✅ एमडब्लयू अंसारी : भोपाल
भोजपुरी फिल्मों के बानी, देश रत्न, मुजाहिद आज़ादी, भारती फ़िल्म अदाकार नज़ीर हुसैन 22 मई, 1922 को पैदा हुए थे। फ़िल्मी अदाकार, हिदायतकार और मंज़र नवीस नजीर हुसैन ने हिन्दी सिनेमा में तक़रीबन 500 फिल्मों में बहुत ही अहम और कलीदी रोल अदा किया।
लाजवाब शख़्सियत और मुतास्सिरकुन आवाज़ के मालिक नज़ीर हुसैन भारत की रियासत उत्तरप्रदेश के ज़िला ग़ाज़ीपुर के गांव असया, दिलदार नगर टाऊन में पैदा हुए। उनके वालिद रेलवे गार्ड थे। नज़ीर हुसैन की परवरिश लखनऊ में हुई। उन्होंने थोड़े अर्से के लिए बर्तानवी फ़ौज में भी काम किया। बाद में वे सुभाषचंद्र बोस से मुतास्सिर होकर असया गांव के ही मुजाहिदे आज़ादी हाजी अहमद अली के साथ इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) में शामिल हो गए। दोनों असया गांव के मुजाहिदीन इंडियन नेशनल आर्मी में शामिल होकर मुल्क की आज़ादी के लिए बर्मा, सुमात्रा, मलेशिया वग़ैरा मुल्कों में रह कर मुल्क को आज़ाद कराने के लिए जद्द-ओ-जहद करते रहे जिसके नतीजे में दोनों को जेल भी जाना पड़ा, यही वजह है कि आख़िरी सांस तक दोनों में गहरी दोस्ती रही।
नज़ीर हुसैन की बॉलीवुड में जाने की एक बड़ी वजह उनकी आईएनए से वाबस्तगी थी। नज़ीर हुसैन ने भारत के बे बदल हिदायतकार बिमल राय के साथ फ़िल्म ''पहला आदमी' बनाई। ये फ़िल्म आईएनए के तजुर्बे की बुनियाद पर बनाई गई थी। बर्तानवी साम्राज्य से आज़ादी के बाद नज़ीर हुसैन को हुर्रियत पसंद क़रार दिया गया। उन्हें ज़िंदगी-भर के लिए मुफ़्त रेलवे पास दे दिया गया। उन दिनों बिमल राय और सुभाष चंद बोस आईएनए पर फ़िल्म बनाने की मंसूबाबंदी कर रहे थे। इस मक़सद के हुसूल के लिए वोआईएन ए अरकान की तलाश में थे ताकि वो उनकी मुआवनत करें।
नज़ीर हुसैन की शख़्सियत और ख़ूबसूरत आवाज़ ने बिमल राय को अपनी तरफ़ मुतवज्जा किया। ताहम नज़ीर हुसैन फिल्मों में काम करने के लिए तैयार ना थे। इसकी वजह उनका पस-ए-मंज़र फ़िल्मी नहीं था। किसी तरह उनके दोस्तों ने उन्हें फिल्मों में काम करने के लिए क़ाइल किया। ''आदमी'' 1950 में रीलीज़ हुई। उसके बाद वो बिमल राय की फिल्मों का लाज़िमी हिस्सा बन गए। करेक्टर एक्टर की हैसियत से शायक़ीन फ़िल्म ने उनकी बहुत पज़ीराई की। जिसके बाद उन्होंने अनगिनत सुपरहिट फिल्मों में काम किया। वो जज़बाती मुनाज़िर खासतौर पर फिल्मों में बाप के किरदार की वजह से बहुत मशहूर हुए।
नज़ीर हुसैन को हमेशा इस बात का रंज रहा कि भोजपुरी सिनेमा की तरक़्क़ी और नशो-ओ-नुमा देखने से पहले ही साबिक़ भारती सदर राजिंदर प्रशाद चल बसे। नज़ीर हुसैन जिस फ़िल्म में भी होते थे, अपना नक़्श छोड़ जाते थे। भारत के साबिक़ सदर राजिंदर प्रसाद से एक तक़रीब में नज़ीर हुसैन ने मुलाक़ात की। चूँकि नज़ीर हुसैन यूपी के ज़िला ग़ाज़ीपुर से ताल्लुक़ रखते थे, उन्हें जब ये इल्म हुआ कि राजिंदर प्रसाद का ताल्लुक़ भी ग़ाज़ीपुर से है, वो उनसे मिलने के लिए बे-ताब हो गए। मुलाक़ात के दौरान में उन्होंने साबिक़ भारती सदर से भोजपुरी सिनेमा के बारे में तफ़सीली बातचीत की। साबिक़ भारती सदर ने उनकी हौसला-अफ़ज़ाई करते हुए उन्हें तलक़ीन की कि वो भोजपुरी ज़बान में फिल्में बनाएँ। इस सिलसिले में उन्होंने अपने भरपूर तआवुन की भी पेशकश की। बाद में हिन्दी फिल्मों के इस एक्टर ने भोजपुरी सिनेमा की नशो-ओ-नुमा में अहम तरीन किरदार अदा किए। वो हिन्दी फिल्मों के साथ-साथ एक्टर, डायरेक्टर और स्क्रीन राइटर की हैसियत से काम करने लगे।
पहली भोजपुरी फ़िल्म ''गंगा मय्याङ्घह्णह्ण की तकमील में नज़ीर हुसैन ने जो किरदार अदा किया, उसकी जितनी तहसीन की जाए कम है। उनकी भोजपुरी फ़िल्म ''बालम परदेसिया' भोजपुरी फ़िल्मी सनअत की तारीख़ में अहम हैसियत रखती है। नज़ीर हुसैन की भोजपुरी ज़बान में फिल्में समाजी मसाइल के गिर्द घूमती थीं। उनकी फिल्मों में जहेज़ का मसला और बे-ज़मीन किसानों की मुश्किलात अहम तरीन मौज़ूआत थे। जवान लड़की के मजबूर बाप के किरदार में उनकी अदाकारी देखने से ताल्लुक़ रखती थी। उन्होंने अपनी फिल्मों में ज़ालिम ज़मीन-दारों और सरमायादारों की मक्कारियों को बे-नक़ाब किया।
आज भोजपुरी फिल्मों में इंतिहाई फूहड़पन आ गया है जिसके लिए भोजपुरी फिल्मों के कलाकार, संगीतकार सब ज़िम्मेदार हैं। जरूरत है कि भोजपुरी ज़बान की मिठास-ओ-शीरीनी और उसकी विरासत को बचाने की। भोजपुरी ज़बान और तहज़ीब-ओ-तमद्दुन में कभी फूहड़पन, घटिया किस्म की ज़बान वग़ैरा का इस्तिमाल नहीं हुआ है लेकिन आज उसके मयार में गिरावट देखने को मिल रही है, हालाँकि भोजपुरी उर्दू की तरह इंतिहाई उम्दा और मीठी ज़बान है जिससे सुनने और बोलने वालों को लज़्ज़त महसूस होती है। लेकिन ये प्यारी और उम्दा ज़बानें आज ज़वाल का शिकार हैं, जिस तरह की शफ़्फ़ाफ़ियत नज़ीर हुसैन भोजपुरी फिल्मों में छोड़कर गए थे, उसे वापस लाने की हमें और ख़ास करके भोजपुरियों को कोशिश करनी चाहिए।
बेमिसाल खूबियों के मालिक नज़ीर हुसैन 1987 में इस जहान-ए-फ़ानी से रुख़स्त हो गए लेकिन उनकी शख़्सियत तारीख़ के सफ़हात में हमेशा ज़िंदा रहेगी। उनके गांव को आज भी उनके नाम से याद किया जाता है, असया गांव में जहां एक तरफ़ नज़ीर हुसैन जैसे बेमिसल कलाकार हुए, वहीं दूसरी तरफ़ इसी मिट्टी से कई मुजाहिदीन आज़ादी भी पैदा हुए, हाल ही में गांव असया की साइमा सिराज ख़ान ने आईएएस बन कर अपने गांव का नाम रोशन किया है।
- आईपीएस, साबिक डीआईजी (छत्तीसगढ़)