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जश्न-ए-उर्दू कहें या मातम-ए-उर्दू इसे : एमडब्ल्यू अंसारी

 रज्जब उल मुरज्जब, 1446 हिजरी 


फरमाने रसूल ﷺ

कयामत के दिन मोमिन के मीज़ान में अखलाक-ए-हसना (अच्छे अखलाक) से भारी कोई चीज़ नहीं होगी, और अल्लाह ताअला बेहया और बद ज़बान से नफरत करता है।

- जमाह तिर्मिज़ी

✅ नई तहरीक : भोपाल

मध्य प्रदेश उर्दू अकेडमी उर्दू ज़बान के फ़रोग़-ओ-बका के लिए मुसलसल कोशां है। वक़तन-फ़-वक़तन प्रोग्राम्ज का इनइक़ाद किया जाता है। इसी सिलसिला में पिछले दिनों अकेडमी के ज़ेर-ए-एहतिमाम 'वसुधैव कुटुंबकम्' थीम पर मबनी सहि रोज़ा प्रोग्राम भोपाल के गौहर महल में मुनाकिद हुआ। 



    सवाल ये है कि क्या शाम मौसीक़ी उर्दू नग़मों की पेशकश, मुक़ाबला चार बैत, मुक़ाबला बैतबाज़ी, आलमी मुशायरा, मुकालमा वग़ैरा कराकर अकेडमी अपनी ज़िम्मेदारी से सुबुकदोश हो सकती है या इससे परे भी उर्दू के तंई अकेडमी की और भी ज़िम्मेदारियाँ हैं, जिन्हें एमपी उर्दू अकेडमी को पूरा करना चाहिए।

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    हम जानते हैं कि उर्दू के तईं हुकूमतों ने कैसा ताअस्सुबाना रवैया अपना रखा है। कई मर्तबा हुक्मनामा दिया गया कि सरकारी दफ़ातिर में उर्दू अलफ़ाज़ का इस्तिमाल ना किया जाए, जितने भी उर्दू इदारे, दफ़ातिर और मुख़्तलिफ़ सूबों की उर्दू अकेडमिया, उर्दू लाइबररियां हैं, उनकी हालत क्या है, सरकारी ग्रांट तो तक़रीबन बंद ही हो गई है या फिर ना के बराबर है। उर्दू के तमाम इदारों को इस हालत में कर दिया है कि वो बंद होने की कगार पर आ गए हैं।

    मध्य प्रदेश पुलिस हेडक्वार्टर से फ़रमान जारी कर उर्दू अलफ़ाज़ को इस्तिमाल ना करने की बात कही गई तो कभी उर्दू असातिज़ा की तक़र्रुरी ना कर उर्दू तलबा के साथ ना इंसाफ़ी की गई। एमपीएससी से उर्दू, अरबी और फ़ारसी को ख़त्म कर दिया गया। इस तरह के ना जाने कितने ही मसाइल हैं, जिन्हें उर्दू अकेडमी को अपनी अव्वलीन ज़िम्मेदारी समझते हुए हल करना चाहिए था या उसके लिए आवाज़ उठाना चाहिए था। 

    बाअज़ मर्तबा तो उर्दू के नाम पर हो रहे प्रोग्राम में ही उर्दू महज सुर्ख़ी बन कर रह जाती है, जबकि इलाक़ाई ज़बानें नुमायां होती हैं। इस पर भी उर्दू अकेडमी को क़दग़न लगाने का काम करना चाहिए था। ख़ुद उर्दू अकेडमी के प्रोग्राम में आने वाले शोरा अपनी स्क्रिप्ट रोमन उर्दू में लिख कर लाते हैं, ये उर्दू का ज़वाल नहीं तो और क्या है। क्या उर्दू अकेडमी को इस जानिब सख़्त इक़दामात नहीं करने चाहिए। जब उर्दू रस्म-उल-ख़त ही मफ़क़ूद होगा तो तलफ़्फ़ुज़ या अदायगी का क्योंकर सवाल होगा।

    अल ग़र्ज़ ये कि उर्दू अकेडमी, जो ख़ालिस उर्दू ज़बान की तरक़्क़ी , तरवीज-ओ-इशाअत के लिए क़ायम किया गया है, वहां के ओहदेदारों और कारकुनों को अपनी ज़िम्मेदारी के तईं हस्सास हो जाना चाहिए। जिस तरह दीगर सूबों में उर्दू अकेडमियों का हाल हुआ, हमें इससे सबक़ हासिल करना चाहिए। हर तरह से मुतहर्रिक और फ़आल किरदार उर्दू की बका-ओ-फ़रोग़ में अदा करना चाहिए। 

    उर्दू ज़बान हमारी तहज़ीबी और सक़ाफ़्ती विरासत है। इसका क़तल सिर्फ़ ज़बान का ख़ातमा नहीं, हमारी शनाख़्त, सक़ाफ़्त और अदब का नुक़्सान भी है। हमें अपनी ज़बान की हिफ़ाज़त के लिए मुशतर्का कोशिशें करनी होंगी, ताकि उर्दू ज़िंदा-ओ-जावेद रहे और आने वाली नसलें उसके हुस्न से मुस्तफ़ीद हो सकें।

    उर्दू का दायरा महिज़ मौसीक़ी, ग़ज़लगोई तक महिदूद नहीं है, बल्कि बहुत वसीअ है। यक़ीनन इसमें कोई शक नहीं कि उर्दू अकेडमी के ज़रीया की गई कोशिशें भी लायके तहसीन हैं लेकिन इस वक़्त सबसे अहम मसाइल उर्दू असातिज़ा की तक़र्रुरी, निसाब की किताबें वग़ैरा हैं जिनके लिए फ़ौरी तौर पर आवाज़ बुलंद करनी होगी। 


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