✒ एमडब्लयू अंसारी : भोपाल मरहूम ग़ुलाम सरवर यानि एक ऐसी शख्सियत जिसकी तहरीरें बड़े-बड़े सियासतदां को भी उलझा देती थी, एक निडर सहाफ़ी, शानदार मुक़र्रिर, उर्दू के मुजाहिद और निडर सियासतदां, सालार उर्दू, तहरीक उर्दू और फख्रे मिल्लत के अलमबरदार जिन्होंने बिहार में उर्दू को दूसरी सरकारी ज़बान का दर्जा दिलाने का मुतालिबा करते हुए अपने हामियों के साथ भूख हड़ताल की और आख़िरकार बिहार में उर्दू को दूसरी सरकारी ज़बान का दर्जा दिलाकर ही मानें। ग़ुलाम सरवर एक ऐसी शख़्सियत के मालिक थे, जिनके अंदर तमाम खूबियां मौजूद थीं। वो जिस भी ओहदे पर रहे, उन्होंने मुनफ़रद अंदाज़ में उसकी ख़िदमत की।
बिहार का शेर
लोग उन्हें शेर-ए-बिहार कहते थे। बिहार में उर्दू को दूसरी ज़बान का दर्जा दिलाने में मरहूम ग़ुलाम सरवर ने अहम किरदार अदा किया। उन्होंने उर्दू के हवाले से बहुत काम किए और इसे एक तहरीक में बदल दिया। उन्होंने मुख़्तलिफ़ मुक़ामात पर उर्दू के लिए जलसे और कान्फ्रेंस मुनाक़िद कीं जिनका असर ना सिर्फ बिहार बल्कि उतर प्रदेश में भी हुआ।1967 के इलेक्शन में उन्होंने नारा दिया कि जो बिहार में उर्दू को दूसरी सरकारी ज़बान बनाएगा, मुस्लमान उसे वोट देंगे। बिहार भारत की पहली रियासत है, जहां उर्दू को दूसरी सरकारी ज़बान का दर्जा मिला। ग़ुलाम सरवर ने 1952 में उर्दू रोज़नामा ''संगम' निकाला, जो महज एक अख़बार नहीं बल्कि तलवार था, उन्होंने संगम को एक तहरीक की शक्ल दी। लोग सुबह की चाय बाद में पीते, पहले उनका लिखा ईदारिया पढ़ते थे। 10 जनवरी 1926 को बेगूसराय में पैदा होने वाले ग़ुलाम सरवर वज़ीर-ए-ज़राअत के ओहदे पर फ़ाइज़ रहते हुए 17 अक्तूबर 2004 को इंतिक़ाल कर गए।