Top News

इस्लाम की नजर में इन्सानी जान की कद्रोकीमत

 


मौलाना इसरारुल हक कासिमी

इंसान को अल्लाह तबारक ओ ताला ने अशरफुल मखलूकात बनाया है और इसीलिए उसकी जान और इज्जतो आबरू उसके नजदीक निहायत ही मुहतरम और काबिले तकरीम है। किसी इंसान की इज्जतो आबरू पर अंगुश्त नुमाई जायज है और न बिला वजह किसी की जान लेना जायज है। कुरान-ए-पाक में मुतअद्दिद मुकामात पर जहां इन्सान की बरतरी-ओ-अशर्फीयत को बयान किया गया है, वहीं बहुत सी आयतों में इस हकीकत को भी वाजेह किया गया है कि इंसान की जान और उसकी आबरू निहायत ही मुकर्रम-ओ-मुहतरम है। इरशाद-ए-बारी ताला है : ''और तहकीक कि हमने इन्सानों को मुकर्रम-ओ-मुशर्रफ बनाया है और उन्हें बहरूबर में उठाया (यानी सवारियां मुहय्या कीं) और उन्हें अच्छा और पाकीजा रिज्क दिया और हमने उन्हें दुनिया की मखलूकात पर फजीलत-ओ-बरतरी बखशी है' दूसरी जगह फरमाया : '' खुद को हलाकत में मत डालो और नेक आमाल किया करो, बिला शुबा अल्लाह ताला नेकोकारों को पसंद करता है' (अलबकरा : ५९१) इस आयत में अल्लाह ने खुद इन्सान के लिए भी अपने आपको हलाकत और नुक़्सान में डालने से रोका है। अहादीस में भी जगह जगह इन्सानी जान और इफ़्फत ओ इस्मत की अहमियत-ओ-कद्रो कीमत को वाजेह किया गया है। अबू हुरैरह रदिअल्लाह अन्हो से मरवी है कि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने इरशाद फरमाया : ''मुसलमान, मुसलमान का भाई है, ना वो इस पर जुल्म करता है और ना उसे जलील करता है और ना उसकी तहकीर करता है। इंसान के बुरा होने के लिए ये काफी है कि वो अपने मुसलमान भाई को हकीर समझे, हर मुस्लमान दूसरे मुस्लमान के लिए मुहतरम है : (सही मुस्लिम) एक दूसरी हदीस में हजरत सलमा बिन उबैद बिन मुहसिन रदिअल्लाहो अन्हो से मरवी है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फरमाया : ''जो शखस इस हाल में सुबह करे कि वो मुतमइन-ओ-पुरसुकून हो, सही सालिम हो और उसके पास उस दिन की रोजी मौजूद हो, तो वो ऐसा है, गोया उसके लिए सारी दुनिया समेट दी गई' (सुनन तिरमिजी) इन दोनों में से पहली हदीस में अल्लाह के नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फरमाया है कि एक मुसलमान का दूसरे मुस्लमान पर ये हक है कि वो अपने भाई पर ना जुल्म करे, ना उसकी जान ले, ना उसे हकीर समझे और ना जलील करे, यानी अगर वो ऐसा करता है, तो अपने ऊपर वाजिब एक शरई और दीनी हक की अदायगी में कोताही करता है और उसकी उसे सजा मिलेगी। फिर आप सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फरमाया कि हमारा भाई ब जाहिर चाहे जैसा भी हो, मुआशरे में उसे चाहे जो मर्तबा हासिल हो, मगर हमें अपना हक अदा करना चाहिए, क्योंकि कौन मुत्तकी, परहेजगार और उसका मुकर्रब बंदा है, इसका इल्म सिर्फ अल्लाह को है, लिहाजा हो सकता है कि हम जिसे हकीर या जलील या कमतर समझ रहे हैं, वो अल्लाह की बारगाह में बड़ा जी रुत्बा हो और मुत्तकी-ओ-परहेजगार बंदा हो। जबकि दूसरी हदीस हमें पुरसुकून जिंदगी और सेहत-ओ-सलामती की कद्रो कीमत बताती है और ये बताती है कि हमारी जिंदगी अगर पुरसुकून और हर तरह के रंज-ओ-अलम से महफूज है, तो हमें अपने खालिक का शुक्र अदा करना चाहिए, क्योंकि ये बहुत बड़ी नेअमत है।

शरीअत-ए-मुतह्हरा ने नफस-ए-इन्सानी की हर उस चीज से हिफाजत में गैरमामूली दिलचस्पी ली है, जो उसे मुआशरे में मतलूबा किरदार अदा करने से रोके, इसी वजह से नफस-ए-इन्सानी का तहफ़्फुज इस्लाम के बुनियादी मकासिद और तालीमात में शामिल है। अल्लाह तबारक-ओ-ताला ने ऐसी हर चीज को हराम करार दिया है, जो इन्सानी जिंदगी को हलाक करने वाली हो या उसे नुक़्सान पहुंचाए और हर उस चीज को इखतियार करने की तलकीन की है, जो उसके लिए मुनफअत बखश हो, इसीलिए जिंदगी का तहफ़्फुज करने वाले हर खाने-पीने, लिबास और दवाओं के इस्तिमाल और उन तमाम चीजों को अपनाने की इजाजत दी गई है, जो इन्सानी जिंदगी और उसकी बुनियादों मसलन: अकल-ओ-इज्जत और बदन के जाहिरी आजा को फायदा पहुंचाने वाली हो। 

इन्सान अपनी जिंदगी का खुद अमीन है, 

कुरआन-ए-करीम इन्सानी जिंदगी के तहफ़्फुज की ताकीद देता है। इसका मतलब ये है कि अल्लाह की जनाब में इसके बारे में इससे दरयाफत किया जाएगा। लिहाजा उसे अपनी जिंदगी को हलाकतों में नहीं डालना चाहिए, शिद्दत और परेशानी के मवाके पर आसानी और सहूलत के मवाके की तलाश करे और उन्हें तर्जीह दे और अपने बदन और जिस्म की सेहत-ओ-सलामती का ध्यान रखे। इसी तरह इस्लाम ने दूसरों की जिंदगियों के तहफ़्फुज और उन पर जुल्म-ओ-ज्यादती ना करने का भी हुक्म दिया है। क्योंकि जब इन्सान को चैन-ओ-सुकून और अपनी जिंदगी के तंई इत्मीनान हासिल ना हो, तो फिर ऐसी जिंदगी का कोई मतलब नहीं होता और वह बहुत जल्द फना के घाट उतर जाती है। इन्सानी जान की हुर्मत की वजह से ही अल्लाह ताला ने किसी एक जान पर जुल्म को तमाम आलमे इंसान की जानों पर जुल्म के मुतरादिफ करार दिया है, जबकि किसी एक को जिंदगी देने को तमाम इन्सानों की जान बचाने से ताबीर किया है।  इरशाद-ए-बारी ताला है: ''जिसने किसी इन्सान को बगैर किसी जान के एवज या जमीन में फसाद के बगैर कत्ल कर दिया, तो गोया उसने तमाम इन्सानों को कत्ल कर दिया और जिसने किसी एक जान को जिंदगी दी, तो गोया उसने सारी इन्सानियत को जिंदगी बख्श दी' (अलमायदा:२३)

मौजूदा दौर में, जबकि इन्सान अपने आपको बड़ा तरक़्की याफताह समझ रहा है और बजाहिर हर शोबे में तरक़्की करता हुआ दिखाई भी रहा है, ये एक बहुत बड़ा अलमीया है कि इन्सानी जान की कोई अहमियत नहीं रह गई है। मशरिक से मगरिब और शुमाल से जुनूब तक हर जगह एक अजीब किस्म की अफरातफरी मची हुई, हत्ता कि भाई भाई का दुश्मन बना हुआ है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि फर्द से लेकर मुआशरे; बल्कि आलमी सतह पर इंसानी जान की अहमियत से लोगों को रोशनास कराने की मुहिम चलाई जाए। अफसोस है कि खुद मुसलमान अपने कुरआन और अपने नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तालीमात से बे-बहरा हो कर सतही अगराज के जेरे असर अपने मुसलमान भाईयों की जानों के दरपे हैं। हालांकि मजकूरा बाला आयतों और हदीसों में साफ तालीम दी गई है कि किसी भी इन्सान के लिए दूसरे इन्सान की जान-ओ-माल और इज्जत-ओ-आबरू को पामाल करना जायज नहीं, जाहिर है कि ये मुआमला मुसलमानों के साथ गैरमामूली अहमियत इखतियार कर जाता है। 

Post a Comment

if you have any suggetion, please write me

और नया पुराने