क्या देश के लिए खतरा है मुस्लिम आबादी ?

क्या वाकई मुस्लिम आबादी देश की बहुसंख्यक आबादी के लिए ख़तरा है, या यह महज़ 'चुनावी प्रोपेगेंडा' है ?

✅ नुजहत सुहेल पाशा  : रायपुर 

    2024 के चुनाव के साथ ही समाज को बांटने का दुष्प्रचार चरम पर है। प्रधानमंत्री स्वंय बीजेपी के प्रमुख प्रचारक हैं। इस चुनाव में उनकी भूमिका इस झूठ के इर्द-गिर्द बुनी गई है कि अगर 'इंडिया अलायंस' सत्ता में आता है तो वह मुसलमानों को सभी सुविधाएं और विशेषाधिकार प्रदान करेगा, हर सुविधा पर पहला अधिकार मुसलमानों को देगा और संविधान को इस तरह बदल दिया जाएगा कि हिंदू इस देश के दोयम दर्जे के नागरिक बन जाएंगे। 
    ज़ाहिर है, इस प्रकार के बेबुनियाद प्रचार प्रसार से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमें जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास 'नाइनटीन एटी-फोर' की याद दिलाते हैं जिसमें सच्चाई को उल्टा कर दिया गया है।
    हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी की आर्थिक सलाहकार परिषद ने भी शायद 'चुनावी अभियान' के तहत ही एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें कहा गया कि 1950 से 2015 के बीच हिंदू आबादी में लगभग 8% प्रतिशत की गिरावट आई है, जबकि मुस्लिम आबादी में 43% प्रतिशत की वृद्धि हुई है ?  
    रिपोर्ट के मुताबिक 1950 में हिंदू कुल आबादी का 84% प्रतिशत थे, जो 2015 में घटकर 78% फीसदी रह गए हैं, जबकि इसी दौरान मुसलमानों, ईसाइयों, बौद्धों और सिखों की जनसंख्या में वृद्धि हुई जबकि जैन और पारसियों की जनसंख्या में कमी आई है।
    प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन 2017 में किया गया था और इसे आर्थिक मुद्दों पर शोध करने और प्रधानमंत्री को सलाह देने का काम सौंपा गया है। इसके 'शोध' का एक उदाहरण कुछ साल पहले सामने आया था, जब इसके प्रमुख विवेक देब रॉय ने परिषद के एक अध्ययन का हवाला देते हुए वर्तमान संविधान को 'औपनिवेशिक' बताते हुए कहा था कि "लिखित संविधान की औसत आयु केवल 17 वर्ष है।" उन्होंने कहा था कि ''भारत का वर्तमान संविधान मुख्य रूप से भारत सरकार अधिनियम 1935 पर आधारित है और इस अर्थ में यह एक 'औपनिवेशिक विरासत' भी है।"
    दुर्भाग्यवश चुनाव के बीच अजीब-ओ-गरीब 'स्टडी' जारी हुई जिससे मुस्लिम विरोधी प्रचार और 'बहुसंख्यक आबादी खतरे में हैं' जैसे बेबुनियाद नारे को आगे बढ़ाया गया। हालांकि इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं क्यूंकि सत्ताधारी संस्था से जुड़े कुछ लोग दशकों से ऐसे ही बे बुनियाद बातें करते आ रहे हैं। जबकि जानकारों के अनुसार इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले तीन शोधकर्ताओं द्वारा सभी डेटा विश्लेषण मानकों का उल्लंघन किया गया है।
    सबसे पहले जनसांख्यिकीय अध्ययन जनगणना पर आधारित होते हैं, लेकिन यह अध्ययन एसोसिएशन ऑफ रिलीजियस डेटा आर्काइव्स (एआरडीए) द्वारा 2.3 मिलियन लोगों के सर्वेक्षण पर आधारित है। 
    तेईस करोड़ लोग दरअसल हमारे देश की कुल आबादी का एक बहुत छोटा हिस्सा हैं। इस विषय पर सरकारी जनगणना के आंकड़े अधिक विश्वसनीय और व्यापक होते हैं और जनसंख्या वृद्धि के विभिन्न पहलुओं को सामने लाते हैं। इसलिए प्रश्न उठता है कि वर्तमान सत्ता की ओर से 2021 की जनगणना क्यों नहीं करायी गयी ? लेकिन इस प्रश्न का उत्तर सत्ताधारी दल ही जानता है। 
    देखने और समझने वाली बात यह है कि इन महान शोधकर्ताओं ने अधिक विश्वसनीय जनगणना डेटा के बजाये किसी अज्ञात संगठन के सर्वेक्षण डेटा का उपयोग क्यों किया है ? 
    जबकि जानकार मानते हैं कि चुनाव के दौरान बहुसंख्यक आबादी में अल्पसंख्यकों का डर पैदा करने का प्रयास करना मात्र एक चुनावी रणनीति है और देश में इस 'काल्पनिक भय' की कोई वास्तविक बुनियाद नहीं है।

- ये लेखक के अपने विचार हैं


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