- सईद खान
पिछले कुछ दिनों से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में यके बाद दीगर पेश आने वाले हादसे, दरअसल मुल्क की एक बड़ी आबादी को सबक दिए जा रहे हैं, (अगर वो आबादी सबक लेना चाहे)। यहां बात किसी एक कौम की नहीं बल्कि एक बड़ी आबादी की हो रही है, उस आबादी की, जो मजहब को अपने मुल्क और संविधान पर तरजीह नहीं देती, जो मजहब को घर को चहारदीवारी तक महदूद रखती है और कभी जब अपने मजहब की पहचान के साथ किसी से मिलती भी है तो उस मिसाल में रूह फूंक देती है जिसे गंगा-जमुनी तहज़ीब कहा जाता है, वो तहज़ीब जो सदियों से हिंदूस्तान की पहचान है और इसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बनाती है। उस आबादी को ईद की सेवंईयां और दीपावली के खील बताशे से कोई परहेज नहीं, न इस बात से कोई सरोकार कि किसका ांडा कितना ऊंचा लहरा रहा है। कोई मजहब इस बात की ताकीद भी तो नहीं करता कि अपनी लकीर बड़ी करने के लिए दूसरे की लकीर छोटी कर दी जाए।
ये मजहब ही तो है, जो आदमी को तिल-तिल संस्कारित करता है, पल-पल सींचता है और जीवन के ांाावतों से जूाने के लिए उसे संबल देता है। ये मजहब ही तो है, जो आदमी के आदि मानव से आधुनिक मानव बनने के सफर में अब तक अहम किरदार निभाए जा रहा है। कभी सोचा है आपने, कि आखिर संस्कार क्या है, वो आते कहां से हैं। सोचकर देखिए...।
सोचिए... कि ईद की सेवंईयांं और दीपावली के खील बताशे खाते हुए क्या कभी कड़वाहट महसूस हुई है, एक-दूसरे को उनके पर्व की बधाई देते हुए गले मिलने या हाथ मिलाने के दौरान क्या कभी सीने में जलन हुई है, एक-दूसरे की दुकानों से अपनी जरूरत का सामान खरीदते समय क्या कभी मन में पल भर के लिए भी एक-दूसरे के अहित का ख़्याल आया है। नुक्कड़ के ठेले पर एक-दूसरे के साथ चाय सुड़कते या कार्पोरेट आफिस में काम के दौरान एक-दूसरे की मदद लेते हुए क्या कभी अपनी जात को लेकर ‘मैं ऊंचा, तू नीचा’ का गर्व या मलाल का बोध हुआ है..., हुआ है क्या..., नहीं न...। हो भी नहीं सकता, क्योंकि हमारी रगों में सदियों से ‘वसुदेव कुटुम्बकम’ के संस्कार जो बोए जा रहे हैं, हमारी रगें एक-दूसरे का, उनके पर्वों, उनके व्यक्तिगत सम्मान, उनकी मान्यताओं और उनके संपूर्ण व्यक्तित्व के सम्मान की नसीहत से सिंचित की जाती रही है। जिसके नतीजे में एक ऐसे मुल्क की तस्वीर जहन में खिंच जाती है, जिसे देख अल्लामा इक़बाल की कलम बरबस ही चल पड़ती है : ‘सारे जहां से अच्छा, हिंदूस्तां हमारा...’ और ये हिंदूस्तान ही है, पूरी दुनिया का अकेला ऐसा मुल्क, जिसकी विशेषता सिर्फ इस एक जुमले ‘अनेकता में एकता...’ में निहित है।
फिर अचानक ऐसा क्या हो गया, मुल्क की जन्नतनुमा फिजा में जहर क्यों घुलने लगा।
ज़रा सोचिये...
कौन हैं वो लोग जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की फिजा में जहर घोलने का काम कर रहे हैं। क्या वो, नुक्कड़ की चाय दुकान पर साथ बैठकर चाय सुड़कने या सिगरेट का कश लेने वाले लोग हैं। क्या इन लोगों ने कभी अजान, हिजाब या हलाल गोश्त पर बात की है, मजहब के किसी सिस्टम को लेकर एतराज जताया है। कभी मजहबी मामलों पर छींटाकशी की है।
नुक्कड़ की चाय दुकान या बाजार में खरीददारी करने वालों की भीड़ से तो कभी अजान या हनुमान चालीसा की बात नहीं निकलती। न साथ काम करने वाले कभी इसे मुद्दा बनाते नजर आते हैं। नुक्कड़ की चाय दुकान तो दूर, बाजार की भीड़ में भी आपको कोई हिंदू-मुसलमान नहीं मिलेगा। हिंदू-मुसलमान केवल राजनीतिक गलियारों में पाए जाते हैं। वहीं से पता चलता है कि हिंदूस्तान में केवल हिंदूस्तानी नहीं, हिंदू और मुसलमान रहते हैं। वहीं से आवाज उठती है कि हिंदूस्तान खतरे में है। वहीं से हिंदूस्तानियों के जहन में सांप्रदायिकता का ज़हर घोला जाता है। जहर घोलकर वो खुद तो सेफ जोन में चले जाते हैं, हजारों नवजवान दंगे की आग में ाुलस जाते हैं, गरीबों की ोपड़ी और उनके रोजगार जमीदोश हो जाते हैं।
जहां मुल्क की खुशहाली और तरक्की पर बात की जानी चाहिए। वहां से आवाज आती है, अजान बंद होनी चाहिए। हालांकि उनके कानों में अजान का लफ्ज़ ‘अ’ भी कभी नहीं पहुंचता होगा। हिजाब पर एतराज भी स्कूल मैनेजमेंट की जानिब से उठा होगा, सोचना गलत है। खुले में नमाज, हलाल गोश्त, चेक वाली लुंगी, जालीदार टोपी, चार बीवी, बारह बच्चे वगैरह-वगैरह, कहां से उछाले जाते हैं, ये जुमले। और क्यों जरूरत पड़ती है, ये फिक्र करने की कि ‘मुसलमान क्या कर रहा है, क्या पहन रहा है, क्या खा रहा है, क्या ओढ़ रहा है, क्या बिछा रहा है, कितनी शादियां कर रहा है, कितने बच्चे पैदा कर रहा है और किस रंग की लुंगी और टोपी पहन रहा है’ आदि-इत्यादि।
दरअसल ये सारे जुमले मुसलमान से जुडेÞ हैं, और ये जो लफ्ज मुसलमान है, येन-केन कुर्सी हथियाने और ऊल-जुलूल बयानबाजी कर खबरों में बने रहने वाले नेताओं के लिए हमेशा तुरुप का इक्का साबित हुआ है। ये मुसलमान लफ्ज़ की ही बरकत है कि इससे जुड़ा कोई भी लफ्ज़ उच्चारित करते ही हाशिये में पड़ा लीडर (और कलाकार... और मजहबी रहनुमा भी) खबरों की सुर्खियां बन जाते हैं। हालत ये है कि ज्यादातर लीडर्स की मानसिकता, भ्रष्टाचार, अशिक्षा, गरीबी और विकासपरक मुद्दों से परे सिर्फ एक कौम, मुसलमानों के इर्द-गिर्द सिमटकर रह गई है। मुसलमानों के खिलाफ बयानबाजी करने को ही सियासत समाने वाले नेताओं की तादाद को देखते हुए, मुमकिन है कि अगर कोई किसान आत्महत्या न करे, डीजल, पेट्रोल और आलू-प्याज के दाम न बढ़ें तो दोनों सदनों में बहस का मुद्दा भी मुलसमान ही हो। हो सकता है कि तकरीर का एक अध्याय भी इसी लफ्ज ‘मुसलमान’ पर आधारित हो। हालांकि हिंदूस्तान में अब तक ऐसी कोई धार्मिक किताब चलन में नहीं है, जो ‘औरत’ को रेप की धमकी देने पर आधारित हो। अब तक तो तमाम हिंदूस्तानी ग्रंथ ‘यत्र नारी पूज्यते’ की नसीहत करने वाले हैं।
सवाल है कि आखिर हिजाब से अचानक चिढ़ क्यों होने लगी। क्या वो लड़कियां इसी साल से हिजाब पहनने लगी थीं या वो स्कूल इसी साल शुरू हुआ है। मस्जिदों से लाउड स्पीकर पर अजान का सिलसिला क्या अभी शुरू हुआ है। इससे पहले लाउड स्पीकर पर अजान नहीं दी जाती थी। हलाल गोश्त की दुकानें क्या अभी-अभी ही लगने लगी है। मंदिरों के सामने मुसलमान ताजिर क्या इसी साल से दुकान लगा रहे हैं, आखिर क्या वजह है कि राम नवमी के जुलूस पर पथराव के मामले भी इसी साल सुनने में आए। जबकि इससे पहले के सालों में रामनवमी के जुलूस का मुस्लिम मआशरे की जानिब से न सिर्फ इस्तकबाल किए जाने की खबरें आती थी बल्कि जुलूस में शामिल लोगों में सांप्रदायिक सद्भाव भी देखा जाता था। आखिर क्यों इस एक साल के दौरान फिरकावाराना सोच परवान चढ़ी है।
हर रोज नुक्कड़ की चाय दुकान पर आपके साथ चाय सुड़कने या सिगरेट का कश लेने वाले अभी भी साथ बैठकर चाय का घूंट और सिगरेट का कश ले रहे हैं, अभी जबकि कई जगह से फिरकावाराना फसादात की खबरें आ रही है, दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके के सी ब्लाक की तकरीबन एक किलोमीटर लंबी गली में सदियों से हिंदू-मुसलमान साथ-साथ रह रहे हैं, अभी जबकि हाल ही में रामनवमी के जुलूस के दौरान वहां दंगे भड़क उठे थे, अभी भी हिंदू-मुसलमान के घर एक-दूसरे से चिपककर सीना ताने खड़े हैं। मिश्रा जी के घर के बिल्कुल सामने मस्जिद है तो खान साहब के घर से लगी मंदिर है। वहां अभी भी सुबह-शाम आरती और अजान की आवाज सुनी जा सकती है। वहां के लोगों का कहना है, यहां कोई हिंदू-मुसलमान नहीं रहता, यहां सिर्फ ‘हम’ रहते हैं। ये नजारा है, उस गली का, जहां हाल ही में दंगे भड़क उठे थे। क्योंकि वहां कोई हिंदू-मुसलमान नहीं रहता। हिंदू-मुसलमान गलियों, नुक्कड़ और बाजार में नहीं पाए जाते, ये कौम (हिंदू-मुसलमान) केवल राजनीतिक गलियारे में पाई जाती है।
सवाल है कि अगर मस्जिदों से लाउडस्पीकर निकाल दिए जाएं, तो क्या फर्क पड़ जाएगा। क्या मुल्क धूल रहित हो जाएगा। बारिश अपने वक्त पर होगी और उतनी ही होगी जितनी जरूरत है। लड़कियां हिजाब न पहनें तो क्या सड़कों पर जाम नहीं लगेगा। पेट्रोल 50 रुपए में दो लीटर मिलने लगेगा, सरकारी दफ्तरों में आम आदमी के साथ वीआईपी की तरह ट्रीट किया जाएगा और सरकारी कर्मचारी, अधिकारी फटाफट उसका काम कर देंगे। और लाउड स्पीकर पर अजान देने का सिलसिला इसी तरह चलता रहा तो क्या नुकसान हो रहा है या होगा। क्या गरीबी और बढ़ जाएगी। किसानों की समस्याओं का कोई हल नहीं निकल पाएगा। भ्रष्टाचार और परवान चढ़ेगा। और...इस पर ऊर्जा खपाने की बजाए कि लाउड स्पीकर पर अजान क्यों दी जा रही है, लड़कियां हिजाब क्यों पहन रही हैं, मुसलमान चेक वाली लुंगी और जाली वाली टोपी क्यों पहन रहा है, ये तस्लीम कर लेने से क्या नुकसान होगा कि ये हमारे देश की खूबसूरती है, ये दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र की पहचान है।
जरा उस लम्हे पर भी गौर करें, जब 1947 में देश आजाद हुआ था। आजादी की सूचना मिलने के साथ ही देश का सबसे बड़ा और चिंताजनक बहस का मुद्दा क्या था। मुसलमान ही न। यानी देश 2 सौ साल की गुलामी की जंजीरों से तो मुक्त हो गया, उस चिंता से भी मुक्त हो गया, जो उस वक्त देश के सामने थी। लेकिन देशवासी, खासकर मुल्क के रहनुमा अब भी उसी चिंता में घुले जा रहे हैं। उन्हें लगता है कि मुसलमान, भ्रष्टाचार से भी बड़ा मुद्दा है। इसलिए उसी पर बात की जाए और उसी पर चिंतन-मनन किया जाए। उनके हिसाब से मुसलमानों के खिलाफ बयानबाजी देश की दशा और दिशा सुनिश्चित करने का सुगम मार्ग है। यह खबरों में बने रहने का भी बेहतरीन जरिया है। और सच्चाई भी यही है। अगर मुद्दा ‘मुसलमान’ न हो तो बेशतर नेता हाशिए में ही पड़े रह जाएं।
1947 में विभाजन के दौरान मुसलमानों के पास खुला आप्शन था। चाहते तो हिंदूस्तान के सभी मुसलमान पाकिस्तान चले जाते। लेकिन सभी नहीं गए। जिन्हें जाना था, वो ही गए। बाकी ने यहीं रहना मंजूर किया। क्यों। यहां रह जाने वाले मुसलमानों के सामने क्या कोई मजबूरी थी। या कोई इत्तेफाक था, जो वे यहां रह गए। नहीं। न कोई इत्तेफाक था न कोई मजबूरी। यहां रहने वाले मुसलमानों ने यहां रहने का आप्शन खुद चुना। क्योंकि उनका मानना था कि यह उनके पुरखों का देश है। इसलिए अपनी कौम के हजारों लोगों को पाकिस्तान जाता हुआ देखने के बाद भी उन्होंने यहीं रहना पसंद किया। उनका ये फैसला ही भारत के लोकतांत्रिक देश होने की बुनियाद बना। इसलिए इस पर ऊर्जा खपाने की बजाए कि मुसलमान किस रंग की लुंगी पहन रहा है, क्या इस मुद्दे पर ऊर्जा खपाना उचित नहीं होगा कि गरीब के मेधावी बच्चों को अच्छी तालीम कैसे मिले। वर्षा और अवर्षा की मार से जूा रहे किसानों को कैसे राहत पहुंचाई जाए। ऐसा माहौल कैसे बनें कि बलात्कार की भावना ही मन में न जन्मे। शहरों को धूल रहित कैसे किया जाए। सरकारी अस्पतालों में गरीब मरीजों को निजी अस्पतालों की तरह ट्रीट मिले। मोहल्ले के नुक्कड़ और नालियां गंदगी रहित हो। ये बुनियादी जरूरतें हैं, जिसके अच्छी, सुलभ और आदर सहित हासिल होने का ख्वाब हर नागरिक देख रहा है। नागरिकों को जब उनका बुनियादी हक अच्छा, सुलभ और आदर सहित मिलने लगेगा तो देश की तरक्की और खुशहाली के मार्ग अपने आप प्रशस्त हो जाएंगे।
सोचो... अच्छे दिनों के लिए कुछ अच्छा सोचो।
आखिर में...
कल बातचीत के दौरान मेरे एक पड़ोसी मुासे कह रहे थे, ‘वो जो ऊंची-ऊंची मीनारों में बड़े-बड़े चोंंगे लगे हैं, उन्हें निकाल देना चाहिए।’ मैं सोच में पड़ गया। अजान की आवाज मेरे घर तक नहीं भी नहीं आती है। पड़ोसी का घर मेरे घर से दो और घर आगे हैं। शाम को इफ्तार के वक्त मुो अपने घर के टैरेस पर एक बच्चे को खड़ा करना पड़ता है ताकि वह अजान की आवाज सुनकर बताए और हम इफ्तार कर सकें। इसके बावजूद कई बार हमें वक्त के हिसाब से इफ्तार करना पड़ता है। क्योंकि टैरेस पर भी बहुत हल्की आवाज आती है। कई बार तो जरा भी आवाज सुनाई नहीं देती। ऐसे में पड़ोसी को अजान से क्या तकलीफ हो सकती है भला। ऐसा भी नहीं कि किसी मस्जिद के आसपास से गुजरते हुए उन्हें अजान की आवाज सुनाई देती हो। पड़ोसी अपाहिज हैं और पूरे दिन घर पर ही पड़े रहते हैं।
मतलब साफ है, ऊंची कुर्सी पर बैठे रहनुमा जो जहर बो रहे हैं, वह जड़े पकड़ने लगा है।