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रांची से निकला था छोटानागपुर का पहला उर्दू अखबार


सैय्यद शहरोज कमर, रांची

उर्दू सहाफत ने दो सदी मुकम्मल कर ली। रांची से लेकर दिल्ली तक इसके जश्न की धूम है लेकिन रांची के दो सहाफियों (पत्रकारों) की हर जगह अनदेखी की गई। इनमें समरुल हक और समीउल्लाह शफक का नाम सरे फेहरिस्त है। समरुल हक उर्दू की ऐसी शख़्सियत रही, जिन्होंने छोटा नागपुर का पहला अखबार ‘छोटा नागपुर मेल’ शुरू किया। इसका पहला शुमारा (अंक) 15 अगस्त 1967 को मंजरे आम पर आया था। अखबार का नारा था- ‘जियो और जीने दो।’

अंग्रेजी और हिंदी में भी इशाअत

उर्दू लेखक व एक्टिविस्ट हुसैन कच्छी ने बताया कि समरुल हक के आर्टिकल दिल्ली-रांची के अंग्रेजी और हिंदी के अखबारों में भी शाइया हुइआ करते थे। सीनियर सहाफी पद्मश्री बलवीर दत्त के बकौल, जब वो रांची एक्सप्रेस के एडीटर थे, समरुल हक के राजनीतिक-सामाजिक मौजू पर आर्टिकल शाईया होते थे। समरुल बोलते थे और बलवीर दत्त लिखते जाते थे। अंजुमन इस्लामिया के सदर अबरार अहमद बताते हैं कि समरुल हक ने ही उन्हें अदब और सहाफत के लिए मोटीवेट किया। वो उनके सगे मामा लगते थे.

छोटा नागपुर मेल का पहला एडीटोरियल

छोटा नागपुर मेल के पहले एडीटोरियल में ही समरुल हक ने अपनी पालिसी वाजेह कर दी थी। उन्होंने लिखा था, छोटा नागपुर न सिर्फ कुदरती मनाजिर (प्राकृतिक दृश्यों), पुरबहार फिजाओं, बलखाती पहाड़ी नदियों, घने जंगलों और इसमें बसने वाले भोले-भाले इंसानों की सर-जमीन है, बल्कि ये वो जगह है, जिसके सीने मअदनियात (खनिज) के बेशुमार खजाने दफन हैं, जिसकी वजह से इसे हिंदुस्तानी मअशीयत (अर्थव्यवस्था) में रीढ़ की हड्डी का दर्जा हासिल है लेकिन ये अजीब सितम जरीफी (विडंबना) है कि सोने की इस धरती पर सोने वालों को असम और अंडमान में जाकर रोटी तलाश करनी पड़ती है, छोटानागपुर मेल इनके हक की लड़ाई लड़ेगा।

असयोग आंदोलन के दौरान जेल भी गए

समरुल हक की पैदाईश 3 फरवरी 1929 को रांची में हुआ था। उनके वालिद जैनुल आब्दीन स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। वे असहयोग आंदोलन के दौरान जेल की सजा भी भुगत चुके थे। समरुल की शुरूआती पढ़ाई चर्च रोड के नगरपालिका स्कूल में हुई। अपर प्राइमरी की प्रतियोगी परीक्षा में समूचे छोटानागपुर में अव्वल आए। उन्हें हर महीने 3 रुपये की स्कालरशिप भी मिलनी शुरू हो गई। मिडिल में उन्होंने समूचे बिहार में पहला मकाम हासिल किया तो स्कालरशिप बढ़कर 5 रुपये माहाना हो गई, जो मैट्रिक तक जारी रही. इसी दरम्यान वालिद की मौत हो गई। समरुल को बीमारी ने चपेट में ले लिया। 1944 में मैट्रिक पास तो कर लिया, पर काबिल-ए-जिक्र कामयाबी नहीं मिली। 1946 में संत जेवियर्स कॉलेज, रांची में बीएससी में दाखिला लिया।

अखबार की कीमत थी महज 20 पैसे

कॉलेज में दाखिला तो ले लिया, लेकिन बीमारी ने समरुल का दामन नहीं छोड़ा। लगातार 12 साल तक परेशानी बनी रही। हालांकि बीमारी की उबासी ने उन्हें अदब की ओर मब्जूल किया। वो उर्दू में कविता, कहानी और लेख वगैरह लिखने लगे। दिल्ली से शाईया अंग्रेजी साप्ताहिक मैसेज के लिए उन्होंने रिपोर्टिंग भी की। 1954 में बतौर सहाफी उन्हें सरकारी मान्यता मिली। देवी प्रसाद गुप्ता के संडे मेल और संडे प्रेस के प्रकाशन में भी वे मदद करते रहे। और इस तरह 1967 में छोटा नागपुर के पहले साप्ताहिक अखबार छोटा नागपुर मेल का आगाज हुआ। कीमत थी 20 पैसे. अखबार 1977 तक छपता रहा। इसके बाद इसके छिटपुट शुमारे निकले। और इस तरह 15 सितंबर 2012 को समरुल हक इस दुनिया-ए-फानी को अलविदा कह गए। 


डाक्टर नादिर अली के इंतिकाल पर इजहार-ए-अफसोस

अलीगढ़ : उर्दू के नामवर अदीब-ओ-नक़्काद (साहित्यकार और आलोचक), इस्लामी स्कालर और अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी के शोबा उर्दू के सुबुकदोश उस्ताद डाक्टर नादिर अली खां का मुख़्तसर अलालत के बाद इंतिकाल हो गया। ताजियत का इजहार करते हुए एएमयू के वाइस चांसलर प्रोफेसर तारिक मंसूर ने कहा ''डाक्टर नादिर एक मुखलिस उस्ताद थे जिन्हें इल्म से मुहब्बत थी। उनका इंतिकाल यूनीवर्सिटी के लिए एक बड़ा नुक़्सान है।' उन्होंने मजीद कहा, डाक्टर नादिर तहकीक-ओ-तदरीस (अनुसंधान और शिक्षण) से खास शगफ (जुनून) रखते थे। उन्होंने अपनी मुलाजमत के साथ साथ गिरांकद्र (बेशकीमती) अदबी खिदमात अंजाम दी। शोबा उर्दू के चेयरमैन प्रोफेसर मुहम्मद अली जोहर ने कहा ''डाक्टर नादिर ने लगन के साथ तलबा और रिसर्च स्कालरों की रहनुमाई की और उन्हें अपनी सलाहीयतें बेहतर करने की तरगीब दी। उन्होंने तालीमी और पेशावराना तरक़्की के लिए कैरीयर के अहम लमहात में नौजवान साथियों की रहनुमाई भी की।' उन्होंने कहा कि एक तवील और शानदार कैरीयर के बावजूद डाक्टर नादिर ने कभी भी प्रोफेसर के ओहदे के लिए दरखास्त नहीं दी, ये कहते हुए कि बतौर रीडर उनकी तनख़्वाह उनके कुन्बे की परवरिश के लिए काफी है। वो एक रीडर की हैसियत से सुबुकदोश (रिटायर) हुए। डाक्टर नादिर एक नामवर अदीब थे। उनकी तसनीफ ए हिस्ट्री इन उर्दू जर्नलिजम (1822-1857) (1991) नौ मुख़्तलिफ शहरों के अखबारात का जायजा पेश करती है। सहाफत (पत्रकारिता) की तारीख (इतिहास) पर उनकी किताबों को काफी पजीराई मिली। डाक्टर नादिर अली खां ने उर्दू लिसानियात (भाषा विज्ञान), उर्दू जबान की पैदाइश-ओ-तरक़्की पर मसऊद हुसैन खां की मशहूर किताब का शानदार तन्कीदी जायजा तहरीर किया। डाक्टर नादिर की तसनीफात मुख़्तलिफ यूनीवर्सिटीयों के निसाब में शामिल हैं और उनकी किताबों का अंग्रेजी में तर्जुमा हो चुका है। डाक्टर नादिर एक खुदा तरस इन्सान थे। उन्होंने जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा मुकद्दस किताबों का मुताला करने और मजहब पर तहकीक करने में गुजारा। उन्होंने हिन्दोस्तान में इस्लामी एहमीयत के मुख़्तलिफ मराकज का दौरा किया जहां उन्होंने नामवर मजहबी स्कालरों शेख अलहदीस मुहम्मद जकरीया कांधलवी (1898-1982) और मौलाना मुहम्मद यूसुफ कांधलवी से मुलाकात की।


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