9 नवंबर आलमी यौमे उर्दू : उर्दू जबान, भाईचारा, इत्तिहाद और सेक्यूलारिज्म
- एमडब्ल्यू अंसारी : आईपीएस (रिटा. डीजीपी), भोपाल
भारत के बर्रे सगीर ही नहीं, पूरी दुनिया में आलमी यौम उर्दू जोश-ओ खरोश से मनाया जाता है। इसकी शुरुआत 1997 में हुई थी। इस चिराग की रोशनी दूसरे मुल्कों में पहुंची तो वहां मौजूद मुहब्बाने उर्दू ने भी अपने चिराग जलाए और इसी तारीख को यौमे उर्दू मनाने का सिलसिला शुरू कर दिया। आज जहां कहीं भी उर्दू वाले मौजूद हैं, 9 नवंबर को पूरे जोश ओ खरोश के साथ उर्दू डे मनाते हैं।
9 नवंबर आलमी यौमे उर्दू
शामिल है, इसमें शेख व ब्रह्मण का भी लहू
उर्दू हमारी बाहमी दीवार हो गई है।
-डाक्टर महताब आलम
भारत में जन्मी ये बेटी भारत की तमाम इलाकाई और सुबाई भाषाओं के साथ साथ रहती है और कंधे से कंधा मिला कर चलती है। भारत को जोड़ने, आपसदारी, भारत की तरक़्की और भारत को आगे बढ़ाते हुए, खिदमत कर रही है और भारत की तरक़्की में भरपूर तआवुन और साथ दे रही है।
बर्रे सगीर पर कब्जे के बाद अंग्रेजों ने जल्द ही भाँप लिया था कि इस मुल्क में आइन्दा अगर कोई जबान मुशतर्का जबान बनने की सलाहीयत रखती है, तो वो उर्दू है। इसीलिए फोर्ट विलियम कॉलेज में अंग्रेजों को उर्दू की इबतिदाई तालीम देने का सिलसिला शुरू किया और यूं उर्दू की बिल वासता तौर पर तरवीज भी होने लगी।
सभी के दीप सुंदर हैं, हमारे क्या, तुम्हारे क्या
उजाला हर तरफ है, इस किनारे क्या, उस किनारे क्या।
-हफीज बनारसी
लश्करी जबान है उर्दू
उर्दू लफ़्ज के मअनी लश्कर या फौज के हैं और ये तुर्की जबान का लफ़्ज है। इसके और भी कई मआनी हैं, मगर आम तौर पर लश्कर, पढ़ाओ, खेमा, बाजार, हरमगाह और शाही किला और महल के लिए इस्तेमाल आम है। उर्दू जबान हिन्दी, तुर्की, अरबी, फारसी और संस्कृत जबानों का मुरक्कब है और यही वजह है कि भारत की तमाम भाषाओं के साथ मिलकर ये जबान तरक़्की की राह पर गामजन है और पूरे भारत को एक कड़ी में बाँधने की लगातार कोशिश कर रही है।
वाजेह रहे कि उर्दू को मिटाने की लाख कोशिशों और तास्सुबाना रवैय्या के बावजूद उर्दू का बैनुल अकवामी जबान बन जाना उर्दू की अंदरूनी ताकत, लहजा ओ लफज की खूबसूरती, मिठास व तासीर का नतीजा है।
लहजा-ओ-लफज में जिसके गुल-ओ-खुशबू की तरह
है जबां कौन सी बोलो, मेरी उर्दू की तरह।
-डाक्टर महताब आलम
प्रोफेसर ताराचंद रस्तोगी ने उर्दू के इस बैनुल अकवामी किरदार और सेकूलर मिजाज की वजाहत करते हुए कहा है ‘मुस्लिम जहन, हिन्दुआना रंग व रूप कबूल करने लगा और उसने फारसी व तुर्की की जगह मुकामी जबान सीखा और इस्तिमाल करना शुरू किया, हिंदूओं ने अरबी, फारसी और तुर्की अलफाज को मुकामी मुहावरों में जगह दी, इस लेन-देन का मुनाफा हमारी तहजीब के खजाने में उर्दू जबान की शक्ल में शामिल हुआ।’
हर जबान तरसीली होती है जो अपनी जात से अच्छी या बुरी नहीं होती, ये उसके इस्तिमाल करने वालों पर मुनहसिर है कि वो जबान के हथियार से दिलों के जोड़ने का काम करते हैं या तोड़ने का। इस जबान ने ताअस्सुब व तंग नजरी से खुद को महफूज रखा है। इसका पैगाम मुहब्बत और इन्सानियत का रहा है। ये वही पैगाम है, जो संत कबीर, गुरूनानक, हजरत ख़्वाजा मुईन उद्दीन चिशती और दीगर सूफी संतों ने दिया है। जिसने बर्रे सगीर में बिखरी छोटी छोटी रियास्तों को जोड़ कर ऐसा भारत बनाया, जिसकी मिसाल तारीख में नजर आती है।