गोसेवक स्वतंत्रता सेनानी वली मोहम्मद, जिनकी रिहाई की वजह बना 'बापू का सपना'

गोसेवक स्वतंत्रता सेनानी वली मोहम्मद

महात्मा गांधी के शहीदी दिवस पर विशेष, गांधी गोरकापार से लेकर
डौंडीलोहारा तक मौजूद है गोसेवक स्वतंत्रता सेनानी वली मुहम्मद की गाथा

मुहम्मद जाकिर हुसैन : भिलाई

    छत्तीसगढ़ की धरा सामाजिक समरसता वाली रही है। यहां हमेशा से धार्मिक व सामाजिक सद्भाव की भावना जनमानस में रही है। यहां तक कि ब्रिटिशकालीन भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी हमारे छत्तीसगढ़ में सामाजिक समरसता के ऐसे कई पुरोधा हुए हैं, जिन्होंने छत्तीसगढ़ की इस पहचान को और मजबूत किया। ऐसे ही स्वतंत्रता सेनानी थे, गौसेवक वली मुहम्मद। 
    वे आजादी के एक ऐसे सिपाही थे, जिन्होंने महात्मा गांधी से प्रभावित होकर अंग्रेज सरकार की रसूखदार नौकरी को एक पल में त्याग दिया और आजीवन बापू के बताए रास्ते पर चलते रहे। आजादी के संघर्ष में तीन बार जेल जाने और अंग्रेज सरकार की यातनाओं को सहने वाले गोसेवक स्व. वली मुहम्मद के साथ सुखद संयोग यह भी जुड़ा हुआ है कि एक मरतबा अंग्रेजों की जेल से उनकी रिहाई की वजह 'बापू का सपना' बना। 
    स्व. वली मुहम्मद का महात्मा गांधी के प्रति आत्मीय लगाव होना भी अपने आप में एक अनूठी घटना थी। ऐसी तमाम घटनाओं का जिक्र दुर्ग से बदरुद्दीन कुरैशी के संपादन में 1995 में निकाली गई किताब 'आजादी के दीवाने' और फरवरी 2020 में जगदीश देशमुख द्वारा लिखित छत्तीसगढ़ के 'भूले बिसरे स्वतंत्रता सेनानी' में बेहद विस्तार से है। शहादत दिवस 30 जनवरी के मौके पर आईए जानते हैं, जीवन पर्यंत बापू के आदर्शों पर चलने वाले गोसेवक स्वतंत्रता सेनानी स्व. वली मुहम्मद के योगदान की कहानी।
गोसेवक स्वतंत्रता सेनानी वली मोहम्मद


शुरूआती दिन और गोसेवा के प्रति अनुराग 

    स्व. वली मुहम्मद का जन्म रायपुर के बैजनाथ पारा में 3 जून 1895 को हुआ। उनके पिता दीन मोहम्मद ग्राम निपानी टिपानी (दुर्ग जिला) से आकर यहां बसे थे। वहीं से वली मुहम्मद ने स्कूल की पढ़ाई की। कुछ दिनों बाद वली मुहम्मद के पिता दीन मोहम्मद डौंडीलोहारा में आकर बस गए और जमीदार के घर नौकरी करने लगे। राष्ट्रभक्ति तथा देश प्रेम का जज्बा वली मुहम्मद को उनके दादा-दादी से मिला था। घर में पलते गोवंश से उन्हें विशेष अनुराग था। युवावस्था में जब वे कमाने खाने के नाम से काली माटी (टाटानगर) गए तो वहां गोवंश की हत्याओं से द्रवित हो उठे। उन्होंने तब कुछ पंक्तियां अपनी नोटबुक में लिखी थी, जो इस तरह से है : -

गैया रोई-रोई करत पुकार, मोर प्राण बचा लो हरि
मुझे कसाई करत हलाल, जरा भी नहीं डरते चांडाल 
खुश हो कर खींचे खाल, मोर प्राण बचा लो हरि....

    वहां गोवंश की इन हत्याओं से बेहद द्रवित व दुखी वली मुहम्मद टाटानगर में ज्यादा दिन नहीं रह सके और अपने घर लौट आए। यहां उन्होंने पटवारी की परीक्षा दी और 1920 में अमीन पटवारी के पद पर ग्राम गोरकापार तहसील गुंडरदेही में पदस्थ हो गए। तब अमीन पटवारी होना बेहद रुतबेदार पद माना जाता था। यहां शासकीय सेवा करते हुए उन्होंने गो सेवा का बीड़ा उठाया और लोगों को गौ सेवा के लिए प्रेरित करते रहे।  

अंग्रेजों की नौकरी छोड़ बन गए गांधीवादी

    उपलब्ध दस्तावेज के मुताबिक 1920-21 में जब वली मुहम्मद पटवारी के तौर पर गुंडरदेही के गांव गोरकापार में पदस्थ थे, तब एक आदिवासी को उसकी गुम भैंस का पता किसी धोती वाले बूढ़े ने बताया था। जब आदिवासी उस बूढ़े को धन्यवाद देने के लिए उन्हें खोजने लगा, तब वली मुहम्मद ने उसके बताए हुलिए के आधार पर महात्मा गांधी का फोटो दिखाया। आदिवासी ने उस बूढ़े के तौर पर महात्मा गांधी की शिनाख्त कर दी। इस घटना से वली मुहम्मद इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अंग्रेजों की यह रसूखदार नौकरी छोड़ दी और महात्मा गांधी उनके नेता हो गए। 

पहली जेल यात्रा और गांव के नाम से ऐसे जुड़ा गांधी 

    स्वतंत्रता सेनानी वली मुहम्मद की पहली जेल यात्रा और वहां से रिहाई का एक रोचक किस्सा भी बहुत सी किताबों में दर्ज है, जिसके मुताबिक असहयोग आंदोलन के दौर में उन्हें नागपुर जेल में रखा गया था। इस दौरान उन्हें ग्राम गोरकापार की एक संत प्रवृत्ति की महिला महात्मा दाई सपने में उन्हें बड़ा व सोंहारी देते हुए बोली कि जन्माष्टमी पर तुम्हारी रिहाई हो जाएगी। इस घटना का रोचक पहलू यह है कि महात्मा दाई ने प्रत्यक्ष तौर पर यह बात गोरकापार गांव के लोगों को भी बताई थी कि पटवारी वली मुहम्मद जन्माष्टमी के दिन रिहा हो जाएंगे। वाकई ऐसा हुआ भी। 
    जब अंग्रेजों की कैद से रिहा होकर वली मुहम्मद गोरकापार पहुंचे तो उनका खूब स्वागत हुआ। इसके बाद वली मुहम्मद ने महात्मा दाई से मुलाकात की और उनसे अपने सपने के बारे में बताया। इस पर महात्मा दाई ने कहा कि उन्हें सपने में आकर बापू ने कहा था। इसके बाद से आसपास गांव में मशहूर हो गया कि महात्मा दाई को स्वप्न में आकर महात्मा गांधी निर्देश देते हैं। धीरे-धीरे चर्चा बढ़ी तो आस-पास के तमाम स्वतंत्रता सेनानी गोरकापार पहुंच कर महात्मा दाई और वली मुहम्मद से निर्देश लेने लगे। इसके बाद से इस गांव का नाम गांधी गोरकापार हो गया। 

डौंडीलोहारा रहा कर्मक्षेत्र

    स्वतंत्रता सेनानी वली मुहम्मद ने बाद के दिनों में डौंडी लोहारा को अपना कर्मक्षेत्र चुना। दस्तावेजों के मुताबिक डौण्डीलोहारा जमींदारी में उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के लिए लोगों को एकजुट किया और लगभग 100 लोगों ने उनके साथ जेल यात्रा की थी। उनके प्रमुख सहयोगी बालोद के स्व. सरजु प्रसाद वकील रहे है। वहीं कुटेरा के स्व. कृष्णा राम ठाकुर और भेड़ी गांव के स्व. रामदयाल ने उनसे प्रेरणा लेकर जंगल सत्याग्रह में भाग लिया था। देश की आजादी के बाद वे गोसेवा करने के साथ-साथ सामाजिक जन जागरूकता में भी बेहद सक्रिय रहे। डौंडीलोहारा राज परिवार की प्रतिनिधि रानी झमित कुंवर देवी और उनका मां और बेटे जैसा स्नेह था। स्वतंत्रता के बाद आम चुनाव में जब रानी झमित कुंवर देवी को विधानसभा की टिकट मिली तो वली मुहम्मद ने उन्हें जिताने में दिन-रात एक कर दिया और अंतत: रानी झमित कुंवर देवी विजयी रही। इस विजय के बाद लोहारा राज परिवार में वली मुहम्मद के प्रति स्नेह और प्रगाढ़ हो गया। 
    डौंडी लोहारा में स्व. वली मुहम्मद की ख्याति एक सिद्ध नाड़ी वैद्य के तौर पर भी रही। डौंडी लोहारा और आसपास के तमाम गांव में उनसे उपचार करवाने वालों की कतार लगी रहती थी। इसी तरह जनसेवा करते हुए 24 जुलाई 1957 को स्वतंत्रता सेनानी वली मुहम्मद ने 62 साल की आयु में डौंडी लोहारा में आखिरी सांस ली। स्थानीय कब्रिस्तान में उनकी कब्र पर आज भी लोग फूल चढ़ाते हैं और उनसे प्रेरणा लेते हैं। 

स्वतंत्रता आंदोलन में रहे मुखर, कई बार की जेलयात्रा

    वली मुहम्मद स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान बेहद मुखर रहे। उनके वंशजों के पास मौजूद दस्तावेज के मुताबिक अंग्रेजी राज के विरोध के चलते 7 मार्च 1923 को उन्हें गिरफ्तार कर नागपुर जेल भेज दिया गया। वहां से उन्हें 23 जुलाई 1923 को अकोला नागपुर में स्थानांतरित कर दिया गया। इसी तरह 23 अक्टूबर 1939 से 14 नवंबर 1939 तक उन्हें रायपुर की केंद्रीय जेल में रखा गया। अंतिम बार सन 1943 से 1945 तक पूरे दो साल तक उन्हें नागपुर जेल में कैद कर रखा गया। देश आजाद होने पर स्वतंत्रता आंदोलन में उनके इस विशिष्ट योगदान के लिए महाकौशल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी जबलपुर के सभापति सेठ गोविंददास के हस्ताक्षर युक्त एक ताम्रपत्र 15 अगस्त 1947 को प्रदान किया गया। जो आज भी वली मुहम्मद के वंशजों के पास एक धरोहर के तौर पर रखा है। 

शिलालेख पर अंकित है नाम

    स्वतंत्रता सेनानी वली मुहम्मद के गुजरने के बाद देशवासियों ने उनका योगदान समय-समय पर याद किया। वर्ष 1997 में जब देश में स्वतंत्रता की 50 वीं वर्षगांठ मनाई गई तो स्व. वली मुहम्मद का नाम डौंडी लोहारा के शिलालेख में अंकित किया गया। डौंडीलोहारा में तब से हर साल राष्ट्रीय पर्व के अवसर पर स्व. वली मुहम्मद की फोटो राष्ट्रीय नेताओं के साथ ससम्मान रखी जाती है। वहीं उनके वंशजों का भी सम्मान किया जाता है।

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