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रमजान उल मुबारक के शब-ओ-रोज : कुरआन व हदीस की रोशनी में

- गुफरान साजिद कासिमी

रमजान उल मुबारक के शब-ओ-रोज : कुरआन व हदीस की रोशनी में

फजीलत रमजान

माह मुबारक रमजान दरअसल उम्मत मुहम्मदिया के लिए अल्लाह की जानिब से एक खुसूसी इनाम है जिसके जरीया उम्मत मुहम्मदिया को दीगर तमाम उम्मतों पर फजीलत और फौकियत बखशी गई है। रमजान की अजमत व फजीलत के लिए इतना ही काफी है कि अल्लाह ने अपनी मुकद्दस किताब को इसी माह-ए-मुबारक में नाजिÞल किया। अल्लाह के रसूल () शिद्दत से रमजान के मुबारक महीने का इंतिजार किया करते थे और माह-ए-रजब के आगाज के साथ ही बकसरत ये दुआ पढ़ा करते थे : ‘ए अल्लाह! हमारे लिए रजब और शाबान बाबरकत बना दे और हमें रमजान नसीब फरमा।’ 
    रमजान एक ऐसा मुबारक महीना है जिसमें सालभर की तमाम इबादतें यकजा हो जाती हैं। इसीलिए हुक्म दिया गया है कि रमजान में इंसान तमाम आमाल खैर कसरत से करे, रमजान में जहां एक तरफ इन्सान रोजा रखे वहीं इसे तिलावत कुरआन का भी खूब एहतिमाम करना चाहीए, फर्ज और सुन्नत नमाजों के अलावा नवाफिल भी कसरत से पढ़े। गरीबों, मुहताजों और बे-कसों का खास ख़्याल रखे, सदका, जकात और दीगर रकूम से उनकी खूब मदद करे ताकि वो भी अच्छे अंदाज से इस माह-ए-मुबारक को गुजार सकें। रिश्तेदारों और पड़ोसियों के साथ खैरखाही और भलाई का मुआमला करे, इफतार के वक़्त जहां अपने और अपने अहिल-ए-खाना के इफतार का इंतिजाम करे वहीं गुंजाइश के ब कदर पड़ोसियों, रिश्तेदारों, मुसाफिरों और गरीब व नादार के इफतार का भी इंतिजाम करे, नमाज तरावीह और तहज्जुद का एहतिमाम करे, आखिरी अशरा में एतिकाफ में बैठे और दूसरों को भी एतिकाफ में बैठने की तरगीब दे। गरज ये कि रमजान से कब्ल ही रमजान के शब-ओ-रोज का एक निजामुल अवकात तैयार कर ले। 

सहरी खाना

रोजा की इब्तिदा सहरी से होती है। हजरत अबू कैस ने हजरत उमर बिन अल आस से रिवायत किया कि रसूल अल्लाह () ने फरमाया कि हमारे और अहल-ए-किताब के रोजों में सहरी खाने का फर्क है। अल्लाह के रसूल () ने सहरी की बरकात व फजाइल बहुत बयान किए हैं, इसीलिए हर इन्सान की कोशिश होनी चााहए कि वो सहरी तर्क ना करे, खाह एक खजूर ही क्यों ना हो। अल्लाह के रसूल () ने सहरी को मुबारक नाशतादान से ताबीर किया है। ‘हजरत अरबाज बिन सारिया () बयान करते हैं कि एक दफा रमजान में रसूल अल्लाह (ने मुझे अपने साथ सहरी खाने के लिए बुलाया और फरमाया कि आईये, मुबारक नाशतादान के लिए। 

रोजा रखना

रोजा एक ऐसी इबादत है, जो इन्सान को बुराई और फह्हाशी में मुबतला होने से बचाती है। बाअज लोगों ने ‘तक़्वा’ का तर्जुमा ‘लिहाज’ से किया है। यानी हर काम के वक़्त ये लिहाज रखा जाए कि हम जो भी कर रहे हैं, वो अल्लाह की मर्र्जी के लिहाज से है और उसकी इताअत व फरमां बर्दारी के लिहाज से है। यानी हर काम के वक़्त हमें अल्लाह की मर्र्जी का लिहाज रखना चाहिए। हमें हलाल व हराम की तमीज होनी चाहीए, रोजा की हालत में इन चीजों की ऐसी मश्क हो जाती है कि ये हमारी फितरत सानिया बन जाए, गुनाहों से इजतिनाब, मासियत से परहेज, गीबतगोई और गुस्से से इस तरह परहेजगार हो जाएं कि ये हमारी फितरत बन जाए और जिसका असर रमजान के बाद भी हमारी जिंदगी में वाजेह तौर पर दिखाई दे। 

नमाजों की पाबंदी करना

नमाज तो इन्सान की जिंदगी का फर्ज अव्वलीन है। हर काम से पहले नमाज का एहतिमाम इन्सान की रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल है, लेकिन रमजान में नमाजों का बिलखसूस एहतिमाम करना चाहिए। रमजान में नवाफिल पढ़ने का सवाब फर्ज के बराबर और फर्ज का सवाब सत्तर गुना बढ़ा दिया जाता है।

तिलावत-ए-कुरआन 

रमजान और कुरआन का आपस में बड़ा गहरा ताल्लुक है, क्योंकि दीगर आसमानी सहाइफ के साथ अल्लाह ने कुरआन करीम को भी रमजान के मुबारक महीना में ही लौह-ए-महफूज से दुनिया पर नाजिÞल किया और फिर अल्लाह ने अपने महबूब () पर कुरआन की पहली सूरत को भी रमजान में ही नाजिÞल किया। रमजान की वो रात जिस में कुरआन नाजिÞल हुआ, कुरआन ही की तसरीह के मुताबिक शब-ए-कदर है। मौलाना शब्बीर अहमद उसमान रहमतुल्लाह अलैहि ने मजकूरा आयत की वजाहत में लिखा है कि हदीस में आया है कि हर रमजान में हजरत जिबरईल अलैहि अस्सलाम कुरआन नाजिलशुदा आप () को मुकर्रर सुना जाते थे, इन सब हालात से महीना रमजान की फजीलत और कुरआन मजीद के साथ उसकी मुनासबत और खुसूसीयत खूब जाहिर हो गई, इसलीए इस महीने में तरावीह मुकर्रर हुई, पस कुरआन की तिलावत इस महीना में खूब एहतिमाम से करनी चाहिए कि इसी वास्ते मुकर्रर और मुईन हुआ है। 

सदका खैरात, खैरखाही और गमगुसारी करना

रमजान में हर इन्सान की पूरी कोशिश होनी चाहीए कि वो सदका खैरात करने का खूब एहतिमाम करे, अपनी वुसअत भर रमजान के मुबारक महीना में गरीबों, नादारों और मुहताजों की जरूरीयात को पूरा करने की कोशिश करे। आप () का मामूल था कि जो कुछ भी कहीं से हदिया व तहाइफ आते, सब को उसी वक़्त मुहताजों और जरूरतमंदों में तकसीम कर देते, जिस मजलिस में जो कुछ आता, आप मजलिस से उठ भी ना पाते थे कि तमाम माल जरूरतमंदों तक पहूंच जाता था। 

इफतार कराना

हजरत सलमान बिन आमिर रदि अल्लाहो अन्हो से रिवायत है कि नबी अकरम () ने फरमाया : जब तुम में से किसी का रोजा हो, तो वो खजूर से रोजा इफतार करे, क्योंकि इसमें बरकत है। अगर खजूर ना पाए तो फिर पानी से ही इफतार कर ले, इसलिए कि पानी निहायत पाकीजा चीज है। आप () का मामूल था कि वो हमेशा तर खजूरों से रोजा इफतार फरमाते थे। 

नमाज तरावीह-ओ-तहज्जुद की पाबंदी करना

हर मुस्लमान को चाहिए कि वो रमजान की रातों में नमाज तरावीह के बाजमाअत पढ़ने का एहतिमाम करे। हजरत अबू हुरैरा रदी अल्लाह अन्हो से रिवायत है कि आप () ने फरमाया कि जो शख्स ईमान और तलब सवाब की नीयत से रोजा रखे, उसके पिछले गुनाह बखश दिए जाते हैं, और जो शख़्स ईमान और इखलास के साथ रमजान में इबादत करे, उसके गुजिशता मआसी माफ कर दिए जाते हैं, इसी तरह जो शख़्स ईमान व इखलास से शब-ए-कद्र में इबादत करे, उसके भी पिछले गुनाह माफ कर दिए जाते हैं।

एतिकाफ

अहादीस और रवायात की रोशनी में फुकहा ने लिखा है कि रमजान उल मुबारक के आखिरी अशरा का एतिकाफ सुन्नत मोअक्कदा है। ये सुन्नत चंद इलाकों में और चंद मस्जिदों में महदूद हो रही है और मुस्लमानों की बहुत कम तादाद इस सुन्नत को जिंदा रख रही है। जरूरत इस बात की है कि इस सुन्नत मोअक्कदा की खूब इशाअत हो और मुस्लमानों की काबिल लिहाज तादाद हर इलाका में एतिकाफ का एहतिमाम करे।

शब-ए-कद्र की तलाश

अल्लाह ताला ने कुरआन-ए-करीम को रमजान की एक ऐसी रात में नाजिÞल किया जिसकी फजीलत हजार महीनों से ज्यादा है। वो रात कोई और नहीं कदर की रात है जिसे उर्फ़-ए-आम में ''शब-ए-कद्र'' कहते हैं। इसमें हमें ज्यादा से ज्यादा इबादत करनी चाहीए।

तौबा और इस्तिगफार

इन्सान की मगफिरत, बखशिश और जहन्नुम से छुटकारा पाने के लिए रमजान से बेहतर कोई महीना नहीं है। इस महीना में जहां हम दीगर नेक आमाल के जरीया अपने नामा-ए-आमाल में नेकियों का जखीरा करते हैं, वहीं हमें चाहीए कि हम इस माह-ए-मुबारक में अपने रब से अपने लिए मगफिरत और बखशिश तलब करे। अपने रब के हुजूर गिड़गिड़ाएं और अपने गुनाहों की माफी मांगें। गुनाहों के बख्शवाने के लिए रमजान से बेहतर कोई महीना नहीं है।

सदका-ए-ईदुल फितर

रमजान का महीना जब हमसे रुखस्त होने लगता है तो इस की खुशी में हम अपने रब की बारगाह में शुक्राना अदा करने के लिए दो रकात नमाज पढ़ते हैं जिसे हम ईद-उल-फित्र कहते हैं। नमाज अदा करने से पहले हमें सदका-ए-ईदुल फित्र अदा करने का हुक्म दिया गया है।



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