कृति से भला कैसे मुंह मोड़ सकते हैं। 


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