नई तहरीक : 27 मार्च 2022 को उर्दू सहाफत को 200 साल पूरे होने जा रहे हैं। यह मौका है इस पर गौर-ओ-फिक्र करने का कि हम अपनी आने वाली नस्लों तक इस बात की जानकारी पहुंचाएं कि उर्दू हम तक कैसे पहुंची, हमारे आबाओ अजदाद ने उर्दू को बढ़ावा देने के लिए क्या कदम उठाए वगैरह। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उर्दू एक ऐसी ज़बान है जो हजारों की भीड़ में भी अपने बोलने वालों को एक अलग पहचान और शिनाख्त दिलाती है। इसकी खासियत यह भी है कि आप अपनी बातचीत में उर्दू को शामिल किए बिना अपनी बात पूरी नहीं कर सकते। लेकिन अफसोस कि जिस ज़बान और तहज़ीब ने हमें जीने-रहने का सलीका सिखाया, हम उसकी अनदेखी कर रहे हैं। उर्दू को एक खास तबके की ज़बान बोलकर उसे स्कूलों, कॉलेजों और सरकारी महकमों से बाहर कर रहे हैं। जंगे आजादी में उर्दू अखबारों के जरिये लोगों को बेदार किया गया। उर्दू ज़बान की इन खासियतों को देखते हुए मौजूदा दौर में इसे फरोग देने की जरूरत है।
हिंदी को मिलेगा फरोग
बे नजीर अंसार एजुकेशनल एंड सोशल वेलफेयर सोसाईटी, भोपाल के मुताबिक मुल्क की ज़बान हिंदी को मुल्कभर में फरोग देने के लिए भी उर्दू का सहारा लेना पड़ेगा। उर्दू के बिना हिंदी ज़बान का मुल्क में फरोग देना मुमकिन नहीं है। मुल्क की तरक्की और भाईचारे को कायम करने और बनाए रखने में उर्दू के किरदार को एक सुनहरे बाब में लिखे जाने की जरूरत है। उर्दू सहाफत की शुरूआत पर गौर करें तो यह बहुत पहले ही हो गई थी। उर्दू के पहले अखबार जाम-ए-जहांनुमां (1822) और शम्स-उल-अखबर (1823) में शाया हुए जिसके बाद हजारों की तादाद में उर्दू के अखबारात, रिसाले और मेगजीन वगैरह निकलते रहे। लोगों की उर्दू भाषा के तंई अनदेखी और सरकारी तआवुन न मिलने के सबब उर्दू ज़बान के अखबारात और रिसाले कम समय तक ही चल सके। हालत यह है कि उर्दू अखबारत और रिसाले एक-एक करके बन्द होते चले गए।
27 मार्च, 2022 को उर्दू सहाफत के दो सौ साल पूरे होने जा रहे हैं। इस दिन को मुल्कभर में मनाया जाना चाहिए। उर्दू के साथ की जा रही अनदेखी के खिलाफ आवाज उठाने और मुहिम चलाने की जरूरत है। उर्दू के साथ हो रही नाइंसाफी के खिलाफ लोगों को जाती और इज्तिमाई तौर पर सरकार से मांग करनी चाहिए। मदरसों के सीनियर और जूनियर दोनों सेक्शन में खाली पड़े पदों को बहाल किए जाने के लिए आवाज उठानी चाहिए। गौरतलब है कि कई शहरों में उर्दू यूनिट पर हिन्दी टीचर तईनात किया गया है। स्कूलों में डीईओ को भेजी जाने वाली रिपोर्ट में उर्दू तालिबों को हिंदी तालिबा के तौर पर दिखाया गया है।