जमादी उल ऊला 1446 हिजरी
﷽
फरमाने रसूल ﷺ
जब तुम अपने घर वालों के पास जाओ तो उन्हें सलाम करो, इससे तुम पर और तुम्हारे घर वालों पर बरकतें नाजिल होंगी।
- तिरमिजी शरीफ
✅ नई तहरीक : भोपाल
यौमे पैदाईश 23 नवंबर पर खास
उर्दू के 20 से ज़ाइद नावेल के मुसन्निफ़, 30 कहानियों के मजमुए और रेडियो ड्रामों के बेशुमार मजमुए लिखने वाले कृष्ण चन्द्र की पैदाईश् 23, नवंबर 1914 को राजस्थान के भरतपुर में हुई थी। तहसील महेंद्र गढ़ में इबतिदाई तालीम हासिल कर पांचवीं जमात से उर्दू पढ़ना शुरू किया और आठवीं जमात में इख़तियारी मज़मून के तौर पर फ़ारसी का इंतिख़ाब किया। उन्होंने मैट्रिक का इमतिहान सेकंड डिवीज़न में विक्टोरिया हाई स्कूल से पास किया। उसके बाद उन्होंने कॉलेज में दाख़िला लिया। उसी ज़माना में उनकी मुलाक़ात भगत सिंह के साथियों से हुई और वो इन्क़िलाबी सरगर्मीयों में हिस्सा लेने लगे। उन्हें गिरफ़्तार कर दो माह के लिए नज़रबंद भी रखा गया।
कृष्ण-चंद्र ने अपने अफ़्सानों और नाविलों के ज़रीये तरक़्क़ी-पसंद अदब की क़ियादत की और उसे आलमी सतह तक पहुंचाया। उन्होंने दर्जनों नावल और 500 से ज़ाइद अफ़साने लिखे। उनकी तसानीफ़ का तर्जुमा दुनिया की मुख़्तलिफ़ ज़बानों में हो चुका है। कहा जाता है कि कृष्ण-चंद्र के पास एक शायर का दिल और एक मुसव्विर का क़लम था, उनके मौज़ूआत भारतीय ज़िंदगी और उसके मसाइल के गिर्द घूमते हैं।यहां ये बात काबिल-ए-ज़िक्र है कि कृष्ण-चंद्र जैसे बेहतरीन मुसन्निफ़ और अदीब ने अपनी तहरीरों में उर्दू ज़बान का कसरत से इस्तिमाल किया और एक अर्से तक उसी प्यारी ज़बान उर्दू में अपनी ख़िदमात दी। इससे पता चलता है कि उर्दू भारत ही की बेटी है, जो भारत ही में परवान चढ़ी और मुख़्तलिफ़ शोरा-ओ- उदबा ने जहां हिन्दी ज़बान में अपनी तहरीरात लिखी, वहीं बिला तफ़रीक़ उर्दू में भी अपना कलाम पेश किए।इससे ये बात वाज़िह हो जाती है कि उर्दू मुस्लमानों और मुगलों की नहीं बल्कि भारत की ज़बान है और क़ायदा भी यही है कि जो जहां पैदा हुआ है, उसकी निसबत उसी जगह की तरफ़ की जाती है, फिर चाहे वो इन्सान हो या कोई ज़बान। उर्दू ज़बान की पैदाइश भी भारत में हुई इसी लिए ये ज़बान भारत की बेटी और हिन्दी की बहन कहलाती है।वक़्फ़ एमेंडमेंड बिल : मुस्लमानों के मुफ़ादात के ख़िलाफ़ तेलगूदेशम नहीं करेगा तरमीम की हिमायत
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ये भी एक तल्ख़ हक़ीक़त है कि एक तरफ़ जिसे भारत की बेटी और हिन्दी की बहन कहा जाता है, उसे ग़लत प्रोपेगंडा कर ख़त्म करने की कोशिशें भी होती रही हैं। आज जितने मसाइल उर्दू ज़बान से वाबस्ता तलबा-ओ- मुहिब्बाने उर्दू को है, किसी दूसरी ज़बान को नहीं। जो तलबा अपनी ख़ुशी से उर्दू ज़बान-ओ-अदब सीखना चाहते हैं, और जो कृष्ण-चंद्र, मुंशी प्रेम चंद, मुंशी नवलकिशोर, राजा जय किशन, बुर्ज नारायण चकबस्त वग़ैरा को अपना आईडीयल बना कर उन्हीं के तर्ज़ पर उर्दू में अपनी ख़िदमात देना चाहते हैं, उन्हें असातिज़ा मुहय्या नहीं कराए जा रहे हैं। कभी किसी ख़ास इदारे के ज़रीया उर्दू ज़बान में पर्चा शाइआ ना करने के नाम पर इन तलबा के हौसले पस्त किए जाते हैं तो कभी सरकारी महिकमा से ही प्यारी ज़बान के अलफ़ाज़ ख़त्म करने की बात कर आईन की ख़िलाफ़वरज़ी की जाती है।
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अख़ीर में बस इतना ही कह सकते हैं वाक़ई कृष्ण-चंद्र और उन जैसे दीगर शोरा ने अपने कलाम के ज़रीया बता दिया है कि भारत की ये बेटी हमेशा से प्यार-ओ-मुहब्बत का दरस देती रही है और देती रहेगी। इसके मिटाने की कोशिशें करने वाले आए और चले गए लेकिन प्यारी ज़बान उर्दू ने कभी मुहब्बत का जवाब नफ़रत से नहीं दिया। उर्दू सीखना है, उर्दू सिखाना है, यही कृष्ण-चंद्र जैसे हज़ारों मुहिब्बाने उर्दू को सच्ची ख़िराज-ए-अक़ीदत होगी।