नई दिल्ली : उदयपुर के बाशिंदे फिरकावाराना इत्तिहाद में अपने एतिकाद की कसम खाते हैं और इस बात को यकीनी बनाने के लिए पुरअज्म हैं कि हाल ही में दो मुकामी मुस्लमानों के जरीये दर्जी कन्हैया लाल के कत्ल से वो तकसीम नहीं हुए हैं।
50 साल से ज्यादा अर्से से उदयपूर में मुकीम बुजुर्ग शहरी विलास जानवे का कहना है कि वो तमाम मजहबी इत्तिहाद और हम-आहंगी (समन्वध्) के हक में हैं। वो कहते हैं कि लोगों को मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप से मुतास्सिर होना चाहिए, उनके पास एक मुस्लमान जरनैल हाकिम खान था, जो नसली एतबार से एक पशतून था। हकीम खान ने 18 जून 1576 को हल्दी घाटी की लड़ाई में मुगल फौज के खिलाफ महाराणा प्रताप की फौज की कियादत की और अपनी जान का नजराना पेश किया। जानवे, जो वेस्ट जोन कल्चरल सेंटर (डब्लयूजेडसीसी) से प्रोग्राम आॅफीसर के तौर पर रिटायर हुए, कहते हैं कि खित्ते की तारीख 16वीं सदी से शुरू होती है, ये इस एतिमाद की याददहानी है] जो उस बहादुर हुकमरान को अपने जनरल पर था, जो कि शेरशाह सूरी की औलाद से एक जरनैल था।
उन्होंने पूरी जिंदगी उसपर भरोसा किया और आने वाली नसलों के लिए फिरकावाराना इत्तिहाद की एक मिसाल कायम की। उदयपर में महाराणा प्रताप की यादगार में हकीम खान का मुजस्समा नसब है। जानवे एक स्टेज आर्टिस्ट हैं और उनका कहना है कि ड्रामा निगारों को फिरकावाराना इत्तिहाद (सांप्रदायिकता एकता) को बरकरार रखने और मजहबी दुश्मनी को खत्म करने के लिए ड्रामे के स्टेज पर गौर करना चाहिए। वो कहते हैं, पुरअमन बकाए बाहमी के लिए जरूरी है कि मंतकी (तार्किक) सोच और खुला जहन हो, वर्ना मुल्क टूट जाएगा। उन्होंने कहा कि थिएटर में बहुत से मुस्लमान मुबय्यन, गुलाम नूर खान पठान और उनके बेटे इशफाक नूर खान पठान जैसे तालिब-इल्म हैं। उन्होंने मुझसे अदाकारी सीखी। अशफाक ने मेरी हिदायत कारी में बनने वाले ड्रामे में स्वामी विवेकानंद का किरदार भी अदा किया था। थिएटर से उनकी वाबस्तगी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वो दाढ़ीवाले होने के बावजूद वो क्लीन शेव आदमी का किरदार अदा कर के बहुत खुश थे। जैसा कि भारतीय लोक कला मंडल के डायरेक्टर लायक हुसैन कहते हैं कि उन्होंने हिंदू मुस्लिम के चश्मे से दर्जी के वहशयाना कतल को नहीं देखा। लायक हुसैन, डब्लयूजेडसीसी में भी कहते हैं कि ये मेरा पुख़्ता यकीन है कि इन्सानियत से बड़ा कोई मजहब नहीं है।
नामवर नेशनल स्कूल आफ ड्रामा के साबिक तालिबे इल्म, लायक 35 सालों से उदयपुर में रह रहे हैं। वो कहते हैं कि में 30 घरों की कॉलोनी में रहने वाला वाहिद मुस्लमान हूँ। इसका मतलब है कि मेरे 140 से ज्यादा पड़ोसी हैं जो गैर मुस्लिम हैं लेकिन मुझे नहीं लगता कि मैं अकल्लीयत में हूँ। मैं 15 साल से अपने खानदान के साथ वहां रहता हूँ। मेरे हिंदू भाईयों और बहनों ने हमेशा मेरी इज्जत की है और मुझे कभी तकलीफ नहीं दी। मैं दिन में पाँच वक़्त नमाज पढ़ता हूँ और रोजा रखता हूँ। मेरी बीवी एक हिंदू है। रमजान के बाद ईद पर हमारे हाँ हमेशा मेहमान आते हैं। मेरी बीवी पड़ोसी और हमदर्द हर एक के लिए शानदार खीर बनाती है। हम अपने तमाम पड़ोसीयों को होली और दीवाली पर मदऊ (आमंत्रित) करते हैं। हम अपने नुक़्ता-ए-नजर में सेक्यूलर हैं और आपको मेरे घर में कुरान-ए-पाक, रामायन और भगवत गीता मिलेगी। मैंने तमाम मजहबी किताबों का मुताला किया है और इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि पैगाम एक ही है। जानवे को अपनी मुस्लमान बहू अफरा शफीक पर फखर है जो एक मशहूर डीजाइनर हैं। उनका कहना है कि ये बहुत बदकिस्मती की बात है कि कन्हैया लाल का कत्ल किया गया। वो कहती हैं कि वो एक अच्छे दर्जी के तौर पर जाना जाता था। लोग उसे बजट टेलर कहते थे। उसके कत्ल से उदयपुर में खौफ-ओ-हिरास का माहौल है। यौमिया उजरत कमाने वाले सबसे ज्यादा मुतास्सिर हैं। वो काम की तलाश में कहीं नहीं जा सकते। आम जिंदगी ठप है। अश्या-ए-जरुरीया का हुसूल मुश्किल है। सर कलम करने के वाके के बाद इबतिदाई पर 24 घंटों के लिए इंटरनेट खिदमात मुअत्तल कर दी गई थीं, लेकिन अब भी आसानी से काम नहीं कर रही हैं।
चित्तौड़गढ़ में अजीम प्रेम जी फाउंडेशन के साथ काम करने वाले 30 साला उस्ताद मुबय्यन का कहना है कि उदयपुर में जो कुछ हुआ, बहुत गलत और अफसोसनाक है। उदयपुर में पैदा हुए और परवरिश पाने वाले मुबय्यन कहते हैं कि वहां ऐसी ताकतें हैं जो फिकार्वाराना तकसीम पैदा करने की कोशिश कर रही हैं। ये वो वक़्त है, जब हमें एक पुरअमन कम्यूनिटी की तामीर के लिए इकट्ठा होना चाहिए। हमारी मुख़्तलिफ शनाख़्त और मुख़्तलिफ मुफादात हो सकते हैं, लेकिन हमें तकसीरीयत (बहुलतावाद) की हौसला-अफजाई करनी चाहिए।