✒ नई दिल्ली : आईएनएस, इंडियाअलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी को अक़लीयती दर्जा देने के मुआमले में समाअत के दौरान सुप्रीमकोर्ट ने फ़रीक़ैन (दोनों पक्षों) से कहा कि वो क़ानून में तबदीली के लिए पार्लियामेंट के हक़ को महदूद करने से मुताल्लिक़ दलील के बारे में मुहतात (सजग) रहें। सुप्रीमकोर्ट ने कहा कि इस दलील से पार्लियामेंट के क़ानून में तबदीली के हक़ को महदूद नहीं किया जाना चाहिए। हालांकि सुप्रीमकोर्ट ने एएमयू के अक़ल्लीयती हैसियत के मुआमले की समाअत के बाद अपना फ़ैसला महफ़ूज़ कर लिया है।
सुप्रीमकोर्ट के चीफ़ जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़ की क़ियादत में सात जजों की बेंच ने 8 दिन तक केस की समाअत की और फ़ैसला महफ़ूज़ कर लिया। 12 फरवरी 2019 को सुप्रीमकोर्ट ने मुआमला सात जजों की बेंच को भेज दिया था। गुजिश्ता दिनों सुप्रीमकोर्ट में एएमयू को अक़ल्लीयती इदारे का दर्जा देने की मुख़ालिफ़त करने वाली एक पार्टी की तरफ़ से दलील दी गई। एएमयू एक्ट में 1981 की तबदीलीयों को चैलेंज किया गया था और कहा गया था कि सुप्रीमकोर्ट ने अज़ीज़ बाशा फ़ैसले में अक़ल्लीयती हैसियत को ख़त्म कर दिया है। लेकिन पार्लियामेंट ने क़ानून में तबदीली करके फ़ैसले को पलट दिया और एएमयू की अक़ल्लीयती हैसियत को बहाल कर दिया। सीनीयर वकील ने दलील दी कि 1981 में की गई क़ानूनी तबदीली में फ़ैसले की बुनियाद को तबदील नहीं किया गया था बल्कि फ़ैसले को पलट दिया गया था। सीनियर वकील मिस्टर कौल ने दलील दी कि किसी भी तारीख़ी हक़ीक़त को तबदील नहीं किया जा सकता। इस पर फ़ौरी तबसरा करते हुए चीफ़ जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़ ने कहा कि सीनीयर ऐडवोकेट कौल की तरफ़ से दी गई दलील के असरात को ज़हन में रखना चाहीए। ऐसी कोई दलील नहीं होनी चाहिए जो पार्लियामेंट के क़ानून बनाने के हक़ को चैलेंज करे। ऐसी कोई दलील नहीं होनी चाहिए जिससे पार्लियामेंट के इख़तियार पर सवाल उठे।
इस पर सीनीयर ऐडवोकेट कौल ने कहा कि वो बेंच की तवज्जा इस तरफ़ मबज़ूल कराना चाहते हैं कि कई बार ऐसा हुआ है, जब पार्लियामेंट के बनाए गए क़ानून पर बेहस हुई और उसे मुस्तर्द करके उसे ग़ैर आईनी क़रार दिया गया। इस पर चीफ़ जस्टिस ने कहा कि ये सब कुछ क़ानून के तनाज़ुर में होता रहा है लेकिन उसे इतने वसीअ पैमाने पर ना लिया जाए कि पार्लियामेंट के इख़तियार पर सवाल उठे। बुध को अपने रिमार्कस में सुप्रीमकोर्ट ने कहा था कि अक़ल्लीयती इदारे के क़ौमी एहमीयत का इदारा होने से बुनियादी तौर पर कुछ भी मुताबिक़त नहीं रखता।
दरहक़ीक़त मर्कज़ी हुकूमत ने अपनी तहरीरी दलील में कहा था कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी क़ौमी नौईयत का इदारा है और उसे अक़ल्लीयती इदारा नहीं कहा जा सकता, चाहे उसके क़ियाम के वक़्त ये अक़ल्लीयती इदारा ही क्यों ना रहा हो। 1967 में सुप्रीमकोर्ट ने अज़ीज़ पाशा केस में दिए गए फ़ैसले में कहा था कि एएमयू अक़ल्लीयती इदारा नहीं है। ये फ़ैसला पाँच जजों की बेंच का था। उसके बाद 1981 में पार्लियामेंट में क़ानून में तरमीम की गई और एएमयू एक्ट एक्ट 1920 में तरमीम (सुधार) की गई और इसका अक़ल्लीयती दर्जा बहाल कर दिया गया। उसके बाद ये मुआमला इलाहाबाद हाईकोर्ट के सामने आया।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2006 में पार्लियामेंट की तरमीम को मुस्तर्द (रद्द) कर दिया और कहा कि एएमयू आईन आर्टीकल 30 के तहत अक़ल्लीयती इदारा होने का दावा नहीं कर सकता। उसके बाद हाईकोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीमकोर्ट में चैलेंज किया गया। सुप्रीमकोर्ट ने 2019 में केस को सात जजों के पास भेज दिया था। मुआमले में मौजूदा मर्कज़ी हुकूमत ने पिछली हुकूमत से मुख़्तलिफ़ राय ली है। मौजूदा मर्कज़ी हुकूमत ने कहा है कि पिछली हुकूमत को कभी भी इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2006 के फ़ैसले के ख़िलाफ़ सुप्रीमकोर्ट में अपील दायर नहीं करनी चाहिए थी। मर्कज़ी हुकूमत ने कहा कि एएमयू की अक़ल्लीयती हैसियत से मुताल्लिक़ अपनी हिमायत वापिस लेने का फ़ैसला आईनी तहफ़्फुज़ात पर मबनी है। मर्कज़ ने कहा था कि साबिक़ा (पूर्व) यूपीए हुकूमत का मौक़िफ़ (उद्देश्य) अवामी मुफ़ाद (जनहित) के ख़िलाफ़ था।