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तहरीक जंग-ए-आजादी के गुमनाम मुजाहिदीन अमानत अली, सलामत अली और शेख हारून

मुस्लमानों के इतने जबरदस्त रोल को नजरअंदाज करने की दानिस्ता या नादानिस्ता कोशिश हो रही है। अह्द वुसता की तारीख आज हमारे मदारिस और जमिआत में इसलिए नहीं पढ़ाई जाती है कि वो फिरका परस्तों के हलक से नहीं उतरती। इकबाल ने कहा था कि किसी कौम की तारीख उसका इजतिमाई हाफिजा होती है। अगर किसी कौम को उसकी तारीख से महरूम कर दिया जाये तो वो अपनी जड़ से कट जाती है। अहले मुल्क और खुसूसन मुस्लमानों के सामने इस दास्तान-ए-हुर्रियत के मुख़्तलिफ पहलूओं को पेश किया जाए ताकि तहरीक जंग-ए-आजादी में मुस्लमानों की जद्द-ओ-जहद को ना सिर्फ याद किया जाये, बल्कि बाकी रखा जाये।



एमडब्ल्यू अंसारी, (आईपीएस, रिटा.डीजीपी)

बिहार के देवघर जिÞला के रोहिणी नामी इलाके में अमानत अली, सलामत अली और शेख हारून ने 12 जून 1857 को अंग्रज अफसर मार कर इन्किलाब का बिगुल फूंका था। इस जुर्म के लिए उन्हें 16 जून 1857 को आम के दरख़्त पर लटका कर फांसी दी गई थी। 

ना दबाया जेर जमीं उन्हें, ना दिया किसी ने कफन उन्हें,
ना हुआ नसीब वतन उन्हें, ना कहीं निशाने मजार है।।

जराइआ (सूत्रों) के मुताबिक इन गुमनाम शुहदा (मुजाहिदीन आजादी) को उनके आबाई शहर ने याद रखा है। तीनों की याद में शहर के बीच में एक स्मारक है। साथ ही रोहिणी में भी एक शहीद स्मारक है और जेसी डॉ, देवघर रोड पर इन शुहदा के नाम पर एक गेट बना हुआ है। 



वाजेह रहे कि पहली जंग-ए-आजादी के 175 बरसों की तकमील पर मुल्कभर में आजादी का जश्न मनाया जा रहा है। इसके मुख़्तलिफ प्रोग्रामों के लिए हुकूमत-ए-हिंद ने करोड़ों रुपय मुखतस किए हैं। मुल्क की आजादी की खातिर जद्द-ओ-जहद करने वालों और जान की बाजी लगाने वालों को याद भी किया जा रहा है, और जिस अंदाज से याद किया जा रहा है, उससे मुस्लिम नौजवान, तलबा और बच्चे यही तास्सुर ले रहे हैं कि अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ आजादी की लड़ाई लड़ने वालों में मौलाना अबुल कलाम आजाद के अलावा बस एक दो मुस्लमान ही थे। ऐसा तास्सुर लेने पर नौखेज नसल मजबूर है कि किसी और मुस्लमान का नाम आता ही नहीं, जिसने अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ सख़्त जद्द-ओ-जहद की है। मुसीबतें झेली हैं और जान की बाजी लगाई है। हकीकत तो ये है कि अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ लड़ाई छेड़ने, मुसीबतें उठाने, कैद-ओ-बंद की जिंदगी काटने और जान पर खेल जाने वाले मुसलमान ही रहे हैं। उनकी तादाद और तनासुब इतना ज्यादा है कि उनकी गिनती हजारों में नहीं बल्कि लाखों में होगी और खास बात ये है कि अपनी जान की कुबार्नी देने वाले सबसे ज्यादा उल्मा हजरात थे। आज ये बात मुस्लमानान-ए-हिंद फखर के साथ कह सकते हैं कि इस मुल्क के लिए सबसे ज्यादा खून मुस्लमानों ने ही बहाया है।



इस मुल्क को आजाद करवाने के लिए अपना खून बहाने और अपने माल-ओ-मता की कुर्बानी करने में मुस्लमान किसी से पीछे नहीं रहे। मुस्लमानों की नई नसल इस एहसास-ए-कमतरी से आजाद हो कि इस्लाफ ने मुल्क के लिए कुछ नहीं किया। इससे उनके अंदर खुद-एतिमादी का जज्बा पैदा होगा। और अपने अज्दाद के सरफरोशाना कारनामों पर उनका सिर फख्र से ऊंचा होगा।

पहली जंग आजादी 1857 की अजीम जद्द-ओ-जहद की याद मनाते हुए हमें बाअज अहम रोशन मुसबत पहलूओं को पेश-ए-नजर रखना चाहिए ताकि महज माजी के एक विरसा के तौर पर नहीं बल्कि मुस्तकबिल में अपने मुल्क की तामीर व तरक्की में इस जद्द-ओ-जहद की अजीम रवायात को फरोग दे सकें।

ये जद्द-ओ-जहद बिला लिहाज मजहब व मिल्लत सारे अवाम की एक मुशतर्का जद्द-ओ-जहद थी। ना सिर्फ हिन्दुस्तानी सिपाहीयों ने बल्कि अवाम ने बैरूनी इकतिदार के खिलाफ जिस जोशोखरोश का मुजाहरा किया, ईसार व कुरबानी, बहादुरी और जांबाजी का सबूत दिया, उसमें मजहबी तअस्सुबात और फिकार्वाराना इखतिलाफात का कोई दखल ना था। बहादुर शाह जफर की शख़्सियत एक कमजोर हुक्मरां की थी लेकिन ना सिर्फ अवाम ने बल्कि छोटी रियास्तों और सूबों के हुकमरानों ने बहादुर शाह जफर  के साथ जिस यगानगत और वफादारी का इजहार किया, वो हमारी तारीख का एक ताबनाक बाब है। चाहे वो रानी लक्ष्मी बाई हो या पेशवा नाना साहिब और उनके सिपहसालार अजीम अल्लाह खान।

बदकिस्मती से बर्तानवी हÞुकूमत इस इत्तिहाद और यकजहती को तोड़ने की साजिÞशों में मसरूफ रहा और इसमें बड़ी हद तक कामयाब भी रहा। ये एक अलमीया है कि इफ़्तिराक व इख्तलाफ की कैफियात ब अंदाजे दीगर हमारे मुल्क में अब भी मौजूद हैं। ये जद्द-ओ-जहद हमें इस बात का दरस देती है कि मुल्क की मुख़्तलिफ इकाईयां अपनी शनाख़्त को बरकरार रखते हुए मजहबी तंग नजरियों और फिकार्वाराना तअस्सुबात से बाला तर होकर मुशतर्का जद्द-ओ-जहद के इस रोशन विरसा की ना सिर्फ हिफाजत करें बल्कि भारती मुआशरा की तरक़्की को सही सिम्त अता करें।

अमानत अली, सलामत अली और शेख हारून को खराजे अकीदत 

बेनजीर अंसार एजूकेशनल एंड सोशल वेल्फेयर सोसाइटी, भोपाल ने सहाफी और अहल-ए-कलम से इन अजीम मुजाहिदीन आजादी खिराजे अकीदत पेश करते हुए उनकी कुबार्नियों को दस्तावेजी शक्ल देने की कोशिश करने की गुजारिश की है। ताकि आने वाली नसल उनकी कुर्बानियों से सबक लेकर मुल्क और आजादी की एहमीयत को जानें और समझें। इसके साथ ही हम बिहार और झारखंड हुकूमत से मुतालिबा करते हैं कि इन अजीम मुजाहिदीन आजाद के नाम से स्कूल, कॉलेज का नाम रखा जाये और सड़कों का नाम रखा जाये इसके लिए जनता को आवाज बुलंद करनी चाहीए। 

- बेनजीर अंसार एजूकेशनल एंड सोशल वेल्फेयर सोसाइटी
अहमदाबाद पैलेस रोड, भोपाल 


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