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घर

    •  सईद खान

    अपने तंई मन को एकाग्र करने की सारी कोशिशें करके वह देख चुका था। लेकिन बाहर से आ रही नामुराद ‘घुर्र-घुर्र’ की आवाज उसे एकाग्र नहीं होने दे रही थी। उस बेसुरी आवाज से बचने सदर दरवाजे के अलावा कमरे का दरवाजा और दोनों खिड़कियां भी वह बंद कर चुका था, उसके बाद भी वह बेसुरी आवाज कमरे के भीतर तक आ रही थी और उसे बेचैन किए दे रही थी। कमरे में अब केवल एक रोशनदान ही बचा था, जो खुला रहा गया था। उसे लगा, रोशनदान बंद कर देने से शायद उस आवाज से उसे निजात मिल जाए। हालांकि रोशनदान काफी ऊंचाई पर था, लेकिन ‘घुर्र-घुर्र’ की उस आवाज से छुटकारा पाने की जिद में जैसे-तैसे मैनेज कर वह वहां तक पहुंच ही गया। लेकिन सेंट्रल टेबल के ऊपर कुर्सी और उसके ऊपर स्टूल रखकर अभी वह रोशनदान तक पहुंचा ही था कि उसकी नजर वहां बने चिड़िया के घोंसले और उसमें ची-चीं करते उसके तीन नन्हें बच्चों पर पड़ी। चिड़िया के बच्चे उसे देखकर और भी तेजी से चीं-चीं करने लगे थे। शायद डर गए थे। आदम की औलाद से पहली बार जो उनका सामना हो रहा था। जैसे आदमी के बच्चे के सामने कोई राक्षस आ गया हो। उसे लगा, रोशनदान बंद करने की उसकी एक भी कोशिश घोंसले को नुकसान पहुंचा सकती है, जो चिड़िया के बच्चों की मौत का कारण भी बन सकती है। कदाचित यह उसे यह गवारा न हुआ इसलिए रोशनदान बंद किए बिना वह नीचे उतर आया। 

    उसने कमरे में नजर डाली। पलंग पर किताबों का ढेर लगा था। ड्रेसिंग टेबल पर झूठे कप-प्लेट, केले के छिलके और कल रात उसने जो सींक कवाब खाया था, उसकी सींक पड़ी थी। तीन दिनों से कमरे को व्यवस्थित करने की ओर उसका ध्यान ही नहीं गया था। उसका पूरा ध्यान अपनी अधूरी कहानी पूरी करने में था। शाईस्ता के मायके में रहने के अवसर का भरपूर लाभ उठाते हुए वह अपनी अधूरी कहानी पूरी कर लेना चाह रहा था। लेकिन सच् यह था कि तीन दिनों में उस नामुराद आवाज से वह एक पैरा भी नहीं लिख पाया था। 

    शाम की टेÑन से शाईस्ता और आयत वापस आ रहे थे। उसने सोचा, उसके पास  अभी भी चार घंटे है। अगर मन रम गया, तो एक घंटे में ही वह कहानी पूरी कर लेगा। लेकिन कमबख्त ‘घुर्र-घुर्र’  की उस आवाज ने उसे मन को एकाग्र करने का मौका ही नहीं दिया। झुंझलाकर उसने दोनों खिड़की खोल दी। खिड़की खुलते ही ताजी हवा के साथ ‘घुर्र-घुर्र’ की आवाज बनिस्बत तेजी से उसके कानों से टकराई। 

    दरवाजा खोलकर वह बालकनी में निकल आया। आसमान पर छाए बादल और ठंडी हवा से मौसम खुशगवार हो गया था। कुछ देर बालकनी में रुककर उसने सामने खुले मैदान में नजर डाली। मकान बनाते लोगों को देखा। कहीं रेजा सिर पर र्इंट का बोझ धरे सीढ़ियां चढ़ रही थी तो कहीं कुली गारा बना रहे थे। कुछ मकानों की लिपाई-पुताई भी शुरू हो गई थी। कहीं खाली पड़े प्लाट का नाप-जोख हो रहा था तो किसी मकान के सामने खुशी से दमकते घर वालों की भीड़ लगी थी। संभवत: उनके मकान का निर्माण पूरा हो गया था और जल्द ही वे उसमें शिफ्ट होने वाले थे।

    5 साल पहले जब वह वहां रहने आया था, वहां कोई आबादी नहीं थी। चारों ओर चटियल मैदान पड़ा था। इक्के-दुक्के घर ही थे जो एक-दूसरे से काफी दूर-दूर बने थे। हाशिम की जेब अगर इससे ज्यादा किराए का घर लेने की इजाजत देती तो शाईस्ता वहां रहना कभी गवारा न करती। घर की लोकेशन देखकर उसने तो छूटते ही मना भी कर दिया था। लेकिन हाशिम की माली हालत और रिश्तेदारों की समझाईश पर उसे समझौता करना पड़ा था। ग्राउंड फ्लोर पर मकान मालिक के साथ रहने की जानकारी से भी उसका संबल बढ़ा था। 

    किचन के लिए छोड़ी गई जगह को भी अगर कमरे में शुमार कर लिया जाए तो एक बैठक और एक बेडरूम को मिलाकर कुल तीन कमरों वाले उस घर की सबसे अच्छी जगह बालकनी ही थी। हाशिम के अलावा शाईस्ता और आयत का भी ज्यादातर वक्त वहीं गुजरता। सब्जी काटने से लेकर कपड़े की तुरपाई करने और बटन टांकने जैसा सारा काम शाईस्ता वहीं करती। उसकी देखा-देखा आयत ने भी होमवर्क के लिए उस जगह को पसंद कर लिया था। मैदान में चरते गाय-बकरियों के झुंड को देखते हुए भी उसका काफी समय कट जाता था। रात को हाशिम जब आफिस से लौटता, आयत अक्सर उसे गाय-बकरियों की धमाचौकड़ी के किस्से सुनाती। कुछ गाय-बकरियों के बच्चों का तो उसने बाकायदा नाम भी रख दिया था। हाशिम को अब वह गाय-बकरियों के बच्चों के नाम के साथ उनकी हरकत बताती- वह कहती-‘आज ब्लैकी और ब्राउनी के बीच झगड़ा हो गया था...शैंकी आज पेड़ पर चढ़ गया था...ओगी और लूना ने आज खूब धमाचौकड़ी मचाई वगैरह-वगैरह।’ एक बार उसने हाशिम से कहा था-‘आज मैंने मैदान में एक कार देखी।’ उस चटियल मैदान में कार का नजर आना अचंभित करने वाली जानकारी थी। शहर के आखिरी छोर में बसा होने के कारण लोगों की उस ओर आवाजाही कम ही होती थी। खासकर जहां वह रह रहा था, उससे आगे मवेशी या परिंदे ही नजर आते थे। कार उस चटियल मैदान से बहुत दूर स्थित सड़क पर कभी-कभी ही नजर आती थी। लेकिन आयत अब अक्सर उस चटियल मैदान में कार देखे जाने की बात करने लगी थी। धीरे-धीरे उसकी बातों में गाय-बकरियों की बजाए कारों की आवाजाही का जिक्र ज्यादा होने लगा था। अब अक्सर वह कहती-‘आज उसने छह कार देखी। एक इत्ती बड़ी थी...एक ब्लू रंग की थी...एक कार से इत्तु सा भैय्या भी अपनी मम्मी के साथ आया था।’ उसकी बात काटकर हाशिम जब कभी उससे गाय-बकरियों या उनके बच्चों के बारे में पूछता कि तुम्हारे ब्लैकी और ब्राउनी का क्या हाल है, तो वह कहती-‘पता नहीं पापा, अब वो नहीं दिखते।’ 

    और सच् भी यही था। मैदान में गाय-बकरियों का झुंड रफ्ता-रफ्ता कम होता गया था। उनकी जगह मैदान में अलग-अलग रंगों की कारों की आवाजाही होने लगी थी। इसके साथ ही मैदान में जगह-जगह चूने से बनीं सफेद धारियां दिखाई देने लगी थी। फिर ट्रकों की आवाजाही शुरू हो गई थी। जगह-जगह र्इंट, गिट्टी और रेत आदि के ढेर लगने लगे थे। उसी बीच मैदान के अलग-अलग हिस्सों में खुदाई होने लगी थी और इस तरह चटियल मैदान में मकानों की तामीर का सिलसिला शुरू हुआ था जो अनवरत जारी था। हर मकान की तामीर से पहले एक दैत्याकार मशीन आती और बेरहमी से धरती की छाती चीर जाती। आदमी की चुल्लुभर पानी की जरूरत पूरी करने की यह आधुनिक तकनीक, सिक्कों के जोर पर चुल्लुभर की जगह कुंडभर पानी उलींचने का जतन कर जाती। पानी हासिल करने के पुरातन साधन ‘कुएं’ से अपनी जरूरत का पानी हासिल करने की सामुहिक परंपरा विघटित होते परिवारों के साथ ही अपना-अपना पानी लेने की एकल परंपरा में बदल गई थी। बल्कि यह कहना ज्यादा मुनासिब होगा कि घर बनाने के पहले चरण की शुरुआत ही यहीं से हो रही थी, ‘घुर्र-घुर्र’ की बेसुरी आवाज के साथ।

    आयत के लिए अब बालकनी में बैठकर अलग-अलग डिजाईन और छोटे-बड़े आकार के घरों को बनता-संवरता देखना नया शगल हो गया था। गाय-बकरियों और उनके बच्चों की बातों की जगह अब वह घरों के डिजाईन पर बात करने लगी थी। वह कहती-‘इत्ते बड़े मकान में आंगन तो है ही नहीं...उस मकान का पोर्च अच्छा है लेकिन झूले के बगैर अच्छा नहीं लग रहा है...।’ उसी बीच वह अपनी पसंद भी बता जाती-‘जब हमारा घर बनेगा न पापा, तो हम उसे सफेद रंग से रंगवाएंगे। सफेद रंग अच्छा लगता है न पापा।’ और एक दिन उसने अपने पापा से एक यक्ष प्रश्न कर डाला था-‘पापा, हमारा घर कब बनेगा।’


    ट्रेन बिल्कुल राईट टाईम पर आ गई थी। आयत की स्कूल की फीस की चिंता, काम वाली की पगार और दूधवाले का चुकारा जैसे निगार के संभावित सवालों के डर के बीच उसने चेहरे पर खोखली खुशी लपेटकर उन्हें रिसीव किया। आयत तो उसे देखते ही चहककर उससे लिपट गई थी। शाईस्ता के लगेज में इस बार एक पोर्टेबल टीवी भी था। वह जब भी बिलासपुर जाती, वहां रह गया अपनी गृहस्थी का कोई सामान जरूर साथ ले आती। जैसे तिनका-तिनका जोड़कर परिंदे अपना घोंसला बनाते हैं, वैसे ही वह बिलासपुर से एक-एक कर अपना सामान लाकर दुर्ग में अपनी गृहस्थी जोड़ रही थी। जब वे वहां शिफ्ट हुए थे, सामान के नाम पर उनके पास कपड़ों से भरा एक बैग था-बस। खाना बनाने के कुछ जरूरी बर्तन, गैस चूल्हा, गद्दे, थोड़ा राशन और पंखा वगैरह उसकी बाजी ने जुटा दिए थे। 


    एक दिन दोपहर को खाने के दौरान शाईस्ता ने उससे शिकायत की-‘तुम आयत को झूठी दिलासा क्यों दे रहे हो।’

    ‘झूठी दिलासा?’

    ‘हां, कि हमारा मकान बनेगा। उससे साफ-साफ क्यों नहीं कह देते कि हमारा मकान नहीं बन सकता।’

    ‘इससे क्या फर्क पड़ता है।’ वह बोला-‘यह कहकर कि हम मकान नहीं बना सकते, मैं उसकी उम्मीदों को धराशायी नहीं कर सकता।’

    वह उठकर बालकनी में जाकर खड़ा हो गया था। उसके पीछे शाईस्ता भी झूठे बर्तन लेकर वहां पहुंच गई थी और बर्तनों को यथा स्थान रखकर रस्सी से धुले कपड़े उतारने लगी थी। 

    हाशिम की नजरें सामने मैदान पर थी जो क्रमश: कम होते-होते पूरी तरह गायब ही हो गया था। गाय-बकरियों का झुंड और ऊंचे-ऊंचे पेड़ों को भी जैसे जमीन खा गई थी या आसमान निगल गया था। 

    उसने कनखियों से शाईस्ता की ओर देखा। वह पूरी तरह भावशून्य थी। उसने एक गहरी सांस ली। सोचा, कुछ बोलूं...शाईस्ता को हताशा के अंधे कुएं से बाहर निकाल लाऊं...उसे हंसते-गाते मुस्तकबिल के सपने दिखाऊं...। लेकिन वह कुछ भी नहीं बोल सका था। उनके बीच देर तक खामोशी पसरी हुई थी जिसे शाईस्ता ने ही तोड़ा था। रस्सी से कपड़े उतारकर तह करते हुए वह बोली-‘आज दिवाकर जी आए थे।’

    ‘दिवाकर जी, क्यों ?’

    ‘टेरेस पर बारिश का पानी जमा हो रहा था। शायद ड्रेनेज चोक हो गया था। उसे ही साफ करवाने।’

    ‘अच्छा-फिर?’

    ‘मैं दरवाजे पर ही खड़ी थी। मुझे देखकर रुक गए। कह रहे थे, कितनी तेजी से इलाके का डेवलपमेंट हो रहा है। जमीन की कीमत आसमान छू रही है। बल्कि अब तो इधर जमीन मिल ही नहीं रही है। किराए पर मकान लेने वाले भी अब इधर का ही रूख करने लगे हैं। खुद उनके पास पिछले दो दिनों में दर्जनभर लोग आ चुके हैं।’

    ‘अच्छा।’ हाशिम ने हुंकारा भरकर कहा-‘लगता है, यहां का डेवलपमेंट देखकर वे गदगद हुए जा रहे हंै। हो सकता है, उनकी मंशा किराए में इजाफा कराने की हो।’


    पोर्टेबल टीवी की झिलमिल करती बित्तेभर स्क्रीन शाईस्ता के लिए टाईम पास का बेहतरीन साधन बन गई थी। हालांकि उसे उसकी पसंद का कोई सीरियल देखने को नहीं मिल रहा था, फिर भी काम से फुर्सत पाते ही वह टीवी के सामने बैठ जाती। चाहे उस वक्त धान को कीट व्याधि से बचाने का उपाय बताया जा रहा होता या शास्त्रीय संगीत कार्यक्रम के तहत कोई राग मल्हार गा रहा होता। ‘कहानी घर-घर की’ और ‘सास भी कभी बहू थी’  जैसे सीरियल के दौर में शाईस्ता का खेती किसानी और शास्त्रीय संगीत जैसे कार्यक्रम देखना, हाशिम के लिए बिल्कुल वैसा ही था, जैसा एक बाप के लिए अपने बच्चे को खिलौनों के लिए तरसते देखना। लेकिन हाशिम के पास उसका कोई ईलाज भी नहीं था। केबल कनेक्शन के एवज ढाई सौ रुपए महीना वह किसी तरह मैनेज कर लेता लेकिन सिक्यूरिटी डिपाजिट के नाम पर एक हजार रुपए जमा करना उसके बूते के बाहर था। 

    लेकिन एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि टीवी बिल्कुल साफ दिखाई देने लगी थी। शाईस्ता का कहना था कि उसने एंटीना ठीक किया है, इसलिए टीवी एकदम साफ दिखाई देने लगी है। शाईस्ता और आयत के लिए टीवी का एकदम साफ दिखाई देना लाटरी खुलने जैसा था हालांकि कुछ दिनों बाद यह एक बड़ी तल्खी का कारण बन गया था। 

    उस दिन हाशिम जब आफिस से लौटा तो टीवी बंद थी। टीवी देखने के समय में शाईस्ता को बिस्तर पर लेटा देखकर अनिष्ट की आशंका से हाशिम का माथा ठनक गया था। उसे देखकर शाईस्ता उसके लिए खाना लगाने तो उठी लेकिन बोली कुछ नहीं। हाशिम ने ही पूछा था- ‘क्या बात है, आज टीवी नहीं देख रही हो।’

    ‘आज सुमन आई थी।’ उसकी बात का जवाब देने की बजाए शाईस्ता ने शिकायती लहजे में कहा था-‘कितना लड़कर गई है।’

    ‘अरे...क्यों ?’

    ‘तुमने उसके केबल से आलपिन चुभा दिया था ताकि टीवी साफ दिखे और मैं समझ रही थी कि मेरे एंटीना ठीक करने से टीवी साफ दिख रही है।’

    ‘तो...।’

    ‘बता तो देना था कि तुमने उसके केबल में आलपिन चुभा दिया है। मैं सतर्क रहती। उसके आने से पहले आलपिन निकाल लेती।’

    ‘लेकिन केबल में एक आलपिन चुभा देने से उसे क्या फर्क पड़ गया।’ हाशिम ने खोखला तर्क दिया। 

    ‘कह रही थी, हमारी हरकत की वजह से उनके घर की टीवी झिलमिलाने लगी है। उसके पापा की शिकायत पर केबल वाला आया था चेक करने। उसने ही आलपिन देखकर उन्हें बताया था। केबल वाले के सामने ही वह कितना सुना गई...।’  इससे आगे शाईस्ता कुछ भी नहीं बोल सकी थी। उसका गला रूंध गया था।


    अगले दिन हाशिम का वीकली आफ था। बीती रात की तल्खी से उसका मूड उखड़ा हुआ। वीकली आफ होने के बावजूद वह सुबह से ही घर से निकल गया था। शाईस्ता ने भी उससे नहीं पूछा कि आफ के दिन कहां जा रहे हो। शाम को लौटा तो सुबह की बनिस्बत उसका मूड संयमित लगा। आते ही उसने शाईस्ता से कहा-‘चलो, जल्दी से तैयार हो जाओ। आज की शाम हम बाहर बिताएंगे।’

    महीनों बाद, शाम बाहर बिताने का आफर काफी तसल्लीबख्श था। लेकिन शाईस्ता ने हाशिम के आफर को पहली बार में कोई तरजीह नहीं दी थी। उसे तैय्यार करने के लिए हाशिम को उसकी मनुहार करनी पड़ी थी। तैय्यार होते-होते उसने हाशिम से पूछा था-‘पैसे हैं जेब में, जो बाहर ले जा रहे हो।’

    ‘अरे, तुम चलो तो...।’ हाशिम ने शर्ट बदलते हुए कहा था-‘आज मैं तुम्हे बड़ा वाला झूला झुलाउंगा और बिरयानी खिलाउंगा और आयत के लिए शापिंग भी करेंगे।’

    झूला झूलने और आयत के लिए कुछ शापिंग करने के बाद शाईस्ता के चेहरे से भी बीती रात की तल्खी गायब हो गई थी। होटल में खाने के दौरान आयत से वह चुहल भी कर रही थी। अर्से बाद दोनों को मस्ती करते देखना हाशिम के लिए किसी इनआम से कम नहीं था। सच् भी है, ऊपर वाला पीठ देखकर लाठी मारता है। बीच-बीच में ऐसे अवसर देकर वह राहत की बौछार भी करता जाता है ताकि बंदे की कमर ही न टूट जाए। हाशिम सोच रहा था, ऊपर वाले ने उस पर भी आज राहत की ऐसी ही बौछार की होगी जो लंबे समय बाद वह शाईस्ता और आयत को न सिर्फ हंसते-खिलखिलाते देख रहा था बल्कि उनकी मुस्तकिल खुशी का एक और सामान भी हो गया था। 

    दरअसल, काफी समय से पत्रकारों को जमीन आवंटन की कोशिशें चल रही थी जिसपर राजस्व मंत्री की मुहर भी लग गई थी। हालांकि शाईस्ता ने उम्मीद ही छोड़ दी थी कि शासन से पत्रकारों को कभी जमीन मिलेगी भी। जमीन की बात पर वह कहती-‘मंत्री और अधिकारी पत्रकारों को उल्लू बना रहे हैं।’ यही वजह है कि खाने के दौरान हाशिम ने जब उसे जमीन मिलने की बात बताई तो एकबारगी उसे यकीन ही नहीं हुआ। अलबत्ता आयत चहक उठी थी। बोली-‘अरे वाह! मतलब अब हमारा भी घर बनेगा।’

    ‘हां बेटा।’ हाशिम ने बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा था। उतनी देर में शाईस्ता दोनों हाथ ऊपर उठाकर कुछ बुदबुदाने लगी थी। जैसे अल्लाह का शुक्र अदा कर रही हो। 

    ‘ये तो बताओ।’ घर लौटकर शाईस्ता बोली-‘आज इतने पैसे कहां से मिल गए। बड़ी दिलेरी से खर्च कर रहे थे।’

    ‘मैं तीन दिनों से जिस खबर पर काम कर रहा था, आज मैंने उसे ड्राप कर दिया।’ शर्ट उतारते हुए हाशिम बोला-‘मेरे नालायक बास को उस खबर में सिर्फ नुक्स ही नजर आ रहा था। कभी कहता, खबर की पंच लाईन ये नहीं, ये होनी थी...तो कभी फोटो का एंगल उसे बकवास लगता और कभी कहता, अधिकारी का वर्सन लेने की बजाए उससे सीधी बात करनी थी।’ 

    ‘फिर।’

    ‘फिर क्या। कल मैंने बास के कहे अनुसार पूरी खबर री-राईट किया। अधिकारी से सीधी बात भी कर लिया लेकिन बास ने आज भी खबर नहीं लगाई।’

    ‘अरे...क्यों?’

    ‘अब उन्हें मेरी खबर में मेरा स्वार्थ नजर आ रहा है।’ कल कह रहे थे-‘खबर पढ़कर ऐसा लगता है जैसे इंटेंशनली बनाई गई खबर है।’

    ‘अरे...वैसे खबर है क्या?’

    ‘सरकारी योजना के तहत गरीबों के लिए आवास बनाए जा रहे हैं, जिसमें भारी घोटाला हो रहा है। मैंने निर्माण की गुणवत्ता पर सवाल उठाया था।’

    ‘ऐसी खबर तो छपनी चाहिए।’ शाईस्ता ने उसकी खबर का समर्थन किया।

    ‘लेकिन अब वो खबर नहीं छपेगी।’ हाशिम बोला- ‘आज भी अखबार में जब खबर नहीं दिखी तो मैं सीधे ठेकेदार से जा मिला। कल खबर के सिलसिले में उससे बात हो रही थी तो उसने कहा भी था, कभी आकर मिलो तो चाय पीते हैं।’

    ‘तो ये पैसे तुम्हें उनसे मिले हैं?’

    ‘हां।’ कहकर हाशिम ने जेब से बाकी रकम निकाली और उसके हाथ पर धरते हुए बोला-‘पूरे तीन हजार थे। आज लगभग एक हजार रुपए खर्च हो गए। बाकी ये रहे। कल दूध वाले और काम वाली का हिसाब चुकता कर देना। और हां, कुछ जरूरी राशन भी ले आना। तब तक पगार भी आ जाएगी।’ 

    ‘लेकिन...।’ शाईस्ता आशंकित हो उठी। बोली-‘अब कल क्या खबर बनाओगे।’

    ‘बना दूंगा कुछ भी।’ हाशिम लापरवाही से बोला-‘नाली का पानी सड़कों पर बह रहा है या बेतरतीब वाहनों से परेशानी बढ़ी, जैसी कोई खबर।’


    अगले दिन आफिस जाने के लिए हाशिम जब नीचे उतरा तो शाईस्ता भी उसके पीछे-पीछे नीचे तक आ गई थी और उसके हाथ में दो सौ रुपए रखते हुए बोली-‘तुम कह रहे थे न कि तुम्हारी स्कूटर का बे्रक ठीक से काम नहीं कर रहा है। आज आफिस से समय निकालकर स्कूटर ठीक करवा लेना। और हां, ध्यान से जाना।’

    शाम को शाईस्ता ने आलमारी से अपनी सबसे पसंदीदा साड़ी निकाली थी। साड़ी पहनकर उसने देर तक आईने में खुद को निहारा था। उसी समय आयत भी स्कूल से आ गई थी। शाईस्ता को देखकर वह बोली-‘अरे वाह! आज तो मेरी मम्मी परी लग रही है।’ शाईस्ता ने प्यार से उसे गले लगा लिया था। आयत के कपड़े चेंज करने और उसका होमवर्क कराने के बाद दोनों बालकनी में चले गए थे। घरों की तामीर का सिलसिला बदस्तूर जारी था। यहां तक दिवाकर जी के मकान की दीवार से लगकर भी घर बनने लगे थे जिसकी वजह से बालकनी में खड़ा होना अब बेमाने होता जा रहा था। इसलिए बालकनी में अब वे कभी-कभी ही जाते थे। उनका ज्यादातर खाली वक्त टीवी के सामने गुजरता था। 

    हाशिम के आफिस से लौटने तक आमतौर पर आयत सो जाती 

    थी। लेकिन उस दिन शाईस्ता ने जैसे ही टीवी खोला, कार्टून फिल्म देखकर आयत वहीं जम गई थी। यहां तक कि शाईस्ता के बोलने पर भी नहीं उठी। उस बीच नीचे से किसी स्कूटर या मोटरसाइकिल की आवाज सुनकर शाईस्ता दो बार दरवाजे तक भी हो आई थी। शायद उसे हाशिम का इंतजार था। उसने जैसे खुद से सवाल किया था। फिर खुद ही जवाब भी दिया था। वह जानती थी, हाशिम के आफिस से लौटने का कोई वक्त तय नहीं है। अक्सर उसे अकेले ही खाना खाना पड़ता था। फिर किसके इंतजार में वह दो बार दरवाजे पर गई। शायद हाशिम का ही इंतजार है उसे। पिछले दिनों की तलखी और आज सहेजी गई उधार की खुशी ने उसे हाशिम की बेबसी का अहसास करा दिया था। हाशिम भी सुबह जाते वक्त कितने प्यार से उसे देख रहा था। शायद उसे भी उसकी परेशानी का अहसास हो गया था। 

    शाईस्ता ने एक ठंडी सांस ली और आयत के बगल में जा बैठी। टीवी में उस वक्त कोई बे्रकिंग न्यूज दिखाई जा रही थी। पिक्चर और आवाज साफ न होने के बावजूद इतना तो समझ में आ रहा था कि कहीं कोई निर्माणाधीन पुल धसक गया है। सड़क पर जगह-जगह लाशें पड़ी है। पुलिस और अस्पताल की गाड़ियां सायरन बजाते आ-जा रही है। लोग बदहवास से इधर-उधर भाग रहे हैं। आयत के पूछने पर शाईस्ता ने उसे बताया कि कोई पुल बन रहा था जो ढह गया है। कई लोग मर गए हैं। उसके बाद आयत की दिलचस्पी भी उस खबर में बढ़ गई थी। वह भी गौर से टीवी देखने लगी थी। अचानक वह बोली-‘मम्मी देखिये...बिल्कुल पापा जैसा बैग सड़क पर पड़ा है। अरे...।’ थोड़ी देर बाद वह बोली-‘देखिये...स्कूटर भी बिल्कुल पापा जैसा है...मम्मी देखिये न...मम्मी...मम्मी।’ दो तीन बार बोलने के बाद भी जब शाईस्ता ने कोई जवाब नहीं दिया तो आयत उसे झिंझोड़ते हुए बोली-‘मम्मी...मम्मी उठिये न...।’

    शाईस्ता शायद बेहोश हो गई थी। 

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