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अभियान जारी है


 - सईद खान 


देश को आजाद हुए 75 साल पूरे हो गए। 1947 से 2022 के बीच कितने साल गुजर गए, इसका ठीक-ठीक पता करने के लिए हमें थोड़ी मशक्कत करनी पड़ी। गणना के लिए हाथ-पैर की ऊंगलियां कम पड़ गई तो कैल्कूलेटर की मदद लेनी पड़ी, तब जाकर कन्फर्म हुआ कि 75 साल पूरे हो गए हैं।  75 बोले तो आयु में वर्मा जी की माता जी के बराबर। वर्मा जी कल ही मिले थे। बता रहे थे, ‘माता जी को लकवा मार गया है। बिस्तर पर पड़ गईं हैं। न कुछ बोल रही हैं न सुन पा रही हैं। आंखों से भी कम दिखने लगा है।’  फिर बोले- ‘इस महीने 75 साल की हो भी तो गईं हैं।’

मैंने ‘ओह!’ कहकर सम्वेद्ना व्यक्त की। मेरे ‘ओह’ कहने और वर्मा जी के ‘इस महीने 75 साल की हो भी तो गईं हंै’, कहने के पीछे एक ही भाव काम कर रहा था। हम दोनों एक तरह से यह कहना चाह रहे थे कि हो गया न यार, और कितना जीएंगीं।

पड़ोसी होने के नाते वर्मा जी की माता जी से अक्सर आमना-सामना हो जाया करता था। लेकिन उन्हें देखकर कभी ये अहसास नहीं हुआ था कि वे 75 साल की हो गईं हैं। न कभी ये महसूस हुआ कि 75 साल बहुत होते हैं। कल जब उन्हें बिस्तर पर पड़ा देखा, तब अहसास हुआ कि 75 साल बहुत होते हैं। इस अर्से में आदमी एक पूरा युग जी लेता है। बच्चे से किशोर। फिर युवा और अधेड़ावस्था के बाद बुढ़ा भी जाता है। यहां तक कि जिन्हें उसने पैदा किया होता है, वे उसकी उल्टी गिनती भी शुरू कर देते हैं। 

देश को आजाद हुए भी 75 साल हो गए हैं। हालांकि आजादी के साथ 75 की संख्या को ज्यादा नहीं कहा जा सकता। कम से कम माता जी की उम्र और उनकी कृशकाय देह से तो आजादी के सालों की तुलना नहीं ही की जा सकती। माता जी का मामला व्यक्तिगत है। उनकी देखभाल उनके एकमात्र पुत्र के जिम्मे है, जबकि देश की अस्मिता, गौरव और आजादी को बनाए रखने के लिए खंडीभर लोग हैं। और फिर आजादी के मतवालों ने आजादी के साथ आजादी का कोई गांरटी कार्ड भी तो दिया ही होगा। ‘अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों...’ का भावार्थ और क्या हो सकता है भला। आजादी के मतवालों की साल दर साल जयंती, पुण्यतिथि मनाकर छुटभैय्ये नेता यह अहसास भी नहीं होने दे रहे हैं कि 75 साल बहुत हो गए हैं। आजादी के मतवालों की जयंती व पुण्यतिथि पर छुटभैय्ये नेताओं का जोश देखकर लगता है जैसे आजादी मिले जुमा-जुमा आठ ही दिन हुए हैं। इस हिसाब से देखा जाए तो भारत की विकास दर से असंतोष नहीं होना चाहिए। विकास दर और आजादी के सालों की तुलना करने वाले देश की जनसंख्या और इसके विशाल भू-भाग पर भी जरा गौर कर लें। आखिर जिम्मेदारी का छोटा-बड़ा होना भी तो मायने रखता है। क्या हुआ जो झगरू, ढिमरू और बुधारू की बहू-बेटियों को शौच के लिए अब भी खुले में बैठना पड़ता है। शौचालय बनाने की सुध तो हम ले ही रहे हैं। थोड़े दिनों पहले हमने लोगों को हाथ धुलाना सिखा ही दिया है। अब शौच कहां और कैसे करें, इसकी जानकारी दी जा रही है। शौचालय बनवाए जा रहे हैं। गुरु जी लोगों को शौच करने वालों पर नजर रखने की जिम्मेदारी भी दे दी गई है। आखिरकार हमारे वैज्ञानिकों ने खुले में शौच से होने वाले दुष्प्रभावों का पता लगा लिया है तो हमारा भी फर्ज बनता है कि हम देशवासियों के शौच करने की प्रवृत्ति को लेकर थोड़ा गंभीर हो जाएं। अगर इसमें शत-प्रतिशत कामयाबी मिल गई तो इसके प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष लाभ में से एक बड़ा लाभ यह होगा कि महानगरों के आउटर पर प्लेटफार्म खाली होने के इंतजार में खड़ी ट्रेन के यात्रियों को नाक पर रुमाल रखना नहीं पड़ेगा। 

और देर से ही सहीं, हमें इस बात का अहसास भी हो गया है कि हम गंदगी में जी रहे हैं। और इस अहसास के साथ ही हमने हाथों में झाडू थाम ली है। इस मुहिम में सेलीब्रिटीज भी शामिल हुए और उन्होंने यहां-वहां बाकायदा झाडू भी लगाई। मेरे शहर के छुटभैय्ये नेताओं ने भी इस अभियान में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। अखबारों में छुटभैय्ये नेताओं के हाथ में झाडू थामे अलग-अलग एंगल से छपी उनकी फोटू देख शहरवासी निहाल ही हो गए। कहने लगे-‘चलो! इसी बहाने शहर साफ-सुथरा हो जाएगा।’ बातचीत के दौरान वहां मौजूद भोकला मामू ने भी सुर मिलाया। गला खखारकर ढेर सारा बलगम सड़क पर थूकते हुए बोले-‘हां यार, सफाई तो होनी ही चाहिए। बहुत गंदगी हो गई है।’

पिछले दिनों मेरे शहर में एक केंद्रीय मंत्री का आना हुआ। चूंकि स्वच्छता पखवाड़ा चल रहा था इसलिए मंत्री के व्यस्त कार्यक्रम में उनसे झाड़ू लगवाना भी शामिल था। हालांकि पार्टी के शहर अध्यक्ष ने इस पर एतराज किया था। उसने कहा था-‘यार, तुम मंत्री जी से झाड़ू उठवाओगे।’

‘तो क्या हुआ।’ प्रदेश अध्यक्ष बोला-‘मौका भी है और दस्तूर भी है। अभी तो अच्छे-अच्छे लोग झाड़ू उठा रहे हैं। अगर मंत्री जी ने झाड़ू नहीं उठाई तो उनके खिलाफ फतवा नहीं जारी हो जाएगा कि महत्वपूर्ण विभाग का मंत्री होते हुए भी उन्होंने इतने महत्वपूर्ण अभियान की अनदेखी की।’ थोड़ा रुककर प्रदेश अध्यक्ष ने अपनी बात आगे बढ़ाई। बोले-‘हम विपक्ष को कोई अवसर क्यों दें। इसकी बजाए हम मंत्री जी के हाथ में झाड़ू थमाकर प्रतीकात्मक ही सहीं, उनसे झाड़ू न लगवा लें। इससे जनता के बीच एक अच्छा संदेश जाएगा कि हमारी पार्टी स्वच्छता के विषय को लेकर कितनी गंभीर है।’ 

‘ठीक है।’ शहर अध्यक्ष ने सहमत होते हुए कहा-‘लेकिन हम मंत्री जी से झाड़ू लगवाएंगे कहां।’

‘प्रगति मैदान कैसा रहेगा।’ किसी ने सलाह दी।

‘नहीं यार।’ विधायक बोले-‘जगह ऐसी हो, जहां शहर के लोग उन्हें झाड़ू लगाते देखें। प्रगति मैदान में दो-चार खिलाड़ी ही होंगे।’ 

‘सर, चिंगरीपारा कैसा रहेगा।’ वार्ड पार्षद ने अपना मुंह खोला-‘वहां बहुत गंदगी है। इसी से नाराज वहां के लोगों ने पिछले दिनों निगम का घेराव भी किया था।’ 

‘अबे, तू क्या मंत्री के सामने हमारा पाजामा उतरवाएगा जो उन्हें चिंगरीपारा ले जाने की बात कर रहा है।’ जिला अध्यक्ष ने उसे डपटते हुए कहा-‘नालायक। चिंगरीपारा की हालत देखकर मंत्री जी हमारी वो परेड लेंगे की नानी याद आ जाएगी।’ 

आखिरकार तय हुआ कि सेक्टर एरिया की किसी सड़क पर उनसे झाड़ू लगवाई जाए। ‘सेक्टर एरिया में काफी भीड़ रहती है।’ प्रदेश अध्यक्ष ने कहा-‘पिछले चुनाव में हमारी पार्टी के वोटो का प्रतिशत सेक्टर एरिया में काफी गिर गया था। इसलिए यह कार्यक्रम वहीं संपन्न कराया जाए ताकि अगले चुनाव में हमें इसका लाभ मिल सके।’ लेकिन मंत्री के आगमन पर जब उन्हें सेक्टर एरिया ले जाया गया, वहां बात फिर बिगड़ गई। निगम कमिश्नर को जब मंत्री के सेक्टर एरिया में दौरा कार्यक्रम की जानकारी मिली तो उसने पहले ही सेक्टर एरिया की सड़कों पर झाड़ू लगवा दिया था। साफ-सुथरी सड़क देखकर प्रदेश अध्यक्ष भिन्ना गया। बोला-‘यार, इतनी साफ-सुथरी सड़क पर अगर हम मंत्री जी से झाड़ू लगवाएंगे तो मीडिया हमारे कार्यक्रम का मजाक बनाकर रख देगा।’ 

‘अब क्या करें।’ किसी ने पूछा।

‘ऐसा करो।’ प्रदेश अध्यक्ष ने कार्यकर्ताओं से कहा-‘आसपास से कुछ कचरा उठाकर सड़क पर यहां-वहां फैला दो। कचरा इतना हो कि मंत्री जी जब झाड़ू लगा रहे हों तो वह मीडिया कर्मी के कैमरे में नजर आए।’ कहकर उन्होंने कार्यकर्ताओं को तत्काल काम पर जुट जाने की हिदायत दी। और वाकई कमाल हो गया। अगले दिन अखबारों में सफाई करती मंत्री जी की फोटो देख लगा रहा था, जैसे वे चिंगरीपारा की गंदगी साफ कर रहे हैं। सेक्टर एरिया में मंत्री जी के सफाई कार्यक्रम के बाद अगले कुछ दिनों तक मैं उसी मार्ग से आवाजाही करता था। अब नहीं करता। सड़क के किनारे का घूरा फिर पहले जैसा हो गया है। 

बहरहाल! और भी योजनाएं हैं। कई योजनाओं पर काम तेजी से चल रहा है। गंगा की सफाई का काम तो चल ही रहा है। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने और ब्लैक मनी वापस लाने के उपायों पर भी गौर किया जा रहा है। देश के दुश्मन नंबर वन दाऊद इब्राहिम के पाकिस्तान में छुपा होने के पक्के सबूत पहले ही जुटाए जा चुके हैं। अब इंतजार किसी शुभ मुहूर्त का है, जब उसे भारत लाया जा सके। 

कुछ और योजनाएं अंडर ट्रायल हैं। जनप्रतिनिधियों के संप्रेषण सिस्टम को समझने की कोशिश की जा रही है ताकि उसमें सुधार किया जा सके। प्रत्येक माह जनप्रतिनिधियों के गले की जांच कराने की योजना पर भी विचार किया जा रहा है जिससे यदि उनके गले में हड्डी या फांस जैसा कुछ हो तो उसके बाहर आने से पहले उसे वहीं नष्ट किया जा सके। 


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