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उर्दू जबान के साथ हो रही ना इंसाफ़ी के ख़िलाफ़ करें लड़ने का अज्म

जमादी उल ऊला 1446 हिजरी 


फरमाने रसूल ﷺ 

दरूद तुम्हारे सब गमो के लिए काफी होगा और इससे तुम्हारे गुनाह बख्श दिए जाएंगे।
- तिर्मिज़ी

उर्दू जबान के साथ हो रही ना इंसाफ़ी के ख़िलाफ़ करें लड़ने का अज्म

✅ नई तहरीक : भोपाल

सारे जहां से अच्छा, हिंदुस्तान हमारा,
हम बुलबुले हैं इसकी, ये गुलसिताँ हमारा।

तराना-ए-हिंद के ख़ालिक़, हकीम उल उम्मत अल्लामा इक़बाल की विलादत 9 नवंबर 1877 को स्यालकोट में हुई और इंतिक़ाल 21 अप्रैल 1938 को लाहौर में हुआ। शयर-ए-मशरिक़ अल्लामा मुहम्मद इक़बाल की यौम-ए-विलादत को यौम उर्दू के तौर पर उर्दू दुनिया में मनाया जाता है। 
    अल्लामा इक़बाल उन शाइरों में से हैं, जिन्होंने अपनी फ़िक्र अंगेज़ तख़लीक़ से उर्दू को ना सिर्फ आलमी सतह तक पहुंचाया बल्कि अपनी बुलंद ख़याली से उर्दू ज़बान-ओ-अदब को वो मुक़ाम अता किया कि उर्दू की शाहकार तख़लीक़ दुनिया की दूसरी बड़ी ज़बानों के हमपल्ला है। और यही वजह है कि भारत की बेटी अपनी ख़ुद की ताक़त पर यूएनओ की दफ़्तरी ज़बान बन गई है।


यौमे पैदाईश

अल्लामा मोहम्मद इकबाल        09 नवंबर
शेर-ए-मैसूर टीपू सुल्तान         10 नवंबर
मौलाना अबुल कलाम आजाद    11 नवंबर

    अल्लाम इकबाल की तहरीरों को सिर्फ उर्दू हलक़ा या मुस्लिम क़ौम तक रखकर देखना बड़ी ना इंसाफ़ी होगी। हालांकि आज उर्दू को मख़सूस तबक़ा-ओ-मज़हब से जोड़ कर नफ़रत का बाज़ार गर्म किया जा रहा है। ये याद रखना होगा कि भारत के आईन के आठवें शैडूल में भारत की 22 सरकारी ज़बानों की फेहरिस्त में उर्दू भी शामिल है और इसे ख़त्म करने की कोशिश, भारत की क़ौमी तालीमी पालिसी (एनईपी) 2020 की ख़िलाफ़वरज़ी है। क़ौमी तालीमी पालिसी में तीन ज़बानों का फार्मूला है, जिसके तहत तलबा को कम अज़ कम तीन ज़बानें सीखने की ज़रूरत है। ये फार्मूला सरकारी और प्राईवेट दोनों तरह के स्कूलों पर नाफ़िज़ होता है। 
    कोठारी कमीशन 1964 की जानिब से मादरी या इलाक़ाई ज़बान, मर्कज़ या सूबा की सरकारी ज़बान, जदीद भारतीय ज़बान या ग़ैर मुल्की ज़बान का फार्मूला पेश किया गया था। भारत के शुमाली ख़ित्ते के लखनऊ, दिल्ली और आस-पास में रहने वालों की मादरी ज़बान उर्दू है। इसी तरह किसी की ज़बान तेलुगू है, किसी की मराठी तो किसी की भोजपुरी। कौमी पालिसी के तहत तलबा को अपनी मादरी ज़बान में पढ़ने का पूरा हक़ दिया गया है। हुकूमत भी तमाम भारती ज़बानों, ब शमूल उर्दू में तालीम को फ़रोग़ दे रही है और क़ौमी तालीमी पालिसी 2020 में मादरी ज़बान के ज़रीये तालीम पर ज़ोर दिया जा रहा है। ऐसे में महज उर्दू के तईं तास्सुबाना रवैय्या क़ाबिले अफ़सोस है। इस तास्सुबाना रवैय्या के ख़िलाफ़ मुहिब्बाने उर्दू को मिलकर आवाज़ बुलंद करने की जरूरत है।
    काबिल-ए-ज़िक्र है कि महज एक दिन ख़ास कर जश्ने उर्दू के नाम पर तक़ारीब का इनइक़ाद कर लेना काफ़ी नहीं है। ये उर्दू से मुहब्बत का तक़ाज़ा नहीं है। बल्कि मुहब्बत की इस शीरीं ज़बान के लिए आलमी यौम उर्दू के मौक़ा पर इसके साथ हो रही ना इंसाफ़ी के ख़िलाफ़ खड़े होने का है। याद रखें कि उर्दू भारत की बेटी और हिन्दी की बहन है और रस्म-उल-ख़त इसका लिबास है। हमें उर्दू रस्म-उल-ख़त इख़तियार करना होगा। हर एक ये यक़ीनी बनाना होगा कि हमारे घरों में कम अज़ कम एक उर्दू अख़बार आए। बच्चों को उर्दू सिखाएँ। बच्चों के दरमयान उर्दू लिखने, पढ़ने और मज़मून निगारी के मुक़ाबला कराया जाना चाहिए ताकि बच्चों में उर्दू लिखने की सलाहीयत पैदा हो।
    इसके अलावा हमें आने वाली नसलों को निसाब की किताबें उर्दू ज़बान में मुहय्या कराना अव्वलीन ज़िम्मेदारी समझना होगा। खासतौर पर साईंसी उलूम और हिसाब वग़ैरा की किताबों के लिए जद्द-ओ-जहद और इसकी दस्तयाबी के लिए सरकार से मुतालिबा करना होगा। साथ साथ उर्दू असातिज़ा की तक़र्रुरी के लिए जहां-जहां भी आसामी हों, उसके लिए भी आवाज उठानी होगी।
    उर्दू के नाम पर मुनाकिद किए जाने वाले तमाम प्रोग्राम में नई नसलों को मदऊ करना होगा। हुकूमत से अपने जायज़ हुक़ूक़ के लिए मुतालिबा करना होगा। अपनी ज़बान के तहफ़्फ़ुज़ के लिए इक़दामात न करने और अपनी आवाज़ बुलंद न करने पर हुकूमत भी हमारे हुक़ूक़ से आंखे मूंद लेगी। इस तरह उर्दू के इदारे धीरे-धीरे बंद हो जाएंगे। उर्दू इदारों को माली इमदाद वैसे ही नहीं मिल रही है। ताजा जानकारी के मुताबिक हाल ही में राजिस्थान उर्दू अकेडमी को बंद कर दिया गया है। अपनी ज़बान का मुहाफ़िज़ बनने के लिए हमें हर छोटा-बड़ा कदम उठाना होगा। 
    गौरतलब है कि आज हर जगह उर्दू को ख़त्म करने की कोशिशें की जा रही है। कहा ये जाता है कि उर्दू मुस्लमानों और मुगलों की ज़बान है। हालाँकि उर्दू ना मुस्लमानों की जबान है और ना ही ये ग़ैरमुल्की है बल्कि ये भारत की बेटी और हिन्दी की बहन है। भारत में ही पैदा हुई है और यहीं परवान चढ़कर तमाम मज़ाहिब के मानने वालों की ज़बान बन गई है। गंगा-जमुनी तहज़ीब की इस ज़बान को परवान चढ़ाने में ग़ैर मुस्लिमों की ख़िदमात सबसे ज़्यादा रही है। 

उर्दू से दुश्मनी की अजीब दास्तां

उर्दू से दुश्मनी का ये आलम है कि शहरों, सड़कों और रेलवे स्टेशनों के नाम तक तब्दील किए जा रहे हैं, क्योंकि ये नाम उर्दू की मकबूलियत का पता देते हैं। कभी पुलिस हेडक्वार्टर से ये फ़रमान जारी किया जाता है कि महिकमा पुलिस में उर्दू ज़बान का इस्तिमाल नहीं किया जाएगा। हालाँकि कई मुस्लिम शोरा ने हिंदू मज़हब की अज़ीम हस्तियों की शान में अशआर-ओ-मज़ामीन लिखे हैं। उर्दू जबान को जो मुकाम मिलना चाहिए था, वो उसे नहीं मिल रहा है जिसके लिए आज हमें जद्द-ओ-जहद और कोशिश करने की ज़रूरत है। आलमी यौम उर्दू के मौक़ा पर हमें उर्दू के साथ हो रही ना इंसाफ़ी के ख़िलाफ़ ज़ोरदार आवाज़ बुलंद करनी होगी। 

-एमडब्ल्यू अंसारी
बे नजीर अंसार एजुकेशनल एंड सोशल वेलफेयर
भोपाल

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