शाअबान अल मोअज्जम, 1446 हिजरी
﷽
फरमाने रसूल ﷺ
"आदमी के इस्लाम की खूबियों में से ये खूबी है के वो बेमकसद और फ़ुज़ूल काम छोड़ दें।"
- तिर्मिज़ी
✅ एमडब्ल्यू अंसारी : भोपाल
सरज़मीन हिंद पर अक़्वाम आलम के फ़िराक़,
क़ाफ़िले बसते गए, हिंदुस्तां बनता गया।
फ़िराक़ गोरखपुर की इबतिदाई तालीम घर पर हुई और उन्होंने उर्दू फ़ारसी और संस्कृत ज़बान में कामिल उबूर हासिल किया। इबतिदाई तालीम हासिल करने के बाद फ़िराक़ इलाहाबाद चले गए। 1918 में सिविल सर्विसेज़ का इमतिहान पास किया मगर मुलाज़मत नहीं की। इसके बाद वतन की जद्द-ओ-जहद में लग गए और जेल की सऊबतें बर्दाश्त कीं। 1930 में आगरा यूनीवर्सिटी से अंग्रेज़ी मज़मून में एमए किया और इलाहाबाद यूनीवर्सिटी में मुअल्लिम मुक़र्रर हुए और यहीं से वज़ीफ़ा हुस्न-ए-ख़िदमत पर रिटायर हुए।
फ़िराक़ गोरखपुरी उर्दू और अंग्रेज़ी अदब का वसीअ मुताला रखते थे। वो जदीद उर्दू ग़ज़ल के इमाम थे। फ़िराक़ का शुमार उर्दू के उन शाइरों में होता है, जिन्होंने बीसवीं सदी में उर्दू ग़ज़ल को एक नया रंग और आहंग अता किया। उनके शायरी मजमुए में रूह कायनात, शबिस्तान, रम्ज़-ओ-किनायात, ग़ज़लिस्तान, रूप ''रुबाई'', शोला साज़, पिछली रात, मशाल और गुल-ए-नग़्मा वग़ैरा के नाम काबिल-ए-ज़िक्र हैं। फ़िराक़ गोरखपुर की ख़ानगी ज़िंदगी बहुत पर सुकून नहीं थी, बावजूद इसके फ़िराक़ ने उर्दू ज़बान-ओ-अदब की जो ख़िदमात अंजाम दी हैं, उन्हें कभी फ़रामोश नहीं किया जा सकता। उनकी गिरां क़दर ख़िदमात के लिए ही उन्हें सबसे पहला ज्ञान पीठ ऐवार्ड दिया गया था।
उर्दू हिन्दोस्तान की वो ताक़तवर ज़बान है, जो पूरे भारत के मुख़्तलिफ़ खित्तों को आपस में जोड़ने का काम कर रही है, नफ़रत की आंधी में मुहब्बत की शम्मा जलाए हुए है, उसी उर्दू ज़बान को आज इस मुल्क में ताअस्सुब का निशाना बनाया जा रहा है। सियासी पार्टियों का तास्सुब, उर्दू के तईं ग़ैरों में नफ़रत का माहौल पैदा करना है। आज हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि हम उर्दू को मिटने से बचाएं। इसलिए कि मौजूदा वक़्त में तो उर्दू बोलने, लिखने और जानने वाले मौजूद हैं लेकिन आने वाली नसल को अगर हमने ये तहज़ीबी सरमाया मुंतक़िल नहीं किया तो आने वाली नसल उर्दू को भूल जाएगी और क़सूरवार हम सब होंगे।
यहां ये बात काबिल-ए-ज़िक्र है कि उर्दू का पहला बाक़ायदा शायर चंद्रभान ब्रहमन था और आज भी साहित्य अकेडमी आफ़ इंडिया उर्दू मुशावरती बोर्ड का जो सरबराह है, वो चंद्रभान ख़्याल हैं। ज़रूरत इस बात की है कि संस्कृत से निकलने वाली तेरहवीं ज़बान, जिसे हम उर्दू के नाम से जानते हैं, उसकी बका के लिए काम किया जाए। उर्दू असातजा की तक़र्रुरी हो, कालेज में उर्दू, अरबी और फ़ारसी डिपार्टमेंट खोले जाएं, उर्दू निसाब की किताबें ख़ास कर साईंस, मैथ्स, बायोलाजी, टेक्नोलोजी वग़ैरा की किताबें तलबा को मुहय्या कराई जाएं। ये हुकूमत की ज़िम्मेदारी है।
हुकूमतें चाहे जिस पार्टी की हो, वो उर्दू के तईं तास्सुबाना रवैय्या इख़तियार किए हुए हैं और जान-बूझ कर अपने काम की ज़िम्मेदारी नहीं निभा रही हैं। उर्दू की बका-ओ-फ़रोग़ के लिए जो इदारे क़ायम हैं, उन्हें बंद किया जा रहा है, जैसा कि हाल ही में राजिस्थान उर्दू अकेडमी को बंद कर दिया गया, इसी तरह जहां-जहां भी इदारे क़ायम हैं, उन्हें सरकारी ग्रांट नहीं मिल रही है, जिससे ये इदारे उर्दू की बका-ओ-फ़रोग़ के लिए काम नहीं कर पा रहे हैं।
तमाम मुहिब्बाने उर्दू को एक प्लेटफार्म पर आकर, एक साथ कंधे से कांधा मिला कर उर्दू की बका-ओ-फ़रोग़ के लिए आवाज़ बुलंद करनी होगी।
बे-शक फ़िराक़ गोरखपुर ने उर्दू ज़बान की जो ख़िदमात की हैं, वो नाक़ाबिल फ़रामोश हैं। उनकी ख़िदमात के एतराफ़ में हकूमत-ए-हिन्द ने उन्हें पद्म भूषण और ज्ञान पीठ जैसे गिरां क़दर एज़ाज़ात से भी नवाज़ा लेकिन आज वही प्यारी ज़बान जो रग्घू पत सहाय फ़िराक़ की दिल की ज़बान थी, का वजूद ख़तरे में है। प्यारी ज़बान भारत की बेटी उर्दू के वसीअ दामन को तंग करने की कोशिशें की जा रही हैं। उर्दू के साथ जो सौतेला सुलूक हमारे मुल्क भारत में हो रहा है यक़ीनन आज फ़िराक़ गोरखपुर हयात होते तो उन्हें बहुत तकलीफ़ होती। उर्दू ने फ़िराक़ गोरखपुर, बुज्र नारायण चकबस्त, आनंद नारायण मुल्ला, जगन्नाथ आज़ाद जैसे हज़ारों शोरा, नावेल निगार, उदबा को पूरी दुनिया में मुतआरिफ़ कराया।
एक मुद्दत से तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गए हों, तुझे ऐसा भी नहीं।