सफर उल मुजफ्फर - 1446 हिजरी
हदीस-ए-नबवी ﷺ
नबी करीम ﷺ ने इरशाद फरमाया : तीन काम ऐसे हैं कि अगर लोगों को उनकी फ़ज़ीलत मालूम हो जाए तो उनकी तलाश में वो ऊंटों की तरह दौड़ पड़ेंगे इनमें पहला आज़ान देना दूसरा पहली साफ हासिल करना और तीसरा जुमआ के लिए सुबह सवेरे घर से निकलना।
- सहीह बुख़ारी
✅ गजा : आईएनएस, इंडिया
जैसे ही ग़ज़ा में सूरज ग़ुरूब होता है, बे-घर फ़लस्तीनियों के प्लास्टिक की चादरों से बने ख़ेमों में तारीकी छा जाती है, अंधेरे में इसराईली ड्रोंन्ज की गूंज और तोप ख़ानों से उगलती आग उन पर ख़ौफ़ तारी कर देती। उन्हें लगता है कि वो सुबह का सूरज देखने के लिए ज़िंदा भी रहेंगे या नहीं।
अब्बू यासीन, बच्ची को थपथाते हुए एक लोरी गुनगुनाने लगती है जिसमें कहा गया है कि जब वो सो जाएगी तो एक ख़ूबसूरत परिंदा उस की हिफ़ाज़त करेगा। अब्बू यासीन की दूसरी बेटियां ये शिकायत करती हैं कि गददा बहुत पतला है। इस पर लेटने से ज़मीन चुभती है। उनके पास एक ही गददा है जिस पर सब मिलकर सोते हैं और जगह की तंगी के बाइस उनकी बार-बार आँख खुलती रहती है। अब्बू यासीन और उनकी बेटियां तन्हा इस कैफ़ीयत से नहीं गुज़र रहें। प्लास्टिक की चादरों के आरिज़ी ख़ेमों में पड़े हुए और भी बहुत से फ़लस्तीनीयों को भी इस मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है।
देरालबलाह कभी ग़ज़ा की पट्टी का एक तरक़्क़ी याफताह इलाक़ा हुआ करता था, लेकिन अब वो इसराईली बमबारी से मलबे के ढेरों में बदल चुका है। ख़ेमा बस्ती में पानी की बहुत कमी है।
फ़ातिन को भी अपने 15 माह के बच्चे के लिए कपड़ों की तलाश रहती है। उन्होंने बताया कि उनका बेटा रोज़ ब रोज़ बड़ा हो रहा है और पिछले कपड़े छोटे हो गए हैं लेकिन नए कहीं से नहीं मिल रहे। इसी तरह 29 साला अलमसरी जो ख़ान यूनुस में पनाह लिए हुए हैं, उनके पास फ़ालतू जूतों या कपड़ों का कोई जोड़ा नहीं है। मेरे जूते पूरी तरह फट चुके हैं। मैं उन्हें कम अज़ कम 30 मर्तबा सिलवा चुका हूँ। उनके पास साबुन भी नहीं है कि वो अपनी पैंट और टी-शर्ट धो सकें। इसे वो पिछले 9 माह से पहन रखे हैं। किसी साबुन या सर्फ बिना मैँ इन्हें धोकर इनके सूखने का इंतेजार करता हूं।
जंग शुरू होने से पहले भी ग़ज़ा की दो तिहाई आबादी ग़ुर्बत में ही रह रही थी और जंग शुरू होने के बाद अक्सर शहरी अपने कपड़े बेचने पर मजबूर हो गए थे। अक़वाम-ए-मुत्तहिदा की एजेंसी बराए मुहाजिरीन की सरबराह ने सोशल मीडीया प्लेटफार्म पर पोस्ट किया था कि कुछ ख़वातीन ने दस माह से एक ही स्कार्फ़ पहन रखा है।
गुजिश्ता चंद सालों में ग़ज़ा में मौजूद वर्कशॉप्स की तादाद भी कम हो कर एक सौ रह गई है जिनके साथ 4 हज़ार अफ़राद का रोज़गार जुड़ा हुआ था और जो हर माह इसराईल और मग़रिबी किनारे को 30 से 40 हज़ार अश्या बरामद करती थीं। वर्ल्ड बैंक के एक अंदाज़े के मुताबिक़ हालिया जंग शुरू होने के तीन माह बाद ही जनवरी में ग़ज़ा का प्राईवेट शोबा 79 फ़ीसद जुज़वी या मुकम्मल तबाह हो कर रह गया था।
ऐसे ही एक आरिज़ी खे़मे में एक छः साला बच्ची यासमीन अपनी माँ से कहती है, मुझे अपनी गोद में उठा लें, मैं मरना नहीं चाहती। अब्बू यासीन ने एएफ़पी को बताया कि मेरे बच्चे सोने से डरते हैं। मुझे भी उनकी जान की फ़िक्र है। अब्बू यासीन और उनकी चार बेटियां बे-घर फ़लस्तीनीयों की आरिज़ी ख़ेमा बस्ती में रह रही हैं, जिसे इसराईली फ़ौज ने महफ़ूज़ ज़ोन क़रार दिया हुआ है। ग्यारह माह से जारी इस लड़ाई में 24 लाख की आबादी की अक्सरीयत कम अज़ कम एक-बार अपना घर-बार छोड़ चुकी है। अब्बू यासीन अक्सर रात-भर जागती रहती हैं। नागहानी हमले के ख़दशे के अलावा उसकी एक और वजह उनकी बेटी लजीन है, अप्रैल में पैदा होने वाली ये बच्ची अक्सर सोते में जाग उठती है और रोने लगती है। अब्बू यासीन उसे सुलाने की कोशिश में जागती रहती है। उन्होंने बताया कि लजीन को चुप कराना बहुत मुश्किल है। हम चाहते हैं कि वो ये महसूस करे कि वो महफ़ूज़ है। हमारे पास झूला भी नहीं है जिसमें उसे आराम मिल सके।
अब्बू यासीन, बच्ची को थपथाते हुए एक लोरी गुनगुनाने लगती है जिसमें कहा गया है कि जब वो सो जाएगी तो एक ख़ूबसूरत परिंदा उस की हिफ़ाज़त करेगा। अब्बू यासीन की दूसरी बेटियां ये शिकायत करती हैं कि गददा बहुत पतला है। इस पर लेटने से ज़मीन चुभती है। उनके पास एक ही गददा है जिस पर सब मिलकर सोते हैं और जगह की तंगी के बाइस उनकी बार-बार आँख खुलती रहती है। अब्बू यासीन और उनकी बेटियां तन्हा इस कैफ़ीयत से नहीं गुज़र रहें। प्लास्टिक की चादरों के आरिज़ी ख़ेमों में पड़े हुए और भी बहुत से फ़लस्तीनीयों को भी इस मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है।
देरालबलाह कभी ग़ज़ा की पट्टी का एक तरक़्क़ी याफताह इलाक़ा हुआ करता था, लेकिन अब वो इसराईली बमबारी से मलबे के ढेरों में बदल चुका है। ख़ेमा बस्ती में पानी की बहुत कमी है।
हवाई हमले में एक ही ख़ानदान के 18 अफ़राद शहीद
इसराईल की फ़िज़ाई कार्रवाई में एक ही ख़ानदान के 18 अफ़राद हलाक हो गए। अस्पताल हुक्काम के मुताबिक़ हलाक होने वालों में मुक़ामी ताजिर समीअ जव्वाद, उनकी दो बीवियां और 11 बच्चे, बच्चों की दादी और दीगर तीन रिश्तेदार शामिल हैं। खानदान के 40 से ज़्यादा अफ़राद घर और वेयर हाऊस में पनाह लिए हुए थे।
महीनों एक ही कपड़े पहनने और जूते शेयर करने पर मजबूर
ग़ज़ा के रिहायशी महीनों एक ही कपड़े पहनने और जूते शेयर करने पर मजबूर हैं। न्यूज एजेंसी एएफ़पी को सफ़ा यासीन ने बताया कि जब वो हामिला थीं तो उन्होंने ख़ाब में अपनी बेटी को ख़ूबसूरत कपड़ों में देखा लेकिन अब जब वो दुनिया में आ गई है तो उसे पहनाने के लिए कुछ भी नहीं है।फ़ातिन को भी अपने 15 माह के बच्चे के लिए कपड़ों की तलाश रहती है। उन्होंने बताया कि उनका बेटा रोज़ ब रोज़ बड़ा हो रहा है और पिछले कपड़े छोटे हो गए हैं लेकिन नए कहीं से नहीं मिल रहे। इसी तरह 29 साला अलमसरी जो ख़ान यूनुस में पनाह लिए हुए हैं, उनके पास फ़ालतू जूतों या कपड़ों का कोई जोड़ा नहीं है। मेरे जूते पूरी तरह फट चुके हैं। मैं उन्हें कम अज़ कम 30 मर्तबा सिलवा चुका हूँ। उनके पास साबुन भी नहीं है कि वो अपनी पैंट और टी-शर्ट धो सकें। इसे वो पिछले 9 माह से पहन रखे हैं। किसी साबुन या सर्फ बिना मैँ इन्हें धोकर इनके सूखने का इंतेजार करता हूं।
जंग शुरू होने से पहले भी ग़ज़ा की दो तिहाई आबादी ग़ुर्बत में ही रह रही थी और जंग शुरू होने के बाद अक्सर शहरी अपने कपड़े बेचने पर मजबूर हो गए थे। अक़वाम-ए-मुत्तहिदा की एजेंसी बराए मुहाजिरीन की सरबराह ने सोशल मीडीया प्लेटफार्म पर पोस्ट किया था कि कुछ ख़वातीन ने दस माह से एक ही स्कार्फ़ पहन रखा है।
तबाह हो गई इंडस्ट्रीज
ख़्याल रहे कि चंद साल पहले तक ग़ज़ा में फलती फूलती टेक्स्टाईल इंडस्ट्री हुआ करती थी लेकिन 7 अक्तूबर को जंग शुरू होने के बाद से तमाम इनफ़रास्ट्रक्चर तबाह हो कर रह गया है। 1990 की दहाई के शुरू में ग़ज़ा की पट्टी में तक़रीबन 900 टेक्सटाइल फैक्ट्रियां हुआ करती थीं। ग़ज़ा के टेक्सटाइल सुकेड़ से 35 हज़ार लोगों का रोज़गार जुड़ा हुआ था और हर माह 40 लाख अश्या (सामान) इसराईल भिजवाई जाती थीं।गुजिश्ता चंद सालों में ग़ज़ा में मौजूद वर्कशॉप्स की तादाद भी कम हो कर एक सौ रह गई है जिनके साथ 4 हज़ार अफ़राद का रोज़गार जुड़ा हुआ था और जो हर माह इसराईल और मग़रिबी किनारे को 30 से 40 हज़ार अश्या बरामद करती थीं। वर्ल्ड बैंक के एक अंदाज़े के मुताबिक़ हालिया जंग शुरू होने के तीन माह बाद ही जनवरी में ग़ज़ा का प्राईवेट शोबा 79 फ़ीसद जुज़वी या मुकम्मल तबाह हो कर रह गया था।
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