✒ एमडब्ल्यू अंसारी : भोपालजब भी हम लफ़्ज़ 'मुशायरा 'सुनते हैं, हमारे ज़हन में उर्दू के अशआर और कतआत वग़ैरा आ जाते हैं। अशआर में शोरा निहायत ही उम्दा और अदबी उर्दू का इस्तिमाल करते हैं, हर मिसरा कफ़ियाबंद होता है मतलब ये कि मुशायरा और उर्दू ज़बान का बहुत गहिरा ताल्लुक़ है। यानी मुशायरा का इनइक़ाद, मतलब उर्दू के फ़रोग़ का प्रोग्राम।
इन दिनों जगह-जगह मुशाएरों का इनइक़ाद हो रहा है। भारत का शायद ही कोई शहर हो, जहां मुशायरा का इनइक़ाद ना हो रहा हो। शुमाली भारत में तो मुशाएरों की एक तरह से बाढ़ सी आ गई है। बंबई, बुरहानपुर, भोपाल, लखनऊ और दीगर जहां कहीं भी नुमाइश, मेला वग़ैरा का सरकारी प्रोग्राम होता है, वहां मुशायरा ज़रूर होता है। उम्मीद यही है कि इन महफ़िलों से उर्दू ज़बान का फ़रोग़ होगा, उर्दू ज़बान परवान चढ़ेगी और आम लोगों में उर्दू के तंईं बेदारी पैदा होगी।
जब भी किसी महफ़िल के मुंतज़मीन महफ़िल मुशायरा कराते हैं, यक़ीनन उनकी नीयत उर्दू के फ़रोग़-ओ-बका की होती है। उर्दू को परवान चढ़ाने के लिए ख़ूब मेहनत भी इस महफ़िल के हवाले से की जाती है लेकिन अफ़सोस तब होता है, जब उर्दू के नाम पर मुनाक़िद बज्म में उर्दू को महज़ सुर्ख़ी के लिए इस्तिमाल किया जाता हे। प्रोग्राम के इर्द-गिर्द लगे बैनर, पोस्टर यहां तक कि स्टेज फ्लेक्स पर भी उर्दू को महज हेडलाइन बना कर छोड़ दिया जाता है। ऐसे में उर्दू के फ़रोग़ के नाम-लेवा अगर अपनी ही ज़बान को हाशिए पर रखेंगे तो दीगर लोगों से क्या उममीद की जा सकती है कि वो उर्दू ज़बान में दिलचस्पी रखेंगे।
जब हम अपने निजी प्रोग्राम्स में अपनी मादरी ज़बान, जिसे हम भारत की बेटी और हिन्दी की बहन और भारत की ज़बान, जो भारत की हर भाषा को अपने ख़ाक-ए-लहद भारत को एक मुहब्बत के धागे में बाँधे हुए है, हम ख़ुद ही इस भारत की बेटी और मादरी ज़बान का ये हश्र करेंगे तो हुकूमत से क्या तवक़्क़ो की जाए कि सरकार के ज़ेर-ए-एहतिमाम होने वाले प्रोग्राम में वो अपने बैनर पर उर्दू को जगह देंगे। हम किसी भी सियासी पार्टी से कैसे गिला करें कि उन्होंने अपने जारी करदा इश्तिहारात में सभी ज़बानों का इस्तिमाल किया लेकिन उर्दू को नदारद रखा।हम शहरी इंतिज़ामीया से कैसे दरख़ास्त कर सकते हैं कि वो चौराहे, स्टैंड और स्टेशन का नाम उर्दू में भी लिखें।;
यक़ीनन ये तभी होगा, जब हम अपनी मादरी ज़बान उर्दू को वो एहमीयत देंगे, जो भारत के दीगर खित्तों में उनकी अपनी मादरी ज़बान को दी जाती है।
थोड़ा सा वक़्त मुख़तस करके उर्दू के मसले मसाइल और उनके मसलों पर गुफ़्तगु करेंगे तभी शायद सही माअनों में हम उर्दू के फ़रोग़ में मुआविन बनेंगे। हमें अपने प्रोग्रामों में उर्दू की बका-ओ-फ़रोग़ की बात करनी होगी, उर्दू असातिज़ा की तक़रीरी, जो मुल्क के मुख़्तलिफ़ सूबों में नहीं हो रही है, बल्कि जान-बूझ कर नहीं की जा रही है, इस तरह के मदऊ पर गुफ़्तगु करनी होगी। उर्दू के तंई हुकूमत का रवैय्या जगज़ाहिर है। हमें उर्दू के मसले, मसाइल पर बेहस भी करनी होगी क्योंकि उर्दू भारत की बेटी है, उर्दू ही भारत है और भारत ही उर्दू है। जब तक उर्दू का रस्म-उल-ख़त इख़तियार करने पर-ज़ोर नहीं दिया जाएगा, उर्दू में निसाब की किताबें तलबा को मुहय्या नहीं कराई जाएगी, साईंस एंड टेक्नोलोजी, मैथ्स वग़ैरा जब तक उर्दू का फ़रोग़ हो नहीं सकता। उर्दू निसाब की किताबों की तबाअत नहीं हो रही है, उर्दू असातिज़ा, मुदर्रिसा बोर्ड और दीगर उर्दू से मुताल्लिक़ इदारों को माली तआवुन नहीं मिल रहा है। इसलिए हमें अपनी आवाज़ को ऐसे प्लेटफार्म और मंचों से बुलंद करनी होगी।