क्या है इसराईल-फलीस्तीन विवाद की जड़

✅ नई तहरीक 

बीसवीं सदी के शुरूआती दौर में यूरोप में आबाद यहूदियों की बड़ी तादाद इम्तियाजी सुलूक से परेशान थी नतीजतन उन्होंने यूरोप से निकलर फलस्तीन का रूख किया। तब फलीस्तीन पर ओटोमन का राज था। फलीस्तीन में ज्यादा आबादी अरबों की थी। मजहबी एतबार से भी फलीस्तीन की अपनी खासियत थी। इसकी एक बड़ी वजह शहरे यरुशलम था जो मुस्लिमों के अलावा यहूदियों और ईसाई मजहब के लिए भी यकसां खासियत रखता था। यूरोप से फलीस्तीन पहुंचने वाले यहूदी बाद में अपने लिए एक नए मुल्क की मांग करने लगे। सहीफों (धार्मिक ग्रंथों) का हवाला देकर वे ये दावा करते थे कि फलस्तीन उनकी जमीन है। फलीस्तीन में यहूदियों की बढ़ती आबादी अरब लोगों के साथ उनके तसादुम (टकराव) की वजह बनीं। प्रथम विश्व युद्ध में ओटोमन हुकूमत को हार मिली नतीजतन फलस्तीन का इलाका ब्रिटेन के कब्जे में चला गया। बाद में फ्रांस और ब्रिटेन की जानिब से मिडिल ईस्ट का बंटवारा किए जाने से यहूदी और अरबों के बीच तनाव और बढ़ गया। 

हिटलर का किरदार

पहली आलमी जंग (प्रथम विश्व युद्ध) के बाद यहूदियों की बड़ी तादाद ने यूरोप से अमेरिका, जुनूबी अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस के अलावा फलस्तीन का रूख किया। यूरोप से यहूदियों की हिजरत 1933 में एडोल्फ हिटलर के जर्मनी का तानाशाह बनने के साथ ही परवान चढ़ गई। हिटलर के दौरे हुकूमत में यहूदियों पर इतना जुल्म हुआ कि उन्हें मजबूरन अपना मुल्क छोड़कर भागना पड़ा। ज्यादातर यहूदियों ने इजराइल का रूख किया। उनके हिसाब से इजराईल उनकी मजहबी अराजी (भूमि) थी यही वजह थी कि उनकी बड़ी तादाद ने फलीस्तीन की ओर हिजरत की। 
    हिटलर की दौरे हुकूमत में तकरीबन 60 लाख यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया गया था। तब पोलैंड और जर्मनी से लेकर फ्रांस तक में यहूदियों की अच्छी-खासी आबादी थी। लेकिन आखिरकार हिटलर के जुल्मो सितम से परेशान होकर उन्हें अपने वतन से निकलना पड़ा। एक अंदाजे के मुताबिक हिटलर से परेशान होकर 1922-26 में फलीस्तीन का रूख करने वाले यहूदियों की तादाद करीब 75 हजार थी।  

और बढ़ता गया इजराइल-फलस्तीन तनाजा

अरबों और यहूदियों के बीच पहले से ही तनातनी थी जो दूसरे आलमी जंग के बाद उनके नए मुल्क की मांग के साथ और बढ़ गई। बढ़ते तनाजा को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र को 1947 में फलस्तीन को यहूदियों और अरबों के लिए अलग-अलग देश बनाने मतदान करवाना पड़ा। इसके साथ ही यूएन ने ये भी वाजेह कर दिया था कि येरुशलम की हैसियत एक बैनुल अकवामी शहर की ही रहेगी। यूएन की ये वजाहत यहूदियों के लिए खुशी का सबब बनीं तो दूसरी ओर अरबों के बीच इस फैसले को लेकर काफी गुस्सा देखा गया। नतीजा यह हुआ कि यूएन का ये करारदाद कभी अमल में नहीं आ सका।  1948 में बरतानिया के फलस्तीन से जाने के बाद यहूदी नेताओं ने 14 मई 1948 को खुद ही इजराइल के कयाम का ऐलान कर दिया। यहूदियों की जानिब से इस कदम की खबर लगते ही फलस्तीन की जानिब से जॉर्डन, मिस्र, ईराक और सीरिया ने इजराईल पर हमला कर दिया। हमले में फलीस्तीन के लिए लड़ने वाले मुल्कों को हार का सामना करना पड़ा। यही वो जंग थी जिसे इजराइल-फलस्तीन की पहली जंग कहा जाता है। इसके बाद अरबों के लिए एक छोटी सी जमीन तय की गई जो वेस्ट बैंक और गाजा कहलाई। इजराईल इन दोनों के बीच आता है। वहीं, यरुशलम शहर को मगरिब और मश्रिक में बांट दिया गया जहां इजराईल के अलावा जॉर्डन काबिज था। साल 1967 में एक बार फिर फलस्तीन और इजराइल के बीच जंग हुई। इस बार इजराइल ने और भी ज्यादा तेजी से फलीस्तीन पर हमलावर होकर फलीस्तीन वेस्ट बैंक और गाजा हिस्सों पर कब्जा जमा लिया। हालांकि बाद में उसने गाजा स्ट्रिप को खुद ही छोड़ दिया। उधर मश्रिक यरुशलम भी इजराइल के कब्जे में आ था और फलस्तीनी सिर्फ वेस्ट बैंक और गाजा स्ट्रिप में ही सिमटकर रह गए थे। 


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