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उर्दू ज़बान व सहाफत को जिन्होंने बुलंदियों तक पहुंचाया

हाल ही में उर्दू सहाफत को दो साल पूरे हो गए। इस मौके पर मुल्क के उर्दू दां की जानिब से मुख्तलिफ मकामों पर मुतअद्दि प्रोग्राम मुनाकिद किए गए। हम बात करते हैं, उर्दू जÞबान व सहाफत को बुलंदियों तक पहुंचाने के लिए जद्द-ओ-जहद करने वाले सहाफी, उदबा व शोरा-ए-कराम की। दो किस्तों पर मुश्तमल इस आर्टिकल की पहली किस्त पेश है। 


एमडब्ल्यू अंसारी (आईपीएस, रिटा.डीजी)

इब्न सफी

अदब से जरा सा भी ताअल्लुक रखने वाला कोई ऐसा भी शख्स होगा, जो इस नाम से नावाकिफ होगा। जी हां, हम उसी इब्ने सफी की बात कर रहे हैं, जिनके नावेल्स एक जमाने में धूम मचाया करते थे। आज भी, हालांकि नावेल पढ़ने का जौक कम हुआ है, कई लोगों ने इब्ने सफी के नावेल्स को संजोकर रखा हुआ है। 

इब्न सफी दरअसल इसरार अहमद का कलमी नाम था, जो एक मशहूर अफ़्साना निगार,उर्दू के नावल निगार और शायर थे। इबन सफी 26 जुलाई 1928 को बर्तानवी भारत के इलाहाबाद उत्तरप्रदेश में पैदा हुए। उन्होंने तालीम भी इलाहाबाद यूनीवर्सिटी से हासिल की। उनकी तसानीफ 125 किताबों पर मुश्तमिल सीरीज जासूसी दुनिया और 120 किताबों पर मुश्तमिल इमरान सीरीज थीं, जिनमें तंजिया कामों और शायरी का एक छोटा सा उसूल था। उनके नाविलों में इसरार, ऐडवेंचर, सस्पेंस, तशद्दुद, रोमांस और कामेडी के इमतिजाज की खुसूसीयत थी, जिसने जुनूबी एशिया में एक वसीअ कारईन में बड़े पैमाने पर मकबूलियत हासिल की ।26 जुलाई 1980 को वे इस दुनिया-ए-फानी से दुनियाए बाकी की जानिब कूच कर गए।

बाबाए उर्दू मौलवी अब्दुल हक 

बाबाए उर्दू मौलवी अब्दुल हक जो एक आलम और माहिर लिसानियात थे। उनकी पैदाईश 20 अप्रैल 1870 को जिÞला मेरठ (अब हापुड़ जिÞला, उतर प्रदेश) में हुई थी। बीए की डिग्री अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी से 1894 में हासिल की। जहां वो उस वक़्त के कुछ आने वाले सियासतदानों, स्कालर्ज की सोहबत में थे जिनमें शिबली नामानी, सैय्यद अहमद खान, रास मसऊद, मुहसिन उल-मलिक, सैय्यद महमूद, थॉमस वॉकर आरनल्ड और बाबू मुखर्जी शामिल थे।

ग्रेजूएशन के बाद हक हैदराबाद दक्कन चले गए और उर्दू पढ़ाने, सुखाने, तर्जुमा करने और अपग्रेड करने के लिए खुद को वक़्फ कर दिया। वो सर सय्यद के सियासी और समाजी ख़्यालात से बहुत मुतास्सिर थे, और उनकी खाहिश के मुताबिक, अंग्रेजी और साईंसी मजामीन सीखे। सैय्यद अहमद खान की तरह, अब्दुल हक साहिब ने उर्दू को भारत के मुस्लमानों की जिंदगी और शिनाख़्त पर एक बड़े सकाफ़्ती और सियासी असर के तौर पर देखा।

अब्दुल हक साहिब आॅल इंडिया महमडन एजूकेशनल कान्फ्रÞैंस का सेक्रेटरी मुकर्रर हुए, जिसकी बुनियाद सर सैय्यद अहमद खान ने 1886 में मुस्लिम मुआशरे में तालीम और दानिश्वरी के फरोग के लिए रखी थी। जनवरी 1902 में आॅल इंडिया महमडन एजूकेशन कान्फ्रÞैंस अलीगढ़ के तहत एक इल्मी शोबा कायम किया गया जिसका नाम अंजुमन तरक़्की उर्दू था। 1912 में अब्दुल हक साहिब अंजुमन के सेक्रेटरी मुकर्रर हुए। उनके तहत तंजीम ने तरक़्की की और मुतअद्दिद रिसाले शाइआ किए जिनमें उर्दू में जनवरी 1921 में, साईंस, 1928 में और हमारी जबां, 1939 में शाइआ हुई।  इस अर्से के दौरान उन्होंने उस्मानिया कॉलेज (औरंगाबाद के प्रिंसिपल के तौर पर भी खिदमात अंजाम दीं। और 1930 में इस ओहदे से रिटायर हुए। इस तरह उन्होंने उर्दू की खिदमत करते हुए अपनी सारी उम्र गुजार दी और 16 अगस्त 1961 को आकाए हकीकी से जा मिले।





पण्डित हरी चंद अखतर 

पंडित हरीचंद अख्तर एक मारूफ सहाफी थे जो उर्दू गजल के मारूफ शायर भी थे। वो 15 अप्रैल 1901 को होशयार पूर, पंजाब में एक ब्रहमन खानदान में पैदा हुए। वो उर्दू, फारसी और अंग्रेजी जबानों के इस्तिमाल पर उबूर रखते थे। मैट्रिक के फौरन बाद मुंशी फाजिल का इमतिहान पास करने के बाद पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर से एमए (इंग्लिश) की डिग्री हासिल की। उन्होंने अपनी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा लाहौर में लाहौर के लिए लिखते हुए गुजारा, जो अखबार उस वक़्त लाला करम चंद की मिल्कियत था। हरी चंद अखतर एक ऐसे शायर थे, जिनकी तवज्जा की सिन्फ-ए-गजल थी। वो रिवायत पसंद थे लेकिन सादगी के लिए उनका अंदाज मुनफरद था। उनकी गजलों का मजमूआ कुफ्रÞ-ओ-ईमान उनकी जिंदगी में शाइआ हुआ और यक्म जनवरी 1958 को उनका इंतिकाल हो गया।

मौलवी मुहम्मद जका अल्लाह 

या मुंशी जका अल्लाह एक बर्तानवी हिन्दुस्तानी उर्दू मुसन्निफ और मुतर्जिम थे। उन्होंने उर्दू में भारत की तारीख की चौदह जिल्दों पर मुश्तमिल तालीफ तारीख हिंद (कंपाइल्ड हिस्ट्री आफ इंडिया) लिखी। जका अल्लाह साहिब 20 अप्रैल 1832 को दिल्ली में पैदा हुए। उनके वालिद मुहम्मद सना उल्ला मुगल दरबारों में से एक शहजादों के टयूटर थे। उन्होंने अपने दादा हाफिज मुहम्मद बका उल्लाह साहिब के मातहत अपनी तालीम की तारीफ की और दिल्ली कॉलेज में प्रोफैसर राम चन्द्र के तहत तालीम हासिल की, जो एक अलग रियाजी के उस्ताद थे। उनके दीगर असातिजा में ममलूक अली नानोतवी भी शामिल हैं।

उन्होंने दिल्ली कॉलेज में बतौर स्कालर अपनी खिदमात का आगाज किया और 55 साल की उम्र तक महिकमा तालीम में खिदमात अंजाम देते रहे। दिल्ली कॉलेज में उन्होंने मगरिबी उलूम, तारीख और फलसफा के मतन का उर्दू में तर्जुमा करने में ट्रांसलेशन सोसाइटी की सरबराही भी की। 1855 में वो बुलंदशहर और मुरादाबाद के स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर मुकर्रर हुए। इस के बाद उन्हें दिल्ली के नार्मल स्कूल का हेडमास्टर मुकर्रर किया गया। उस के बाद उन्हें 1872 में इलाहाबाद के मोईर सेंट्रल कॉलेज में उर्दू के जरीया मगरिबी साईंस पढ़ाने के लिए मुंतकिल कर दिया गया। वो 1877 में इलाहाबाद से पैंशन पर रिटायर हुए। रिटायरमैंट से कुछ अरसा कबल उन्हें खान बहादुर और शम्सुल उलमा के खिताब से नवाजा गया। रिटायरमेंट के बाद उन्होंने कुछ अरसा अलीगढ़ में गुजारा और सर सैय्यद अहमद खान और उनके दोस्त मौलवी समीअ अल्लाह की अदबी तहरीक के लिए काम किया। वो अलीगढ़ तहरीक के इबतिदाई हामी थे और उन्होंने अपने हमअसर मौलवी नजीर अहमद और अलताफ हुसैन हाली के साथ साइंटिफिक सोसाइटी के लिए भी काम किए। 7 नवंबर 1910 में उनका इंतिकाल हो गया।

(बाकी अगली किस्त में )




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