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उर्दू ज़बान व सहाफत को जिन्होंने बुलंदियों तक पहुंचाया (2)

हाल ही में उर्दू सहाफत को दो साल पूरे हो गए। इस मौके पर मुल्क के उर्दू दां की जानिब से मुख्तलिफ मकामों पर मुतअद्दि प्रोग्राम मुनाकिद किए गए। हम बात करते हैं, उर्दू जÞबान व सहाफत को बुलंदियों तक पहुंचाने के लिए जद्द-ओ-जहद करने वाले सहाफी, उदबा व शोरा-ए-कराम की। दो किस्तों पर मुश्तमल इस आर्टिकल की दूसरी और आखिरी किस्त। 


एमडब्ल्यू अंसारी (आईपीएस, रिटा.डीजी)

आगा हश्र काश्मीरी 

आगा हश्र काश्मीरी एक उर्दू शायर और ड्रामा निगार थे। उनके कई ड्रामे भारत की शेक्सपियर के मुवाफिकत थे। आगा काश्मीरी 3 अप्रैल 1879 को बरतानवी भारत के बनारस उत्तरप्रदेश में पैदा हुए। उन्होंने स्टेज ड्रामों में दिलचस्पी जाहिर करना शुरू की और 14 साल की उम्र में बंबई चले गए। वहां बतौर ड्रामा निगार अपने कैरीयर का आगाज किया। आगा हश्र का पहला ड्रामा मुहब्बत 1897 में शाइआ हुआ था। उन्होंने बंबई में न्यू अल्फ्रेड थेटरीकल कंपनी में सिर्फ 15 रुपय की तनख़्वाह पर ड्रामा राइटर के तौर पर अपने पेशावराना कैरीयर का आगाज किया। मुरीद-ए-शक, कंपनी के लिए उनका पहला ड्रामा, शेक्सपीयर के ड्रामे दी विंटर टेल की मुवाफिकत था। जो कामयाब साबित हुआ। उसके बाद उन्होंने शेक्सपीयर के ड्रामों की कई और मुवाफिकतें लिखीं, जिनमें शहीद-ए-नाज, पैमाइश के लिए पैमाइश,(1902) और शबीद-ए-हवास (किंग जान, 1907) शामिल हैं। उन्होंने अपनी जिंदगी में और भी बहुत से ड्रामे लिखे और सभी काफी मकबूल भी हुए। आखिरकार यक्म अप्रैल 1935 में उनका इंतिकाल हो गया।

बाबाए उर्दू मौलवी अब्दुल हक, पण्डित हरचंद अखतर, इसरार अहमद, इब्न सफी, मौलवी जका अल्लाह और आगा हश्री काश्मीरी साहिबान ने उर्दू के फरोग के लिए अपनी पेश बहा खिदमात अंजाम दीं। लेकिन आज उर्दू को सियासतदां मजहबी रंग देकर इसे खत्म करने की साजिÞश को फरोग देने का काम कर रहे हैं। उर्दू को मखसूस कम्यूनिटी की जबान कह कर उर्दू जबान की एहमीयत को घटाने की कोशिश की जा रही है। जबकि उर्दू लश्करी जबान है जिसमें तमाम जबानों को शामिल करके एक ऐसी जबान बनाई गई है जिसको अपनी रोजमर्रा की बातचीत में शामिल किए बगैर कोई एक दिन भी नहीं गुजार सकता। 

वहीं उर्दू के फरोग के लिए उर्दू जबान के असरी तकाजे, मसाइल पर नजर डालना जरूरी है। और स्कूलों में उर्दू तालीम की टूटी कड़ी को जोड़ने के लिए मूसिर इकदामात और मुनज्जम पालिसी बनाने की जरूरत है। उर्दू की तालीम व तालीम की हौसलाशिकनी आजादी के बाद से मुसलसल हो रही है। मगर इस सिलसिले में सिर्फ हुकूमत को मौरिद-ए-इल्जाम ठहराना दुरुस्त नहीं है। अहले उर्दू और उर्दू का दम भरने वाले इसके लिए कम जिÞम्मेदार नहीं हैं। हुकूमत के मुआनिदाना (प्रतिकूल) रवैय्या की हम मुखालिफत नहीं करते, मजालिम को सहते और साजिÞशों को नजरअंदाज करते जाते हैं, और कर रहे हैं।

किसी भी जबान को जिंदा रखने और उसकी तरक़्की को यकीनी बनाने के लिए उसकी दरस व तदरेस को जारी रखना निहायत जरूरी है। उर्दू जबान के मसाइल बेशुमार हैं और उन मसाइल पर आँसू बहाने वाले भी बेशुमार हैं। इन मसाइल पर जजबाती तकरीर करने वाले और आदाद-ओ-शुमार पेश करके उर्दू की जमीनी हकीकत पेश करने वाले भी कम नहीं हैं, लेकिन सिर्फ जजबाती तकरीर करने से उर्दू का फरोग होने से रहा। जब तक उर्दू के चाहने वाले बराह-ए-रास्त कोई मूसिर इकदाम नहीं उठाते उर्दू का फरोग नहीं हो सकता। इसके लिए अपने गरीबां में भी झाँकने की जरूरत है कि उर्दू की बदहाली का रोना रोने वाले कितने लोग उर्दू अखबारात-ओ-रसाइल मंगाते हैं, और पढ़ते हैं, और कितने लोग अपने बच्चों को उर्दू पढ़ने लिखने की तरगीब देते हैं।

उर्दू तालीम को कारगर बनाने के लिए ऐसे इकदामात भी करने होंगे जिनके तहत उर्दू तालीम को बाजार की जरूरतों से वाबस्ता किया जा सके। और तकनीकी और इंतिजामी सतह पर उनकी इफादीयत (उपयोगी) नुमायां किरदार अदा कर सके। दीगर उलूम-ओ-फनून की उर्दू में मुंतकली ना होना और दर्सी किताबों की अदम दस्तयाबी उर्दू जरीया तालीम के बतौर इखतियार करने की राह में जबरदस्त मुजाहम (प्रतिरोधी) है।

उर्दू के फरोग के लिए हुकूमत और उर्दू दां से गुजारिश और अपील है कि उर्दू के फरोग के लिए हर प्लेटफार्म और मंच से आवाज बुलंद करें और हर वो मूसिर इकदामात करें जो आज उर्दू के फरोग के लिए सख़्त जरूरी है। 

  • उर्दू को मादरी जबान तस्लीम करें और हर सतर पर इसके फरोग के काम करें
  • अवामुन्नास में उर्दू के ताल्लुक से बेदारी पैदा करें।
  • इस बात को लेकर काम करें कि उर्दू पूरे भारतवासियों की जबान बन सके, ये किसी मखसूस तबका, कम्यूनिटी की जबान नहीं है।
  • उर्दू अखबार, मैगजीन, रिसाला वगैरा की जबरदस्त तरीका से मार्केटिंग करें। 
  • उर्दू जबान को रोजमर्रा की जिंदगी में अपनाएं। अपने विजीटिंग कार्ड, लेटर पेड, शाइन बोर्ड, नेम प्लेट वगैरा पर उर्दू का इस्तेमाल करें। 
  • उर्दू के ताल्लुक से सरकार की तमाम स्कीम, स्कालरशिप वगैरा को आने वाली नस्ल तक पहुंचाएं। 
  • उर्दू सहाफत को फरोग के लिए काम करने की जरूरत है।
  • उर्दू के फरोग के लिए सोशल मीडीया का फायदा उठाएं। 
  • नई तालीमी पालिसी के तहत उर्दू को फरोग मिल सकता है, शर्त ये है कि इसे अपनाया जाए। 

दार-उल-हकूमत भोपाल की बरकत अल्लाह से लेकर रियासत की किसी भी यूनीवर्सिटी में उर्दू का मुनासिब इंतिजाम ना होने से तलबा को खाहिश और तमन्ना के बावजूद इस जबान का शौक तर्क करना पड़ रहा है। इन यूनीवर्सिटीयों में तमाम जबानों की सहूलतें हैं लेकिन उर्दू के साथ सौतेला रवैय्या अपना जा रहा है, यहां उर्दू के लिए कोई इंतिजाम नहीं है। इसी तरह रियासत की तमाम छोटे बड़े कालेजेज और यूनीवर्सिटीयों में उर्दू को नजरअंदाज कर दिया गया है। इसके खिलाफ आवाज उठाने की जरूरत है। और सीधे सरकार से बातचीत करनी होगी, सवाल करना होगा कि आखिर उर्दू जबान के साथ ये गैर जिम्मा दाराना रवैय्या क्यों अपनाया जा है। 

बेनजीर अंसार एजूकेशनल एंड सोशल वेल्फेयर सोसाइटी

अहमदाबाद पैलेस रोड, भोपाल


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