हज : इंसानियत, बराबरी और रूहानियत का आलमी पैग़ाम

 जिल हज्ज, 1446 हिजरी

   फरमाने रसूल  ﷺ    

"तुम कयामत के रोज़ सबसे बदतरीन उस शख्स को पाओगे जो दोगला है, इधर लोगों से कुछ बात करता है उधर कुछ।"

- मिशकवत

hajj, makka, madina, saudi arebia

✅ नुजहत सुहेल पाशा : रायपुर 

क़ुरआन, सीरत और आज की दुनिया के संदर्भ में

    जब लाखों इंसान, अलग-अलग मुल्कों, भाषाओं, रंगों और सामाजिक हैसियतों से निकलकर, एक ही लिबास, एक ही मक़सद और एक ही मंज़िल की ओर बढ़ते हैं, तो वो महज़ एक धार्मिक इबादत नहीं रह जाती, बल्कि एक ज़िंदा तस्वीर बन जाती है, उस ख़्वाब की जो हर इंसान देखता है। एक ऐसी दुनिया का ख़्वाब जहाँ न कोई बादशाह हो, न कोई फ़क़ीर, न कोई ऊँचा न नीचा, न कोई गोरा हो न काला, बस- इंसान हो और उसकी पहचान उसका किरदार और नियत हो।

इंसान की असल पहचान क़ुरआन की रौशनी में 

क़ुरआन कहता है:

"ऐ लोगो ! हमने तुम्हें एक मर्द और एक औरत से पैदा किया और तुम्हें क़ौमों और क़बीलों में बाँटा ताकि तुम एक-दूसरे को पहचान सको। अल्लाह के नज़दीक सबसे इज़्ज़त वाला वो है, जो सबसे ज़्यादा परहेज़गार (तक़्वा वाला) है।"
(सूरह हुजुरात: 13)
ये वो बुनियादी हक़ीक़त है, जो हज के मंज़र में नुमायाँ होती है, जहाँ न रंग का फ़र्क़ होता है, न ज़ुबान का, न दौलत का, हर कोई एक जैसे अहराम में, एक ही ख़ुदा के सामने सर झुकाए खड़ा होता है।

सीरत-ए-नबवी में हज का पैग़ाम

पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ ने अपने आख़िरी हज (हज्जतुल विदा) में फ़रमाया :
"न किसी अरबी को अजरबी (ग़ैर-अरबी) पर कोई बढ़ाई है, और न किसी गोरे को काले पर, इज़्ज़त का पैमाना सिर्फ़ तक़्वा है।"
    ये पैग़ाम उस दौर में दिया गया है, जब नस्लीय भेदभाव आम था और इंसानों को उनके रंग और नस्ल की बुनियाद पर तौला जाता था। रसूल अल्लाह ﷺ ने बिलाल (रज़ि.) को अज़ान का मक़ाम दिया, सलमान फ़ारसी, सुहैब रूमी और अम्मार बिन यासिर जैसे ग़ैर-अरब सहाबा को ऊँचा दर्जा दिया, यही तो हज का असली पैग़ाम है।

हज : बराबरी की रूहानी ट्रेनिंग

हज एक ऐसी इबादत है, जो इंसान को न सिर्फ़ अल्लाह से जोड़ती है, बल्कि इंसानों को भी आपस में जोड़ती है :
एहराम : याद दिलाता है कि सबकी पहचान एक है ;
तवाफ़ : बताता है कि ज़िंदगी का असल मरकज़ अल्लाह है ;
अराफ़ात का मैदान : वो दिन, जब इंसान रो-रो कर अपनी ग़लतियों से तौबा करता है ;
क़ुर्बानी : इब्राहीम और इस्माईल अलैहिस्सलाम की तरह सब कुछ अल्लाह के लिए छोड़ देने का पैग़ाम देती है।
ये सारी इबादतें हमें इंसानियत का सबक सिखाती है।

आज की दुनिया में हज की अहमियत

आज जबकि : नस्ल, धर्म और जात के नाम पर समाज बंटा हुआ है ; अमीरी-ग़रीबी की खाई गहरी हो रही है ; इंसानों के बीच नफ़रतें और ताअस्सुब (भेदभाव) बढ़ रहा है ; ऐसे में हज एक रोशनी की किरण है, जो बताती है कि हम सब एक ही मूल से आए हैं ; इंसान की असल पहचान उसका किरदार है, रंग या जात नहीं ; हर इंसान दूसरे का भाई है, न कि दुश्मन।

हज इबादत नहीं, एक तहरीक है

हज सिर्फ़ फ़र्ज़ नहीं, एक इंक़लाब है, जो बताती है कि बराबरी कोई कल्पना नहीं, हक़ीक़त है ; इंसानियत कोई आदर्श नहीं, बल्कि एक रास्ता है।
यानि तक़्वा, ईमानदारी और इख़लास से दुनिया को बदला जा सकता है।
बकौल अल्लामा इक़बाल : 
"एक हों मुस्लिम हरम की पासबानी के लिए,
नील के साहिल से लेकर ताब-ए-ख़ाक-ए-क़ाश्गर।"

हज एक सफ़र है मक्का तक नहीं, दिल से दिल तक

    जब लोग काबा के गिर्द तवाफ़ करते हैं, तो लगता है जैसे सारी इंसानियत एक दिल बन गई हो जिसमें कोई फ़र्क़ नहीं, सिर्फ़ अल्लाह की मोहब्बत और इंसानों की बराबरी की धड़कन सुनाई देती है वहां।
    हज हमें सिखाता है कि इंसानियत ज़िंदा है ; कि बरकत ताक़त या पैसे में नहीं, नियत और किरदार में है और ये कि एक बेहतर दुनिया मुमकिन है, अगर हम चाहें।
इसलिए हज सिर्फ़ एक धार्मिक रस्म नहीं, बल्कि एक सपना है, एक बेहतर, बराबर, और रूहानी     दुनिया का सपना, जहाँ हर इंसान दूसरे इंसान को सिर्फ़ इंसान समझे।

- मीडिया इंचार्ज

जेआईएच, वुमेंस विंग, छत्तीसगढ़

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