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आलमी यौम-ए-उर्दू के मौका पर उर्दू को बचाने और बढ़ाने का करें अज्म : एमडब्लयू अंसारी

आलमी यौम-ए-उर्दू के मौका पर उर्दू को बचाने और बढ़ाने का करें अज्म : एमडब्लयू अंसारी

उर्दू दूसरी जबानों की मानिंद महज एक जबान ही नहीं, इसके बरअक्स एक तहजीब और सकाफ़त •ाी है। इंसानी शख़्सियत की तशकील में अगर उर्दू जबान की •ाी कारफरमाई हो तो शख़्सियत की दिलकशी व दिलरुबाई दो चंद हो जाती है। इससे जबान-ओ-बयान में तो खूबसूरती आती ही है, किरदार में •ाी जाजिबीयत और कशिश पैदा हो जाती है। इसके साथ ही ये जबान इंसान के वकार और एतबार को •ाी जिला बखशती है।
    उर्दू तहजीब को अपने अंदर बसाना उस इन्सान को गैर उर्दू वालों के दरमियान मुमताज और मुनफर्द बना देता है। लेकिन अफसोस, आज यही जबान अपने वजूद की बका के लिए जद्द-ओ-जहद करने पर मजबूर है। सरजमीन-ए-हिंद, जो इस जबान की जाए पैदाइश है, अपनी इस बेटी के लिए तंग होती जा रही है। हालाँकि यही जबान अपने मायके से निकल कर दूसरी ममलकत में अपना जादू जगा रही है और अपनी सेहर-बयानी (बा असर तकरीर) से लोगों के दिल-ओ-दिमाग को मुसख़्खर (फतह) कर रही है।
    आजादी से कब्ल •ाारत में इसी जबान की हुक्मरानी थी, लेकिन आजादी का सूरज, उर्दू के लिए खुश आइंद साबित नहीं हुआ। वक़्त के साथ-साथ आफताब (आजादी की गर्मी) तो बढ़ती गई, लेकिन उर्दू का सूरज गहनाता गया। वो सूरज, जो क•ाी नसफ अलनहार पर चमका करता था, माइल ब-जवाल होने लगा। एक मखसूस पालिसी और खास जहनीयत के तहत उर्दू को सरकारी और अवामी जिंदगी से रफ़्ता-रफ़्ता निकाल दिया गया और एक मुनज्जम मंसूबाबंदी के तहत उर्दू के खिलाफ प्रोपेगंडा तेज कर दिया गया। जिसके नतीजे में आज एक तकलीफदह सूरत-ए-हाल अपनी तमाम-तर बदशगुनियों के साथ हमारे सामने खड़ी हो गई है। और खुद अहले उर्दू ही इस नारवा एहसास में मुबतला हो गए हैं कि उर्दू पढ़ने-लिखने से कोई फायदा नहीं। इससे रोजगार नहीं मिलता, ये एक जवालपजीर जबान है और इसका मुस्तकबिल तारीक है।
    पहले शुमाली हिंद उर्दू का गहवारा हुआ करता था लेकिन आज उसी गहवारे से उर्दू का जनाजा बड़ी धूम धाम से निकाला जा रहा है। उर्दू वाले ही इस जनाजे को कांधा दे रहे हैं और वही उसे जिंदा दरगोर करने की कबीह (ऐबदार) रस्म को अंजाम देने की तैयारी •ाी कर रहे हैं। उर्दू जबान मुख़्तलिफ मराहिल से गुजरते हुए आज इस मुकाम पर आ गई है] जहां उस के शानदार माजी की शाबासी और इसके जाह-ओ-हशम (शानोशौकत) की बाजदीद अहल उर्दू के लिए एक बे ताबीर-ए-ख़्वाब बन कर रह गई है। और शायद यही वजह है कि आज अहल२ उर्दू का बहुत बड़ा तबका ऐसा कोई खाब देखने के लिए तैयार नहीं है। वो इस ताल्लुक से पीरजादा कासिम के इस शेअर में यकीन रखने लगा है - 

इस ख़्वाब-ए-तमन्ना की ताबीर ना थी कोई, 
बस ख़्वाब-ए-तमन्ना था, सो हमने नहीं देखा।

    हालाँकि ताबीरें •ाी खाबों की ही मर्हूने मिन्नत होती हैं। ताबीरें उसी वक़्त जलवा नुमा होती हैं, जब हम कोई खाब देखते हैं। खाब ना देखना अपने आप में कुनूतीयत,मायूसी और ना-उमीदी के फरेब में मुबतला हो जाना है।
    लेकिन मायूसी ना-उमीदी और कुनूतीयत के इस माहौल में और उर्दू दुश्मनी की घटाटोप तारीकी में •ाी कुछ ऐसे जियाले मौजूद हैं, जो हालात की कलाई को मरोड़ने की कुव्वत और जज्बा अपने अंदर रखते हैं और उर्दू मुखालिफत के तूफान बा दो बाराँ में •ाी उर्दू जबान की शम्मा रोशन करने की सई-ए-मुसलसल कर रहे हैं। 
    वाजेह रहे कि हम 9 नवंबर को ही यौम उर्दू क्यों मनाते हैं, क्योंकि 9 नवंबर शायर मशरिक, हकीमुल उम्मत अल्लामा इकबाल का यौम-ए-पैदाइश है इसीलिए इस तारीख को यौमे उर्दू मनाया जाता है। उर्दू डे मनाने के दो मकासिद हैं। एक तो हम इस तारीख को उर्दू का दिन मनाते हैं और दूसरे इसी बहाने अल्लामा इकबाल को •ाी याद करते हैं
    आज जगह जगह आलमी यौम उर्दू के नाम से तंजीमें कायम हो रही हैं और मुकामी सतह पर •ाी उर्दू डे मनाने का सिलसिला रोज बरोज आगे बढ़ता जा रहा है। हमें खुशी है कि हमारी आवाज सदा ब-सहरा साबित नहीं हुई। सहरा में अजान देने की जो सई मसऊद शुरू की गई थी, उसकी आवाज दूर दराज तक पहुंच गई है। ना सिर्फ •ाारत के शहरों, कस्बों और देहातों में बल्कि दूसरे मुल्कों में •ाी इस आवाज की सदाए बाजगश्त सुनाई देने लगी है।

- बे नजीर अंसार एजुकेशनल एंड सोशल वेलफेयर सोसायटी, •ोपाल

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