- सईद खान व्यंग्य
प्रिये
आशा है, तुम वहां (स्वर्ग अथवा नरक में, जहां भी हो) मजे से होगी। इससे पहले एक खत, जो हमने तुम्हें नरक के पते पर लिखा था, अब तक उसका जवाब नहीं मिला इसलिए यह दूसरा खत हम तुम्हें स्वर्ग के पते पर लिख रहे हैं। हालांकि तुम्हारे स्वर्ग में होने की उम्मीद जÞरा कम है। फिर भी, हो सकता है तुम वहीं हो। तुम तो हिंया भी ऐसे गुल खिलाती रहती थी। तैय्यबा आपा के घर जा रही हूं, बोलकर घर से निकलती थीं लेकिन ढूंढने पर कम्मो बाजी के घर पाई जाती थी।
तुम्हें पता तो चल ही गया होगा कि हमारे हिंया आतंकवादियों ने फिर धमाके किए हैं। मुंबई और दिल्ली में हुए धमाके के बाद, बहुत दिनों तक जब कहीं कोई धमाका नहीं हुआ तो हमें लग रहा था कि आतंकियों ने शायद कमीनेपन से तौबा कर ली है अथवा राजनेताओं की गैरत जाग गई है। पिछली बार हुए धमाके के बाद नेताओं ने एक सुर में कहा भी था कि आतंकियों से सख्ती से निपटा जाएगा तो हम यह मानकर चल रहे थे कि सरकार सचमुच सख्ती बरतने लगी है। लेकिन पुणे में हुए धमाकों से तय है कि न तो आतंकियों ने कमीनेपन से तौबा की है न राजनेताओं की गैरत ही जागी है। यानी बे-गैरत कर्णधारों के राज में आतंकियों का कमीनापन और धूम-धड़ाम होते रहने की आशंका आगे भी बनी हुई है।
उस दिन इंडिया गेट में हम अगर तुम्हारे लिए भेलपुरी लेने तुमसे थोड़ी दूर नहीं गए होते तो आज हम भी तुम्हारे साथ बादल के किसी टुकड़े में बैठकर चल छईयां-छईयां कर रहे होते। लेकिन कमबख्त आतंकवादियों ने हमारे लौटने तक का भी इंतजार न किया और धमाका कर दिया। हमारा कहना है कि जब तुम्हे टाईमर और रिमोट से धमाका करने की तकनीक मालूम है तो कम से कम यह तो देख लिया करो कि कौन, किससे बिछुड़ रहा है। ये क्या बात हुई कि जब मन किया, दबा दिया रिमोट और कर दिया धमाका।
खैर! पहले तो केवल दीवाली के दीवाली ही धमाके सुनाई देते थे। श्री राम की अयोध्या से वापसी की खुशी में लोगों ने पटाखे फोड़कर खुशी मनाई थी। तब से यह परंपरा अब तक चली आ रही है। बाद में लोग शादी-ब्याह जैसे मौकों पर भी पटाखे फोड़ने लगे। पिछले दिनों नब्बू चाचा की बकरी की डिलेवरी हुई तो उन्होंने भी पटाखे फोड़कर खुशी मनाई थी। यानी पटाखों की धमक एक तरह से यह संदेश लाती थी कि कहीं कोई बंदा खुशी मना रहा है। क्रिकेट के सीजन में पटाखों की आवाज से हमें यह भी पता चल जाता है कि पाकिस्तानी टीम को अपने खिलाड़ी धूल चटा रहे हैं। लेकिन पटाखों की आवाजÞ के मायने अब बदल गए हैं। पटाखों की गूंज अब सिर्फ खुशी का संदेश नहीं देती, बल्कि दिलों को दहला देती है। अब धमाके होते हैं तो खबर आती है कि कहीं दर्जनभर लोग खल्लास हो गए हैं। श्री राम की अयोध्या वापसी से वाबस्ता पटाखे इतने रंग बदलेंगे, किसी ने सोचा भी न होगा। हद् तो यह कि पटाखों के रंग ही नहीं, उनकी सूरत भी बदल गई है अब। अब मानव बम, टिफिन बम, साइकिल बम और न जाने कैसे-कैसे बम बनने लगे हैं, जो फूटते ही एक बार में दर्जनभर से ज्यादा बंदों को हिंया से खर्च कर तुम्हारे उंहा ट्रांसफर कर देते हैं। भला बताओ, क्या छतरी, साइकिल और टिफिन बनाने वालों ने कभी सोचा होगा कि इन चीजों का इस्तेमाल भी धमाके के लिए किया जा सकता है। लेकिन देख लो, लोगों की जान लेने के लिए आतंकवादी कैसे-कैसे हथकंडे अपना रहे हैं।
रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों को बम के रूप में इस्तेमाल करने के चलते हालत यह है कि लोग अब लावारिस पड़ी चीजÞों के करीब जाने से भी डरने लगे हैं कि कहीं यह भी फूटने वाली चीजÞ न हो। हालांकि इसकी वजह से चीजÞों को अब कुछ देर लावारिस पड़ी रहने का सुख मिलने लगा है। कल ही की बात लो। शर्मा जी रास्ते में मिले थे। बातचीत में पता चला कि पत्नी के साथ हवा खाने निकले थे लेकिन पत्नी को मैत्रीबाग में ही भूल आए हैं। हमने कहा-‘जल्दी जाओ। भाभी जी अकेली परेशान हो रही होंगी।’ तो वे बोले -‘डोंट वरी, मैंने उन्हें मोबाइल में समझा दिया है किसी बेंच पर लावारिस स्टाइल में बैठी रहना। लोग मानव बम समझकर तुम्हारे नजदीक भी नहीं आएंगे। इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है।’ कहकर वे टहलने के से अंदाज में आगे बढ़ गए थे।
पुणे धमाके में छतरी बम का इस्तेमाल हुआ था, बताते हैं। हमें लगता है कि जो छतरी तुमने हमें गिफ्ट की थी, आतंकवादियों ने शायद ऐसे ही कहीं धमाका करने में उसका इस्तेमाल कर लिया हो। और तुम हम पर शक करती रही कि हमने वो छतरी कविता को तो नहीं दे दी है।
बहरहाल! तुम जानती हो कि पटाखों से हमें कितना डर लगता है। पटाखे तो क्या, सुरसुरी जलाते हुए भी हमारी घिग्घी बंध जाती है कि कहीं फूट न जाए मुई। हालांकि सुरसुरी की फितरत फूटने वाली नहीं होती। लेकिन हमने देखा है कि कभी-कभी यह फूट भी जाती है। हमारे कुछ दोस्त अनारदाना को हाथ में पकड़कर भी जलाया करते हैं और एक हम हंै कि हाथ में तो क्या उसे जÞमीन पर रखकर भी जलाते हुए डरते हैं कि कहीं फूट-फाट न जाए। यही वजह है कि दीवाली वाले दिन हम अक्सर कमरे में दुबके रहते हैं। इसके बावजूद हर साल दीवाली का हमें बेसब्री से इंतजार रहता है। तुम्हें तो याद ही होगा, दुर्गा पूजा से लेकर दशहरा और दीवाली आने तक पूरा देश किस तरह उत्सव की खुमारी में डूबा रहता है। घरों का रंग-रोगन, नए सामान और कपड़ों की खरीददारी करती भीड़ से बाजार और सड़कों तक में उत्साह घुला रहता है, जो हमें अच्छा लगता है। ऐसा लगता है, जैसे ये चीजें, ये चहल-पहल, घरों की नए सिरे से साज-सज्जा और खरीददारी के लिए छलके उत्साह से मानव अपने शेष जीवन के लिए ऊर्जा जुटा रहा है, जिसे मुए आतंकवादी बदरंग कर देना चाहते हैं।
हालांकि इतनी कोशिशों के बाद भी, तुम्हें ये जानकार ताअज्जुब होगा कि वे अपनी कोशिश में रत्तीभर भी कामयाब नहीं हो पाए हैं। कल नब्बू चाचा मिले थे। सत्तर बसंत पार कर चुकने के बाद भी उनका उत्साह देखते ही बनता है। शाम की तफरीह के लिए झवेरी बाजार होकर हैंगिंग गार्डन जाते हैं। हमने कहा -‘इधर खतरा ज्यादा रहता है, मैरिन ड्राइव की तरफ जाया करो।’ तो कहने लगे -‘तुम जिस खतरे का भय दिखा रहे हो, उससे देश की धड़कन को लेशमात्र भी फर्क पड़ा हो तो बताओ।’ कहते हुए अजीब से अंदाज में मुंह बिसूरकर वे आगे बढ़ गए थे।
खैर! अब बंद करते हैं। तुम अपना ध्यान रखना। चित्रगुप्त को अपने कर्मों का हिसाब देते समय होश से काम लेना। और हां, तुम रोज-रोज सपने में मत आया करो, नींद उचट जाती है।
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