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रमजान: घर, अम्मी और काफिला (भूले-बिसरे दिन)


सैयद शहरोज कमर, रांची

इफ़्तार और सेहरी का जिक्र आते ही रमजान पहुंच जाता है। ये पर्याय हैं एक-दूसरे के। इसी के साथ जुड़ी हैं हर गांव-कस्बे में सेहरी के लिए रोजेदारों को जगाने वाली टोलियाँ। भाई जिया और उमर अशरफ ने ऐसे लोगों की याद कराई तो हम भी शेरघाटी पहुँज गए। सातवें और आठवें दशक (दहाई) में।  

तब न मोबाइल थे हर हाथ, न अलार्म घड़ी हर मेज या दीवार के ताक पर होती। भाईजान लोगों का काफिला होता। बाहर के कमरे से जैसे ही माइक पर हैलो-माइक टेस्टिंग की आवाज सुनाई देती, अपुन हड़बड़ा कर उठ जाते। अम्मी की बावर्ची ख़्वाने में खट-पट शुरू हो जाती। हम तो सीधे बाहर। साइकिल पर लाउड स्पीकर बांधा जाता। पीछे की सीट पर एम्प्ली फायर और बैटरी। कोई मजबूत लड़का साइकिल संभाल लेता। माइक बहुत ही स्टाइल के साथ मुश्ताक भैया पकड़ते। उनकी जगह कभी शब्बू भाईजान भी गायक हो जाते। किसी भी कलाम को माइक वाला सुरों में उचारता तो बाकी उसके साथी-संगी कोरस देने लगते। 

यह होता था, रोजेदारों को सेहरी के वक़्त जगाने वाला काफिला। काफिले से भाईजान के लौटने पर अम्मी कभी सेहरी उनके साथ कर लेतीं, तो कभी भर-कटोरा चाय पीकर नमाज की तैयारी में लग जातीं। गर पीठी (आटे की छोटी-छोटी किसी बीज की आकृति सी हाथ की बनाई हुई चीज, जिसे दूध में पकाया जाता) या सेवईं होती, तो सेहरी मैं भी कर लेता। जैसे-जैसे दोपहर ढलती और वक़्त इफ़्तार दस्तक देने लगता। 



स्कूल से आकर अम्मी फुल्की-पकौड़े तलने लगतीं। तब वो दिन थे कि बाजार से लौटते हुए किसी के हाथ में फल की थैली दिख जाती, तो समझ लिया जाता था कि घर में कोई बीमार है। ऐसे दौर में इफ़्तार में फल के नाम पर ककड़ी, खीरा और बहुत हुआ तो तरबूज काटने भाईजान बैठ जाते। कभी किचेन, तो कभी आँगन होते बार-बार हम घर से बाहर सड़क या गली में पहुँच जाते। तब शेरघाटी में पक्के मकान उंगली भर गिनने लायक थे। और दो मंजिले तो लोदी शहीद और काजी मोहल्ले में एक भी न थे। लोदी शहीद की मस्जिद के पास पेड़ पर लगे लंबे बांस पर जैसे ही हरी चिमकी से लिपटा बल्ब जल उठता, हम शोर करते घर में दाखिल होते, इफ़्तार का वक़्त हो गया...। जब तक हुजरे से बदलू नाना अजान पुकार रहे होते थे। किस्सा यूँ कि तब बड़े अब्बा यानी असलम सादीपुरी हयात थे, उन्होंने मुझ पर एक कलाम (सेहरी के वक़्त पढ़ा जाने वाला गीत) लिख दिया। जेहन में अब महज दो पंक्ति याद है, रोजा रखता नहीं, सेहरी खाता भी है...और अंतिम लाइन थी, मेरे दिलबंद फरजन्द शहरोज का। यह भी मेरी जिद की उपज थी। हम बच्चों ने भी देखा-देखी काफिला बना लिया था। अम्मी का हाथ पीठ पर। काजी मोहल्ले का बच्चा काफिला तैयार। हालाँकि जब हम लोग बड़े हो गए तब भी इसका नाम न बदला। खैर। बात बचपन की। 

अम्मी लालटेन जलाकर दे देतीं, और हम बड़े अब्बा का कलाम रेघाते जाते और आरिफ, गामा, आरजू, आफताब मेरे सुर को और बेसुरे कोरस में ढालते जाते। उसी रमजान हुआ यूँ कि भाईजान लोगों के काफिले की साइकिल कहीं पलट गयी। बैटरी का पानी भी गिर गया। दूसरे दिन माइक वाले शाफो या राफो खलीफा घर पहुंचे। बहुत तैश (तेवर) में थे। उन तक उनके लाउड स्पीकर सिस्टम के गिर जाने की शिकायत पहुँच गयी थी। बाहर वाले कमरे में घुसते ही उन्होंने बैटरी हिला-डुलाकर देखी। चिमटा की चर-चराहट भांपी। सब ठीक। आखिर में बैटरी के पानी को सूँघा और हल्का चाट भी लिया। तब जाकर वो संतुष्ट लौटे। उनके जाने के बाद भाईजान लोगों की हंसी खपरा तोड़ने लगी। लेकिन ये होलियाना हंसी-ठट्ठापन कुछ देर बाद ही मुहररमी उदासी में बदल गया। अम्मी को इसकी भनक लग चुकी थी। बदमाशी के लिए उन्होंने सबको डांट की जुलाब पिला दी थी।

(तस्वीर शेरघाटी के 'गूगल बाबा' भाई इमरान के मार्फत)





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