शव्वाल उल मुकर्रम, 1446 हिजरी
﷽
फरमाने रसूल ﷺ
"जो कोई नजूमी (ज्योतिश) के पास जाए फिर उससे कुछ पूछे तो उसकी चालीस रात की नमाज़े क़ुबूल न होगी।"
- मुस्लिम
अली हुसैन आसिम बिहारी ने अपने दौर में जो बातें कही थी, वो मुआशरे को बदलने वाली थीं और भारती सियासत की जड़ बन रहे किरदार पर चोट करने वाली थीं। आज़ादी और महात्मा गांधी की वफ़ात के बाद जो सियासी पार्टियां रफ़्ता-रफ़्ता इक़तिदार परस्त, मौकापरस्त, ख़ानदानी सियासत और सियासी ज़वाल की राह पर चलने लगी और मुल्क को गांधी के रास्ते से भटकाने लगी, अली हुसैन आसिम बिहारी ने उन कमज़ोरियों को बे-नक़ाब किया और उनके सुधार के तरीक़े भी बताए।
मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी ने कहा कि दुनिया को सात बड़े इन्क़िलाबात की ज़रूरत है, उनके बकौल इक़तिसादी, सियासी, समाजी, सनफ़ी, रंग-ओ-नसल पर मबनी अदम मुसावात का ख़ातमा, मर्कज़ीयत का ख़ातमा और आलमी पार्लियामेंट का क़ियाम जरूरी है। अली हुसैन आसिम बिहारी एक मज़बूत क़ौम परस्त थे, लेकिन ख़ुद को आम शहरी भी समझते थे। वो चाहते थे कि दुनिया में एक मुंतख़ब आलमी पार्लियामेंट बने और पूरी दुनिया एक सियासी इकाई में तबदील हो जाए।
आसिम बिहारी के उसूल के मुताबिक कथनी और करनी एक जैसी होनी चाहिए, यानी क़ौल-ओ-फे़अल में तज़ाद नहीं होना चाहिए। आम तौर पर सियास्तदान अपनी तक़रीरों में बहुत नरम और मिसाली बातें करते हैं, लेकिन उनके आमाल इसके बरअक्स होते हैं। भारती सियासत में फैलती इस वबा के ख़िलाफ़ आसिम बिहारी ने लोगों को ख़बरदार किया जो आज सब सच साबित हो रहा है। हिंदू समाज ही नहीं, मुस्लमानों में भी मुसावात का मसला दर पेश है जो इस्लाम के भी ख़िलाफ़ है। आसिम बिहारी ने मुल्क को दुबारा गांधी, आंबेडकर, नेहरू, अबुल-कलाम आज़ाद वग़ैरा के दिखाए रास्ते पर लाने की बात की ।
ये वो दौर था, जब भारती सियासत में सियासी जमातों के अंदर जमहूरीयत ख़त्म हो रही थी। पार्टियों की क़ियादत ख़ुद-मुख़्तार और आमिराना हो रही थी, कारकुनान को नज़रअंदाज किया जा रहा था, और क़ियादत और अवाम के दरमयान रिश्ता कमज़ोर हो रहा था। एक तरफ़, आसिम बिहारी जमातों में अंदरूनी जमहूरीयत के लिए फ़िक्रमंद थे, और दूसरी तरफ़ वो ये भी चाहते थे कि अंदरूनी जमहूरीयत बेक़ाबू आज़ादी में तबदील ना हो जाए। इसीलिए आसिम बिहारी ने सियासी नज़रिया दिया कि बोलने की आज़ादी होनी चाहिए, लेकिन अमल पर नज़म-ओ-ज़बत भी होना चाहिए, यानी पार्टी में कारकुन को बोलने की मुकम्मल आज़ादी हो, लेकिन जब कोई फ़ैसला अक्सरीयत से हो जाए तो फिर सबको उस पर अमल करना चाहिए।
आसिम बिहारी ने समाज में मौजूद अदम मुसावात को ख़त्म करने, अमीरी और ग़रीबी के फ़र्क़ को मिटाने और बराबरी और ख़ुशहाली को एक सतह पर लाने को अपनी ज़िंदगी का मक़सद बनाया। वो सियासत के लिए मज़हबी इक़दार को ज़रूरी समझते थे। हालांकि मज़हब का काम अख़लाक़ी-ओ-समाजी उसूलों पर मबनी फ़र्द और मुआशरे की तशकील करना था, जो एक तवील मुद्दती सयासी अमल था।
उन्होंने भारत के क़बाइली इलाक़ों, दूर दराज़ इलाक़ों और ग़रीब लोगों को अपने बराबरी के नज़रिए से जोड़ा और उन्हें उनके हुक़ूक़ के बारे में आगाह किया। बहुत दूर दराज़ और नाक़ाबिल रसाई समझे जाने वाले इलाक़ों में जाकर आसिम बिहारी ने क़बाइलियों, ग़रीबों और मज़लूमों को उनके हुक़ूक़ और ज़मीन के हुक़ूक़ के लिए बेदार किया। इस तहरीक में उनके साथ उनके रफ़क़ा भी थे जिन्होंने अनथक मेहनत के बाद कई जद्द-ओ-जहद करने वाले क़बाइली और पसमांदा रहनुमाओं को तैयार किया। उस वक़्त के क़बाइली और देहाती बाशिंदगान, जो शहरों के लोगों को देखकर ख़ौफ़ज़दा हो कर छिप जाते थे, उन्हें बोलना, लड़ना और अपने हुक़ूक़ के लिए खड़ा होना सिखाया और उन्हें आलमी बराबरी के तसव्वुर से जोड़ा।
आसिम बिहारी ने ना सिर्फ ग़रीबों, महरूमों और पसमांदा तबक़ात के साथ रिश्ता जोड़ा, बल्कि उनकी तकालीफ़ को उजागर किया, उनके हल तजवीज़ किए, उन्हें बोलने का हक़ दिया, और उनके अंदर ख़ुद-एततिमादी पैदा करने के लिए ऐसे नज़रियात पेश किए, जो उनके अंदर जोश-ओ-वलवला पैदा कर सकें।
वो जानते थे कि वो जिन बातों को उठा रहे हैं, वो उस वक़्त के समाज से बहुत आगे की बातें हैं। लेकिन वो ये भी जानते थे कि आज नहीं तो कल, समाज को इन बातों को क़बूल करना ही होगा। 80 साल पहले मर्द-ओ-औरत की बराबरी की बात उन्होंने कही थी। अपने नज़रियात पर उनका एतिमाद उतना पुख़्ता था कि आख़िरकार समाज को उन्हें तस्लीम करना ही होगा। इसीलिए उन्होंने कहा था कि ''लोग मेरी बात सुनेंगे, शायद मेरी मौत के बाद, मगर ज़रूर सुनेंगे और यही आज सच हो रहा है।
उनके पास ना दौलत थी, ना मकान, ना कोई जायदाद, और ना ही उन्हें इन चीज़ों की तलब थी। उनकी सबसे बड़ी दौलत ग़रीबों और मज़लूमों का उन पर भरोसा था। इसीलिए उन्होंने कहा था : ''मेरे पास कोई सरमाया नहीं है, सिवाए उसके कि ग़रीब मुझे अपना आदमी मानते हैं।'
ऐसे मर्द मुजाहिद, आज़ादी के गुमनाम हीरो को हम तमाम को मुतआरिफ़ कराना चाहिए, उनकी सवानेह ख़ुद भी पढ़ना चाहिए और अपने बच्चों को भी इसकी तलक़ीन करना चाहिए। जिस तरह बीआर आंबेडकर को आज पूरी दुनिया जानती है, और उनका यौम-ए-पैदाइश बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है, इसी तरह अली हुसैन आसिम बिहारी को भी सूबाई और मुल्की सतह पर याद किया जाना चाहिए जो आज उन्हें उनके हामी-ओ-पैरोकार भूल गए हैं। उनके बताए रास्ते पर चलें और उनके मिशन को आगे बढ़ाएं, यही वक़्त का अहम तक़ाज़ा है।