मोहर्रम-उल-हराम - 1446 हिजरी
हदीस-ए-नबवी ﷺ
जिसने अस्तग़फ़ार को अपने ऊपर लाज़िम कर लिया अल्लाह ताअला उसकी हर परेशानी दूर फरमाएगा और हर तंगी से उसे राहत अता फरमाएगा और ऐसी जगह से रिज़्क़ अता फरमाएगा जहाँ से उसे गुमान भी ना होगा।
- इब्ने माजाह
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21 जुलाई को यौमे पैदाईश पर खास
✅ नई तहरीक : भोपाल
मुजाहिद-ए-आज़ादी डाक्टर राज बहादुर गौड़ हैदराबाद दक्कन के एक मक़बूल कम्यूनिस्ट रहनुमा, माअरूफ़ ट्रेड यूनीयन लीडर, उर्दू अदब के मुहक़्क़िक़-ओ-नक़्क़ाद और हिंदू-मुस्लिम इत्तिहाद के अलमबरदार थे। वे तेलगू जबान के पहले नावेल निगार हैं। असरी नस्र की इबतिदा उन्हीं के क़लम की मरहून है। वे पहले तंज़ निगार हैं, जिन्होंने असरी तेलगू तंज़ की बुनियाद डाली। उन्होंने इस्लाही ड्रामे लिखे। तेलगू शाइरों की तारीख़ मुरत्तिब की। अपनी सवानेह लिखी जो तेलगू में पहली ख़ुदनविश्त सवानेह है। उन्होंने असरी तेलगू सहाफ़त की बुनियाद डाली और 'विवेक वर्धनी' रिसाला जारी किया। उसका एक तंज़-ओ-मज़ाह का ज़मीमा 'हॉस्य संजीवनी' था। औरतों की तालीम और इस्लाह के लिए इदारे क़ायम किए और 'सत हित बोधिनी' रिसाला जारी किया।
उन्होंने ज़बान की इस्लाह की। अपने-आप से उन्होंने सवाल किया: 'ज़बान का मक़सद क्या है'; फिर उन्होंने ख़ुद ही उसका जवाब दिया: 'ज़बान का असल मक़सद ख़्यालात को दूसरों तक पहुंचाना है, ज़बान जितनी सादा और आसान होगी, उसी क़दर मूसिर तौर पर ख़्यालात की तरसील भी हो सकेगी'। उर्दू और तेलुगू ज़बान का मेल मिलाप किया और ये उन्हीं की देन है कि आज उर्दू और तेलुगू दोनों ज़बानें आंध्रा और तेलंगाना को बख़ूबी परवान चढ़ा रही हैं।
डाक्टर राज बहादुर गौड़ 21 जुलाई 1913 को शहर हैदराबाद के मुहल्ला गोलीपूरा में पैदा हुए। उनकी इबतिदाई तालीम मुफ़ीद अलानाम, धर्मावन्त और रिफ़ाह-ए-आम स्कूल में हुई। चादर घाट हाई स्कूल से मैट्रिक का इमतिहान दर्जा अव्वल में कामयाब किया। उसी साल उस्मानिया यूनीवर्सिटी से इंटरमीडीयेट में दाख़िल लिया। इंटरमीडीयेट की तकमील के बाद उस्मानिया मेडीकल कॉलेज में 1943 में एमबीबीएस तकमील की। 1952 में रियास्ती असेंबली की जानिब से राज्यसभा के रुक्न मुंतख़ब हुए और मुद्दत की तकमील के बाद फिर एक-बार 1958 में राज्य सभा की दूसरी मीयाद के लिए उनका इंतिख़ाब अमल में आया। 1962 में कम्यूनिस्ट पार्टी की सिटी पार्टी के सेक्रेटरी मुक़र्रर हुए।
डाक्टर राज बहादुर गौड़ उर्दू आर्टस कॉलेज के बानी अराकीन में थे। इंतिक़ाल से एक हफ़्ता कब्ल उन्होंने उर्दू तालीमी ट्रस्ट को तीन लाख रुपय का गिरां क़दर अतीया दिया। उर्दू हाल, अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू और इस से वाबस्ता इदारों की ता हयात ख़िदमत की। उनकी तसानीफ़ अदबी मुताले और अदबी तनाज़ुर अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिंद) ने शाइआ कीं। उन्होंने अदबी तहरीरों पर तबसरे लिखे। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, फ़िराक़-गोरखपुरी, मजरूह सुलतानपुरी, कैफ़ी आज़मी, प्रेम चंद वग़ैरा पर मुख़्तलिफ़ अदबी रिसालों में उनके मज़ामीन शाइआ हुए। दिल्ली के अलावा भारत के बड़े शहरों में मुनाक़िद होने वाले अदबी, सियासी-ओ-समाजी इजलासों में शिरकत कीं। उन्होंने एक मर्तबा अपनी तक़रीर में कहा था, उर्दू वालों को किसी ख़ुशगुमानी में रहने की ज़रूरत नहीं है। उर्दू को उसका हक़ मिलने तक जद्द-ओ-जहद करने की ज़रूरत है।'
उर्दू भारत की ज़बान है और ये मुख़्तलिफ़ तहज़ीबों की तर्जुमान है और ख़ासकर जंग-ए-आज़ादी की ज़बान है। 'भारत को जोड़ने वाली ज़बान है, प्यार-ओ-मुहब्बत का पैग़ाम देने वाली ज़बान है। यही ज़बान है जिसने तमाम भारतवासियों को एक धागे में पिरोया हुआ है।
उर्दू के एक बे-बाक तर्जुमान जिन्होंने अपने कई तक़ारीर में उर्दू दां को उर्दू की बका व फ़रोग़ के लिए आगाह करते रहे और ख़ुद भी उसकी बका व फ़रोग़ के लिए हर मुमकिन कोशिशें कीं। और जुनूबी भारत में उर्दू ज़बान को फ़रोग़ देने के लिए हर वो इक़दामात करते रहे जो जरूरी थे। अब वो इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन हमें उनकी तहरीक को आगे बढ़ाने की कोशिश करनी चाहीए जो उन्होंने उर्दू की बका व फ़रोग़ के लिए चलाए और दर्दू दां, दानिशवरों से उर्दू की बका व फ़रोग़ के लिए अपील की। उन्होंने अपने आख़िरी दिनों में उर्दू तालीमी ट्रस्ट को जो 3 लाख रुपय का अतीया दिया ये उर्दू की बका व फ़रोग़ के लिए उनका आख़िरी पैग़ाम भी है।
भारत के हर शहरी को चाहीए कि उर्दू की बका व फ़रोग़ के लिए अपनी हिस्से की ज़िम्मेदारी निभाए। क्योंकि उर्दू महज एक ज़बान नहीं बल्कि ये भारत की गंगा-जमुनी सक़ाफ़्त व तहज़ीब है। जो भारत के तमाम शहरी को आपस में जोड़े रखने, अमन-ओ-अमान को बरक़रार रखने का काम करती है और भारत की तरक़्क़ी का राज़ भी इसी में मुज़म्मिर है।
आज देखा ये जा रहा है कि जिनकी रोज़ी रोटी उर्दू है, वो जद्द-ओ-जहद करने की बजाय भारत की बेटी के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं, खासतौर पर शुमाली भारत वालों को इसके लिए जद्द-ओ-जहद करना चाहीए। इस ज़बान की हिफ़ाज़त के लिए लाज़िमी है कि उर्दू इदारों को बहाल रखा जाए। ख़ुद भी उर्दू पढ़ें और अपने बच्चों को उर्दू पढ़ाएं। उर्दू का रस्म-उल-ख़त इख़तियार करें। उर्दू का रस्म-उल-ख़त इख़तियार करना ही उर्दू पढ़ना, लिखना और जानना है।
7 अक्तूबर 2011 की सुबह उर्दू अदब के मुहक़्क़िक़-ओ-नक़्क़ाद डाक्टर राज बहादुर गौड़ इस दुनिया-ए-फानी को अलविदा कह गए।
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