- सईद खान
अब जाकर समझ में आया कि बेटियों को बचाने की वकालत इतने जोर-शोर से क्यों की जा रही थी। भाई लोगों का भरोसा बेटों पर से उठ चुका लगता है। कन्या को कोख में ही मौत की नींद सुलाने वाले मां-बाप को भी शायद अब अत्मग्लानी हो रही होगी। रियो ओलंपिक के परिणाम और देश के कर्णधारों का ज्यादा बच्चे पैदा करने की सलाह देने के पीछे भी शायद यही आशय होगा। ज्यादा बच्चे होंगे तो बेटियों की तादाद बढ़ेगी। बेटियों की तादाद बढ़ेगी तो मेडल की संख्या भी बढ़ेगी और धर्म भी सुरक्षित रहेगा।
रियो ओलंपिक में बेटियों की कामयाबी ने संभवत: बेटों को भी क्षुब्ध कर दिया लगता है। सोशल मीडिया में वायरल हो रही युवाओं की भड़ास से तो यही प्रतीत हो रहा है। सरहद पर तैनात जवानों और खिलाड़ियों के पुरुष कोच का हवाला देने के पीछे और क्या आशय हो सकता है उनका।
लगे हाथ मेरे एक मित्र नीति विषयक विधेयक में अमेंडमेंट की बात करने लगे हैं। कल मिले थे। कह रहे थे-‘दईया रे’, ‘उई मां’, ‘छी रे’, ‘न बाबा’, ‘हाय राम’, ‘हाय अल्लाह’, ‘धत्’ और ‘तौबा’ जैसे संवेदनशील शब्द लड़कों को ट्रांसफर कर देने चाहिए।
मेरे ये वाले मित्र इम्पोर्टेड माइंडेड हैं। लिफाफा देखकर मजमून भांप लेते हैं। उड़ती चिड़िया के पर गिन लेते हैं। हद् तो यह कि यदि उन्हें अक्वेरियम के सामने खड़ा कर दिया जाए तो वे यह भी बता देते हैं कि अक्वेरियम में कौन सी मछली है और कौन सा मछला है।
एक दिन कह रहे थे-‘परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इसलिए आदमी को हर परिवर्तन के लिए पहले से तैयार रहना चाहिए।’
मैं बोला-‘किस परिवर्तन की बात कर रहे हो।’ तो कहने लगे-‘मुझे एक बड़े परिवर्तन की बू आ रही है। मुझे लगता है, जल्द ही वो समय आने वाला है, जब पुरुष, बाजारों और सड़कों से गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो जाएगा। जैसा थोड़े दिनों पहले हुआ करता था। तब बाजारों और सड़कों में महिलाओं का दीदार दुर्लभ होता था। अब पुरुषों का दीदार दुर्लभ होने जा रहा है। कहीं-कहीं और कभी-कभी ही दिखेगा। घर से निकलते हुए जूड़ी के मरीज की तरह कांपेगा। डरेगा कि कहीं किसी लड़की से सामना न हो जाए। बाप अपने जवान हो रहे बेटों को सलाह देंगे-अकेले मत जाओ...मुन्ना को साथ ले लो...ज्यादा देर तक बाहर मत रहो। आदि-इत्यादि। और बड़ी बहनें अपने छोटे भाईयों से कुछ इस तरह पेश आएंगी-ए, दरवाजे पर क्यों खड़े हो, चलो अंदर।’
उनकी बात सुनकर मैं मुस्कुरा दिया तो बोले-‘हंसो मत। समाज में तेजी से हो रहे बदलाव को महसूस करो। फ्यूचर को इमेज करो।’
‘अच्छा।’ मुझे उनकी बातों में आनंद आने लगा था। मजा लेते हुए मैं बोला-‘फ्यूचर में और क्या चेंज आने वाला है।’
वे बोले- ‘अभी जिस तरह हम यहां बैठकर चाय सुड़क रहे हैं, फ्यूचर में ऐसा नहीं होगा। हमारी जगह यहां लड़कियां बैठी चाय सुड़क रही होंगी। और यहीं नहीं, बल्कि हर नुक्कड़, हर होटल और हर पानठेलों पर लड़कियां ही होंगी।’
‘तो हम कहां होंगे।’
‘हमारा वजूद घरों में सिमटकर रह जाएगा।’
‘यानी हम बच्चे खिला रहे होंगे।’
‘बिल्कुल ठीक।’ वे बोले-‘मैं यही कहने जा रहा था...।’ अभी वे अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाए थे कि तभी रमटी हमारे हाथों में चाय का गिलास थमा गया जिससे हमारी बातों में थोड़ी देर के लिए विध्न पैदा हो गया। उन्होंने चाय का एक लंबा घूंट लिया और ओंठों पर जबान फेरकर अपनी बात आगे बढ़ाई। बोले-‘मैं तो यह भी महसूस कर रहा हूं कि फ्यूचर में लड़कों की आदत, उनका व्यवहार और बातचीत में किस हद तक परिवर्तन आ सकता है। बात-बात पर मूंछे मरोड़ने वाली हमारी बिरादरी की आदत दांतों में ऊंगली दबाने की हो जाएगी। अभी बात-बात में वो जो ‘यार’ कहते हैं, ‘छी’ कहने लगेंगे। कहेंगे-‘छी रे...कुसुम तो बड़ी वो है...।’ लगे हाथ उन्होंने यह भी बता दिया कि दो दोस्त आपस में किस तरह मिलेंगे। बोले-‘अपने दोस्त से मिलने के लिए पत्नी, बड़ी बहन अथवा मां से परमिशन लेनी होगी। कई बार यह कहकर डपट दिए जाएंगे कि क्या जरूरत है दोस्त से बार-बार मिलने की। परमिशन मिल भी गई तो मां, बहन अथवा पत्नी उन्हें दोस्त के घर छोड़ने जाएंगी। जाते-जाते हिदायत कर जाएंगी कि ज्यादा देर तक मत बैठना। इस तरह उनकी मुलाकात होगी और वे आपस में इस तरह बतियाएंगे-’
पहला-‘हाय, कैसा है तू।’
दूसरा- ‘ठीक हूं। तू बता। तू कैसा है।’
पहला-‘बस कट रही है जैसे-तैसे।’
दूसरा-‘अच्छा, ये तो बता कल बाजार चलता क्या।’
पहला- ‘क्यों, कुछ खास है क्या।’
दूसरा- ‘नहीं रे... सोच रहा था एक-दो दिन के लिए भाई के घर चला जाऊं। इसलिए कुछ शापिंग-वापिंग करने का इरादा था।’
पहला-‘ठीक है। मैं इससे पूछकर बताता हूं। खैर! तू बैठ न। उसके आने का टैम हो गया है। मैं जरा यह आटा गूंथ लूं तो तेरे लिए चाय बनाता हूं।’
सगरे भाई, भैनें इसे भाई मियां के दिमाग का फितूर समझ सकती हैं। लेकिन असल में यह रियो ओलंपिक के बाद भैनों की तारीफ में पढ़े जाने वाले कसीदे और भाईयों के छीछालेदर के अलावा देश के कर्णधारों की ज्यादा बच्चे पैदा करने की सलाह के बाद एक व्यंग्यकार की सोच है-बस।
बहरहाल! सगरी भैनों को साधुवाद। दुआ है कि भैनों की शान में ‘तू चीजÞ बड़ी है मस्त-मस्त’ जैसे गीत रचने वाले शायरों को उनके लिए पहले की तरह ‘चौदहवीं का चांद हो, या आफताब हो’ जैसे गीत रचने की मति आए।
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