मिर्जा गालिब को मशहूर अदाकर कादर खान की नजर से समों
मोहम्मद जाकिर हुसैन : भिलाई
दाम-ए-हर-मौज में है हल्का-ए-सद-काम-ए-नहंग
देखें क्या गुजरे है कतरे पे गुहर होते तक-गालिब
दुनिया में जब इंसान आता है तो उसकी तमन्ना बाद में जाहिर होती है। उसके मां-बाप और खानदान की दिली तमन्ना उससे पहले जाहिर हो जाती है कि हमारा बच्चा दुनिया का कोई बहुत बड़ा इंसान बनेगा।
मिसाल उसकी ये है कि जब बारिश का कतरा गिरता है तो उसकी एक ही तमन्ना होती है कि मैं किसी खुली हुई सीप में जाकर समा जाऊं और इसके बाद सीप बंद हो जाए तो वो कतरा असली मोती में तब्दील हो जाए। इसे ही कहा जाता है कतरे का गौहर (मोती) होना।
मगर यकीन मानिये कि जब कतरा वहां उपर से चलता है तो लोग नीचे समंदर में दाम (जाल) बिछा लेते हैं। समंदर की हर मौज में एक-एक जाल बिछा हुआ होता है और जाल ही नहीं ढेर सारे नहंग (मगरमच्छ) भी मुंह खोल कर बैठे होते हैं। मगरमच्छ के मुंह के अंदर हलक में एक हल्का (गले में) होता है जो कि दूर से सीप की तरह नजर आता है।
ऐसे जाल भी दूर से सीप जैसे नजर आते है। तो इन सारी रुकावटों-बाधाओं के बीच एक सीप भी होता है, जो खुला हुआ है किसी कतरे (बूंद) के इंतजार में। तो देखिए, एक कतरे ने सफर शुरू किया है तो कहां जा कर गिरता है। मगरमच्छ के मुंह में, जाल में या फिर सीप में।
इसलिए गालिब ने कहा है कि दाम (जाल) हर मौज में है। हर मौज के अंदर एक दाम (जाल) बिछा हुआ है। हल्का (गले की गोलाई वाला हिस्सा), सद के मायने सौ, काम यानि मुंह और नहंग यानि मगरमच्छ के।
हम में से हर एक, जो इस दुनिया में आता है, बारिश के उस कतरे की तरह आता है और चल पढ़ता हैं अपनी मंजिल की ओर। जिसमें राह में कई बदनसीबियां अपना मुंह खोल कर मगरमच्छ की तरह अपनी गिरफ्त में लेना चाहती हैं। राह रोकने और नुकसान पहुंचाने जाल लोगों ने अलग बुन रखे हैं। वहीं कामयाबी की सीप एक है। अब हमें वो सीप मिलती है, जाल मिलता है या फिर मगरमच्छ का मुंह मिलता है, यह तो अल्लाह ही बेहतर जानता है।
चचा गालिब के इस पागल कर देने वाले शेर की जो तशरीह (व्याख्या) आपने पढ़ी, वो मेरी नहीं बल्कि भारतीय फिल्मों में अपना एक अलग मकाम हासिल करने वाले लेखक-अभिनेता कादर खान साहब की है।
फिल्मों से हट कर कादर खान साहब अपने आखिरी दिनों में सिर्फ गालिब को पढ़ और समझ रहे थे। इसके बाद अपने शो के जरिए दुनिया को गालिब की शायरी समझा रहे थे।
आज के दौर के लिहाज से बेहद मुश्किल अल्फाजों वाले गालिब के कलाम को कादर खान साहब ने जिस सरल और सीधे अंदाज में समझाया है, वह अपने आप में बेमिसाल है।
उनका यह वीडियो मैं कई बार देख चुका हूं। देख कर लगता है, काश, कादर खान साहब को वक्त कुछ और मोहलत देता तो गालिब की शायरी कुछ और आसान तरीके से हमें समझ में आ गई होती।
खैर, इस शेर और इसकी तशरीह (व्याख्या) के साथ इस्तेमाल यह फोटो मेरे शहर भिलाई की जामा मस्जिद सेक्टर-6 के वुजूखाने के हौज की है। 28 अप्रैल की रात लैलतुल कद्र यानि कद्र वाली रात में मुझे अपनी मस्जिद में इबादत करने की खुशकिस्मती हासिल हुई।
इस दौरान वुजू बनाने गया तो हौज भरा हुआ नजर आया। कोरोना काल में सरकारी दिशा-निदेर्शों के तहत यह हौज खाली कर दिया गया था। यहां तैरती खुबसूरत मछलियां निकाल दी गई थीं और इस पर लगा शानदार फौव्वारा भी खामोश कर दिया गया था। खाली हौज में धूल जमा हो रही थी।
अब करीब 2 साल बाद हौज में पानी मौज करता हुआ दिखा। भरा हुआ हौज देख कर अच्छा लगा। दुआ कीजिए कि अब आगे इस हौज को खाली रखने की नौबत न आए।