जमादिउल ऊला, 1447 हिजरी
﷽
फरमाने रसूल ﷺ
जिस शख्स का मकसद आखेरात की बेहतरी हो, अल्लाह ताअला उसके दिल को गनी कर देता है, उसके बिखरे हुए कामों को समेट देता है और दुनिया ज़लील हो कर उसके पास आती हैं।
- तिर्मीज़ी शरीफ
भारत की पहली जंग-ए-आज़ादी (1857) का तज़किरा करते हुए दुनिया के तारीख दां अंग्रेज़ों के ज़ुल्म-ओ-सितम, सिपाहियों की बग़ावत और मज़लूमों की आह का ज़िक्र तो करते हैं, मगर इस जंग की एक अहम कड़ी और उस शख़्सियत को भूल जाते हैं, जिसके दरबार से पहली मर्तबा ''आज़ाद-ए-वतन' की सदा बुलंद हुई थी और वो शख्सियत थी, अज़ीम मुजाहिद आज़ादी बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र।
24 अक्तूबर 1775 को पैदा होने वाले बहादुर शाह ज़फ़र वो अज़ीम बादशाह थे, जिन्होंने ज़वाल के अंधेरों में भी उम्मीद-ओ-हौसले की शम्मा रोशन रखी। अगरचे उनके दौर में सलतनत दिल्ली की हदें महज लाल क़िले तक महिदूद थीं, मगर ज़फ़र का दिल पूरे भारत के ख़ाब से मुनव्वर था। वो शायर भी थे, सूफ़ी भी और एक दर्दमंद दिल रखने वाले मुहिब्ब-ए-वतन इन्सान भी।
1857 की बग़ावत अगरचे सिपाहियों की मुज़ाहमत से शुरू हुई, लेकिन जब दिल्ली के दरवाज़े पर वो मुजाहिदीन आज़ादी बादशाह-ए-वक़्त को पुकारने आए, तो बहादुर शाह ज़फ़र ने उम्र के आख़िरी हिस्से में क़ियादत क़बूल की। ये फ़ैसला सिर्फ सियासी नहीं बल्कि अख़लाक़ी, रुहानी और क़ौमी ज़िम्मेदारी का इज़हार था। उनकी क़ियादत में गु़लामी के ख़िलाफ़ जो बग़ावत उठी, उसने पूरे मुल्क में आज़ादी की आग भड़का दी।
तारीख़ का अलमीया ये रहा कि जिस शख़्स ने अपनी कमज़ोर जिस्मानी हालत के बावजूद क़ौम के लिए इल्म-ए-हुर्रियत बुलंद किया, उसे ग़द्दार क़रार दिया गया। अंग्रेज़ों ने उनके ख़ानदान को तबाह कर दिया, और ख़ुद ज़फ़र को रंगून (बर्मा) जिला वतन कर दिया। जहां एक तन्हा बादशाह, जिसके पास ना तख़्त रहा ना ताज, बस एक क़लम, एक दिल-ए-दर्द-आश्ना और वतन की याद थी। उनके ये अशआर इसी करब की अक्कासी करते हैं
कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़न के लिए,
दो-गज़ ज़मीन भी ना मिली कू-ए-यार में।
हमें याद रखना चाहिए कि भारत में बहादुर शाह ज़फ़र के साथ सिराज उददौला और टीपू सुलतान जैसे अज़ीम मुजाहिदीन आज़ादी भी हुए हैं जिन्होंने अपनी जान-ओ-माल क़ुर्बान कर वतन-ए-अज़ीज़ की बुनियाद में अपना ख़ून शामिल किया।
बहादुर शाह ज़फ़र की शायरी में हुब्ब-उल-व्तनी और तसव्वुफ़ का हुसैन इमतिज़ाज मिलता है। उनके कलाम में जो दर्द है, वो दरअसल गु़लामी के ख़िलाफ़ बग़ावत की चिंगारी है। आज भी उनकी शायरी हमें यही पैग़ाम देती है कि
ना थी हाल की, जब हमें अपने ख़बर,
रहे देखते तेरे आलम का हाल।
ग़ाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की,
तख़्त लंदन तक चलेगी तेग़ हिन्दोस्तान की।
हकूमत-ए-हिन्द से हमारा मुतालिबा होना चाहिए कि बहादुर शाह ज़फ़र के नाम पर एक मर्कज़ी यूनीवर्सिटी क़ायम की जाए, ताकि नई नसल उनके अफ़्क़ार-ओ-क़ुर्बानीयों से रोशनास हो। साथ ही मेरठ, बिजनौर, आगरा, कानपूर, झांसी, लखनऊ, बरेली, गवालयार, जगदीशपूर जैसे शहरों जहां उनकी क़ियादत की गूंज सुनाई दी थी, उनकी याद में तालीमी इदारे, स्कालरशिपस और तहक़ीक़ी मराकज़ क़ायम किए जाएं, ताकि उनकी क़ुर्बानियों की रोशनी नसल दर नसल मुंतक़िल हो।
आख़िर में हमें ये अह्द करना होगा कि इस साल 24 अक्तूबर, यौम-ए-पैदाइश बहादुर शाह ज़फ़र के मौक़ा पर मुल्कभर में 250 साला जश्न-ए-विलादत-ए-बहादुर शाह ज़फ़र' पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ आइन्दा एक साल तक यानी 24 अक्तूबर 2026 तक मनाया जाना चाहिए। नीज़ उनके उनके तमाम सिपहसालारों को भी उनके साथ याद किया जाए ताकि आने वाली नसलें ये जान सकें कि हमारी आज़ादी की पहली सदा एक अज़ीम-ओ-बहादुर बादशाह के लबों से उठी थी, जिसने क़ौम को हौसला दिया, और गु़लामी के अंधेरों में आज़ादी का सूरज जगाया।
- आईपीएस, भोपाल
रिटा. डीजीपी (छत्तीसगढ़)
