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हम किस ओर जा रहे हैं ? एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की पुकार

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✅ नुजहत सुहेल पाशा : रायपुर 

क्या ये वही देश है, जहाँ कभी "विविधता में एकता" हमारे लिए गर्व का कारण हुआ करता था ? किसी का नाम पूछ कर उसकी जान लेना, उसकी वेशभूषा देखकर उसकी नीयत और विचारधारा पर सवाल उठाना, उसके कपड़ों से उसकी पहचान तय करना, क्या यही वो भारत है, जिसकी नींव गांधी, नेहरू, और डा. आंबेडकर ने रखी थी ?
    हम एक ऐसे दौर में पहुँच चुके हैं, जहाँ धर्मनिरपेक्षता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। संविधान, जो हर नागरिक को समान अधिकार और स्वतंत्रता देता है, उसके मूल्यों को खुद उसके रक्षक ही कमजोर कर रहे हैं। जब सत्ता में बैठे लोग ही ऐसे बयानों को हवा देने लगें, जो समाज में विभाजन और नफरत फैलाते हैं, तो सोचिए कि आम जनता पर उसका क्या असर पड़ता है।
    राजनेताओं की राजनीति तो नफरत की इस आग में भी फलती-फूलती रहती है, लेकिन नुकसान होता है आम इंसान का, जिसकी जान जाती है, जिसकी इज्ज़त कुचली जाती है, जिसकी डिग्निटी पर कीचड़ उछाला जाता है।
    एक पल के लिए हमें अब रुक कर सोचना होगा कि हम किस ओर जा रहे हैं ? क्या हम ऐसा माहौल बनने देंगे जहाँ इंसानियत से बड़ा मज़हब, जाति या पोशाक हो जाए ? हमें इस बात की मुखालफ़त करनी है कि ऐसा कोई भी हालात ना बनने पाए, जिसमें इंसान को इंसान ही न समझा जाए। हमें एक ऐसा भारत बनाना है, जहाँ हर किसी की जान, उसकी इज़्जत, उसकी सोच और उसकी पहचान को बराबरी और इज़्जत मिले।
    असल धर्म है, इंसान को इंसान समझना।
    असल सेकुलरिज़्म है, सब को साथ लेकर चलना।
    और असल लड़ाई है, नफरत के ख़िलाफ़, मोहब्बत और अमन के लिए।

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