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अल्लामा शिबली नामानी ने मगरिबी उलूम की तेज आंधी में भी मंद नहीं होने दी मशरिकी उलूम की रौशनी : अंसारी

28 जिल हज्ज, 1444 हिजरी
पीर, 17 जुलाई, 2023
अकवाले जरीं
‘जो कोई नजूमी (ज्योतिष) के पास जाए और उससे कुछ मुस्तकबिल के बारे में सवाल करे तो उसकी चालीस रातों की इबादत कबूल नहीं होती।’  
- मुस्लिम
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नई तहरीक : भोपाल
शायरी में फारसी और उर्दू में कलाम कहने वाले, मुख़्तलिफ अस्नाफ में तब्अ-आजमाई करने वाले, उर्दू अदब के मायानाज मुसन्निफ अल्लामा शिबली नामानी की यौम-ए-पैदाइश पर गुजिश्ता दिनों उर्दू दां हजरात ने उन्हें खिराते अकीदत पेश की। 
अल्लामा शिबली नामानी ने मगरिबी उलूम की तेज आंधी में भी मंद नहीं होने दी मशरिकी उलूम की रौशनी : अंसारी
    अल्लामा शिबली नामानी 4 जून 1857 में पैदा हुए। अल्लामा शिबली के वालिद शेख हबीब उल्लाह वकील थे। अल्लामा शिबली लोग नसलन राजपूत थे। उन्होंने 18 साल की उम्र में अरबी, फारसी की तालीम हासिल मुक्म्मल कर ली थी। उसके बाद उन्होंने हज बैतुल्लाह किया। तालीम से फारिग होने के बाद घर वालों के इसरार पर अल्लामा शिबली ने वकालत का पेशा इखतियार किया, मगर ये पेशा उन्हें रास न आया। उसके बाद उन्होंने सरकारी मुलाजमत की। 18 नवंबर 1931 में उनका इंतिकाल हुआ।
आप जाते तो हैं, इस बज्म-ए-शिबली से लेकिन 
हाल-ए-दिल देखिए, इजहार ना होने पाए।
    अल्लामा शिबली ही वो खुद्दार हस्ती हंै, जिन्होंने मगरिबी उलूम-ओ-फनून की तेज-ओ-तुंद आंधी में भी मशरिकी उलूम-ओ-फनून के दिए को बुझने नहीं दिया। शिबली नामानी उन लोगों में हैं, जो सर सय्यद अहमद खां के असर और फैज-ए-सोहबत की बदौलत मौलवियत के महदूद और तंग दायरा से निकल कर अदब के वसीअ मैदान में आए। उन्होंने उर्दू जबान में इस्लामी तारीख का सही जौक फैलाया। तारीख में उन्होंने इस्लामी तारीख की अजीम शख़्सियतों के हालात-ए-जिंदगी को लिखने का एक सिलसिला शुरू किया। उसके अलावा उन्होंने बेशुमार तारीखी-ओ-तहकीकी मजामीन लिखे, जिससे तारीख दानी और तारीख नवीसी का आम शौक पैदा हुआ।
    मौलाना शिबली ने उर्दू और फारसी दोनों जबानों में शायरी की लेकिन दोनों जबानों की शायरी का मिजाज मुख़्तलिफ है। शिबली की फारसी शायरी में गर्मागर्म इश्किया मजामीन की ­ालक देखने को मिलती है। ये शायरी अवाम की नजर से कम ही गुजरती है।

    अल्लामा शिबली नामानी इक फाल और मेहनती आदमी थे। जिस काम में हाथ डालते, पूरी मेहनत और लगन से उसे पाया-ए- तकमील तक पहुंचाने की कोशिश करते। अपनी इल्मीयत-ओ-शौहरत की बदौलत उनकी रसाई उस वक़्त की कई रियास्तों के मुस्लिम और गैर मुस्लिम हुक्मरानों तक थी, जिनसे उन्हें अपने इल्मी व अमली मन्सूबों के लिए मदद मिलती रहती थी। शिबली नामानी की इल्मी खिदमात के एतराफ में अंग्रेज सरकार ने उन्हें शम्सुल अल्लामा के खिताब से नवाजा। उनके कायम करदा इदारे शिबली कॉलेज और दारुल मुसन्नफीन आज भी इल्म-ओ-तहकीक के कामों में मसरूफ हैं। उर्दू जबान शिबली के एहसानात को कभी फरामोश नहीं कर सकती। 
- एमडब्ल्यू अंसारी
आईपीएस, (रिटा. डीजीपी)



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