मुल्क•ार की पसमांदा तन्जीमों के मुखिया खुद-नुमाई में मुब्तला, मआशरे की तालीम, तरक़्की और तहफ़्फुज से सरोकार नहीं : एमडब्लयू अंसारी

एमडब्लयू अंसारी
    मुल्क•ार में मुख़्तलिफ पसमांदा तन्जीमों के जरीये पसमांदा समाज की तालीम, तरक़्की और तहफ़्फुज के लिए काम करने का दावा किया जा रहा है। ढेर सारी पसमांदा तंजीमें समाजी व मिल्ली खिदमात दिखावे के लिए अंजाम दे रही हैं लेकिन पसमांदा समाज तबके के लोगों को इसका फायदा होता नजर नहीं आ रहा है, या ये कहें कि जमीनी सतह पर इसकी हकायक जाहिर नहीं हो रहे हैं। 
    सवाल ये है कि ऐसा क्यों है, क्या तंजीमें सिर्फ इंतिखाबात के वक़्त अपनी आवाज उठाती हैं और इंतिखाबात खत्म होने के बाद खामोश बैठ जाती हैं। क्या वजह है कि जो बातें पसमांदा समाज के लिए कही जा रही हैं, वो सिर्फ तहरीर तक ही महिदूद रह जाती है, जमीनी सूरत-ए-हाल इससे मुख़्तलिफ क्यों है, सूरत-ए-हाल ये है कि पसमांदा कमेटी के लीडरान सियासी पार्टियों की कठ-पुतली बने नजर आ रहे हैं। अपनी आवाज हर सियासी पार्टी और ऐवान तक पहूँचाने में कामयाब नहीं हो रहे हैं। नतीजा ये है कि पूरे मुल्क में 5 से जाइद पसमांदा तंजीमें होने के बावजूद सही प्लेटफार्म से आवाज बुलंद नहीं हो रही है नतीजतन इस बिरादरी पर मुसलसल मजालिम हो रहे हैं। हालत यह है कि पसमांदा तंजीमें मुतहर्रिक दिखाई दे रही हैं। जगह-जगह पसमांदा तन्जीमों के इजलास हो रहे हैं और अपनी बिरादरी को उनका जायज हक दिलाने की बात कही जा रही है। इसके बावजूद पिछले कुछ सालों से पसमांदा बिरादरी के साथ ना इंसाफी ही हो रही है। 
    एक बड़ा मुद्दा तन्जीमों के सामने मौजूद चैलेंजिज से निपटने या उनका सामना करने के लिए क्या मंसूबाबंदी की गई है। पसमांदा तबका आज जात-पात, ऊंच-नीच और समाज में राइज दीगर आला और अदना दर्जे की जात परस्ती जैसी बुराई (जो कौम की तरक़्की में रुकावट बना हुई है। सियासी पार्टियां •ाी मुस्लिम समाज को उन्हें जातियों की बुनियाद पर तकसीम करके अपनी सियासी रोटी सेंकने में मसरूफ हैं। असल मुद्दा रोजी-रोटी, तालीम, रोजगार, सेहत, इन्सानी तहफ़्फुज, हुकूक जैसे मुख़्तलिफ मसाइल से लोगों की तवज्जा को हटाया जा रहा है। 
    मआशरे को चाहिए कि बेहतर मुस्तकबिल बनाने के लिए आला-ओ-अदना की बेहस छोड़ दें। क्या अशरर्फिया, क्या सैय्यद, शेख, पठान और क्या मोमिन, अंसार, कुरैशी, रावणी, मंसूरी, सैफी, मुस्लिम गुर्जर, उसमानी, सलमानी और शाह वगैरह, इन सबसे परे आज जरूरत इस बात की है कि हम सब मुस्लमान हैं, मुत्तहिद होकर रहें। हकीकत ये है कि पसमांदा के दरमयान •ाी मनुवाद और पूंजीवाद है, इससे कोई इनकार नहीं, वर्ना क्या वजह है कि ये लोग आपस में रोटी, बोटी और बेटी का रिश्ता नहीं करते, इसलिए ऐसी जहनीयत को खत्म करके कास्टलेस सोसाइटी की तामीर करने की जरूरत है। 
    इस्लाम में कोई •ाी इन्सान आला या अदना नहीं है। अगर हम खुद को मुस्लमान कहते हैं, तो हमें इस्लामी तौर-तरीके और रवायात पर अमल करना होगा। आज समाज की तालीमी, तरक़्की इकतिसादी सूरत-ए-हाल को बेहतर बनाने के लिए हजारों की तादाद में तंजीमें काम करने का दावा करती हैं लेकिन मजदूर तबका चाहे वो खेती किसानी का काम करते हों, या रोजमर्रा के मजदूर हो, उनकी हालत बद से बदतर होती जा रही है। उनकी कोई खबर लेने वाला नहीं है। गरीबों, मजदूरों के बच्चे तालीम, सेहत समेत मुख़्तलिफ किस्म की परेशानियों से जूझ रहे हैं। ये तबकात महंगाई के सबब अपने बच्चों को आला तालीम देने से कासिर हैं। नीज सियासी पार्टियां मुस्लमानों पर मजालिम के वक़्त खामोश रहती है। पसमांदा समाज पर जुल्म व ज्यादती समेत दीगर मुआमलों में •ाी तमाम सियासी पार्टियां, लीडरान खामोश तमाशाई बने रहते हैं। क्या किसी •ाी पार्टी या लीडर ने पसमांदा समाज के साथ इन्साफ का मुआमला किया। 
    गुजिशता दिनों वजीर-ए-आजम नरेंद्र मोदी ने पसमांदा मुस्लिम समाज को पार्टी से जोड़ने की बात पर-जोर दिया था। उस वक़्त वजीर-ए-आजम ने कहा था कि पसमांदा मुस्लिम समाज के दरमयान पहुंचकर बीजेपी कारकुनान, लीडरान को काम करना चाहिए। ये महज इंतिखाबात में पसमांदा बिरादरी के वोट हासिल करने के लिए एक चाल •ाी हो सकती है। वर्ना गुजिशता दस सालों में क्यों वजीर-ए-आजम को पसमांदा बिरादरी की याद नहीं आई। एक ओर वजीर-ए-आजम पसमांदा समाज की फिक्र करते दिखाई देते हैं, लेकिन 1950 के सदारती हुक्म को खत्म नहीं करते हैं। आबादी के तनासुब से टिकट तकसीम नहीं करते।
    आज जरूरत इस बात की है कि तमाम पसमांदा तंजीमें जमीनी हकीकत से वाकफीयत रखते हुए एक मुशतर्का लायहा अमल बनाए जाएं जिसमें 1950 के सदारती हुक्म को खत्म करने, आबादी के तनासुब से आम इंतिखाबात में टिकट देने, पसमांदा समाज की तालीमी और इकतिसादी पसमांदगी को खत्म करने के लिए हर सूबे में पसमांदा इकानामिक एजुकेशनल फायनेंशियल की तशकील करने के मुतालिबात शामिल हों। ऐसा मुशतर्का लायहा अमल तैयार किया जाए जिससे पसमांदा समाज में मनुवादी और पूंजीवादी जहनीयत खत्म हो और आपस में उखुवत और आपसदारी कायम हो। पसमांदा समाज अपने समाज में ऐसा निजाम कायम करे ताकि सरकारी स्कीमों का ज्यादा से ज्यादा फायदा अपने लोगों तक पहुंचाना आसान हो, पसमांदा बिरादरी को तालीम के मैदान में रोजगार के मैदान में आगे लाया जा सके। इसी से कौम की तरक़्की मुम्किन है। वर्ना खुद-नुमाई से ना किसी का •ाला हुआ है और ना आइन्दा होना है।
- •ोपाल

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