29 जिल हज्ज, 1444 हिजरी
मंगल, 18 जुलाई, 2023
अकवाले जरीं‘जो चीज सबसे ज्यादा लोगों को जन्नत में दाखिल करेगी वह खौफ-ए-खुदा और हुस्ने अखलाख है।’
- तिर्मिजी
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रियाद : आईएनएस, इंडिया बहीरा अहमर (लाल सागर) की तारीखी शोहरत सदीयों पुरानी है। तारीख की किताबों में इसके तजकिरे मिलते हैं। इन साहिलों (किनारों) पर एक मशहूर मुकाम पर जद्दा इस्लामी बंदरगाह है, जो अपनी मजहबी सरगर्मियों के अलावा हाजियों के इस्तिकबाल के इकतिसादी (आर्थिक) पहलू के बाइस दीगर बंदरगाहों से मुनफरद (अलग) और मुमताज मुकाम रखता है।
ये बंदरगाह सऊदी अरब की बरामदात और दरआमदात (इम्पोर्ट और एक्सपोर्ट) के लिए भी पहली बंदरगाह है, क्योंकि ये आलमी जहाजरानी के रास्तों पर अपने जुगराफियाई महल की वजह से एहमीयत का हामिल है क्योंकि ये तीन बर्र-ए-आजमों (खाड़ी देशों) एशिया, यूरोप और अफ्रÞीका को जोड़ता है। ये बंदरगाह तीन बर्र-ए-आजमों के दरमयान बहरी तिजारत का अहम रास्ता रहा है।
मक्का मुकर्रमा के मगरिबी (पश्चिमी) दरवाजा बंदरगाह की एक भरपूर और तवील तारीख है। ये बंदरगाह तिजारती गेट-वे होने की वजह से एहमीयत का हामिल है। यहां से हाथी दांत, मोर के पर, संदल की लकड़ी, लोबान, सुनहरे कपड़े, मसाले, महोगनी की लकड़ी और दीगर चीजें बहरी जहाजों पर लादकर दूसरे इलाकों को भेजी जाती थीं। माअर्रिख (इतिहासकार) अदनान इलियाफी कहते हैं कि जददा मक्का मुकर्रमा के लिए एक बंदरगाह और इसमें आने वाले आजमीन (तीर्थयात्रियों) के लिए एक क्रासिंग प्वाईंट था। उनका कहना है कि जद्दा की तारीख के बारे में मुस्तनद मुसादिर में चौथी सदी हिज्री के दौर के एक सय्याह (पर्यटक) अल मकदसी की किताब ‘अहसन अल तिकासीम फिल लाकालीम’ में मौजूद तफसीलात से जददा बंदरगाह की एहमीयत का अंदाजा होता है। फाजिल मुसन्निफ ने लिखा कि जद्दा कदीम जमाने से बहीरा अह्मर, जिसे पुराने जमानों में बहीरा कुलजुम कहा जाता था, के एतराफ में वाके ममालिक के दरमयान एक क्रासिंग प्वाईंट था। अबदुल्लाह अलांदलसी ने अपनी किताब ‘मोअज्जम मा इस्ताजम’ में लिखा कि जद्दा साहिल मक्का है। उसी मुनासबत से इस बंदरगाह की एहमीयत इस्लाम के जहूर के बाद बढ़ गई।
जद्दा इस्लामी बंदरगाह की एहमीयत उस वक़्त नुमायां हुई, जब तीसरे खलीफा उसमान बिन उफान रजी अल्लाह अन्हा के दौरे खिलाफत में अल शईबा बंदरगाह के बजाय जद्दा बंदरगाह को मक्का मुअज्जमा की बंदरगाह करार दिया गया। सातवीं सदी ईसवी में जददा को हज और उमरा जाइरीन की आमद-ओ-रफत के लिए मुखतस बंदरगाह करार दिया। इलियाफी लिखते हैं कि मक्का के ताजिर मगरिब की तरफ जद्दा से हब्शा और दीगर अफ्रÞीकी ममालिक की तरफ सफर करते थे। वो जुनूब में यमन और दीगर ममालिक के सफर के लिए उसका इस्तिमाल करते। जहूर इस्लाम से कबल जद्दा बंदरगाह एक स्ट्रैटजिक जखीरा के लिए तिजारती गोदाम का दर्जा रखती थी।
उन्होंने मजीद कहा कि जददा को उस वक़्त बहुत ज्यादा एहमीयत हासिल हुई, जब उसमान बिन उफान ने अपनी खिलाफत के दौरान अलशईबा की बजाय जद्दा को बंदरगाह करार रिया। हजरत उसमान खुद यहां आए। उसके पानी में गुसल किया। उस वक़्त इस समुंद्री हिस्से को बहर अर्बईन कहा जाता था। उसी दौर में जो 661 ईसवी से 750 ईसवी तक जारी रहा, जद्दा मक्का मुकर्रमा के साथ मुंसलिक था।
अब्बासी दौर में जब तामीराती सरगर्मियों में इजाफा हुआ तो मस्जिद हराम की तौसीअ भी की गई। अब्बासी खलीफा मह्दी के दौर में शाम और मिस्र से संग-ए-मरमर मक्का लाए गए जिन्हें मस्जिद हराम में इस्तिमाल किया गया। ममलूक दौर में जददा ने मजीद तरक़्की की और ये एक बैन-उल-अकवामी बंदरगाह बन गया। यहां से खलीज अरब, भारत और चीन को तिजारती काफिले रवाना होते हैं।
उन्होंने मजीद कहा कि जददा को उस वक़्त बहुत ज्यादा एहमीयत हासिल हुई, जब उसमान बिन उफान ने अपनी खिलाफत के दौरान अलशईबा की बजाय जद्दा को बंदरगाह करार रिया। हजरत उसमान खुद यहां आए। उसके पानी में गुसल किया। उस वक़्त इस समुंद्री हिस्से को बहर अर्बईन कहा जाता था। उसी दौर में जो 661 ईसवी से 750 ईसवी तक जारी रहा, जद्दा मक्का मुकर्रमा के साथ मुंसलिक था।
अब्बासी दौर में जब तामीराती सरगर्मियों में इजाफा हुआ तो मस्जिद हराम की तौसीअ भी की गई। अब्बासी खलीफा मह्दी के दौर में शाम और मिस्र से संग-ए-मरमर मक्का लाए गए जिन्हें मस्जिद हराम में इस्तिमाल किया गया। ममलूक दौर में जददा ने मजीद तरक़्की की और ये एक बैन-उल-अकवामी बंदरगाह बन गया। यहां से खलीज अरब, भारत और चीन को तिजारती काफिले रवाना होते हैं।