- सईद खान
आज वे फिर आ धमके। अपना वहीं पारंपरिक लिबास धोती-कुर्ता पहने। कांधे पर पश्मीना की शाल धरे और माथे पर चंदन का बड़ा सा तिलक लगाए। सीढ़ी चढ़कर आने की वजह से उनकी सांसे तेज-तेज चल रही थी इसलिए आते ही सोफे पर धम्म से पसर गए और अपनी उखड़ी सांसों को संयत करने लगे।
मैं उस वक्त मग्रिब की नमाज पढ़कर उठा ही था कि वे अंदर दाखिल हुए। उन्हें देखकर मैंने उन्हें आदाब किया और बेगम को पानी लाने के लिए आवाज देकर उनके सामान्य होने के इंतजार में अखबार के पन्ने उलट-पुलट करने लगा।
आमतौर पर ऐसा कम ही होता है कि मेरे घर से एक बार जाने के बाद दूसरे-तीसरे दिन वे फिर आ जाएं। उनके जाने-आने में हफ्ता-दस दिन का अंतराल तो रहता ही है। यानी हफ्ता-दस दिन के अंतराल में उनका मेरे घर का एक चक्कर लग ही जाता है। अगर ये अंतराल इससे ज्यादा हुआ तो मैं खुद ही उनकी खैरियत जानने बेगम के साथ उनके घर जा पहुंचता था। इस तरह एक बार मिलकर जाने के बाद दूसरे-तीसरे दिन उनका फिर आ धमकना विचलित कर देने वाला होता।
अखबार के पन्ने उलट-पुलट करने के दौरान मैं कनखियों से उनकी ओर देखता भी जा रहा था। उसी बीच बेगम उनके लिए पानी ले आई थी और उनसे चाय का पूछकर लौट गई थी। तब तक वे काफी हद तक सामान्य हो चुके थे। पानी पीकर वे बोले- ‘नमाज हो गई तुम्हारी।’
‘जी, हो गई।’ मैंने मुख्तसर सा जवाब दिया।
‘सुन्नत, नफिल सब पढ़ लिए या मुझे देखकर सिर्फ फर्ज पढ़कर ही उठ गए।’
‘सुन्नत, नफिल सब पढ़ लिया।’ मैं बोला। ‘नमाज से फारिग हुआ ही था कि आप आए।’
‘गुड।’ वे बोले-‘आज हम भी माता रानी के दर्शन करने गए थे। तुम्हारे प्रमोशन के लिए प्रार्थना कर आए हैं।’
‘जी, बहुत शुक्रिया।’ मैं बोला-‘तबियत कैसी है आपकी।’
तभी बेगम चाय लेकर आ गई। बेगम के हाथ से चाय का कप लेते हुए वे बोले-‘मातारानी की कृपा है’। कहकर उन्होंने चाय का एक लंबा घूंट लिया। मैं भी उनके साथ चाय सुड़कने लगा था। कुछ देर बाद वे बोले-‘तुम ये तो नहीं सोच रहे हो कि परसों ही हम यहां से गए थे, आज फिर कैसे आ धमके।’
‘आपका घर है चाचा जी। आप रोज आया करें।’ बेगम बोली-‘आपके आने से हमें अच्छा लगता है।’
वे बोले-‘वो क्या है बेटा कि जब हमारा मन जरा भी विचलित होता है, हमें यही एक घर सूझता है, इसलिए यहां चले आते हैं।’
‘आज ऐसी क्या बात हो गई चाचा जी, जो मन विचलित हो गया आपका।’ बेगम ने पूछा।
‘आज हमारे दिमाग में एक सुपर आयडिया आया है।’ खाली कप टेबल पर रखते हुए वे बोले-‘हम सोच रहे हैं कि साल में कोई एक दिन, क्यों न जनता के नाम समर्पित हो।’
‘क्या मतलब।’ कुछ न समझते हुए मैंने पूछा तो वे बोले-‘मतलब ये कि जैसे शिक्षक दिवस होता है, बाल दिवस, श्रमिक दिवस और पर्यावरण दिवस वगैरह होता है, उसी तरह एक जनता दिवस भी हो। और उस दिन को बाकायदा जनता सेलिबे्रट भी करे।’
‘बाकी दिनों को भी तो जनता ही सेलिबे्रट करती है।’ मैं बोला।
‘हां, लेकिन उस दिन का विषय भी जनता ही हो। सब कुछ जनता पर केंद्रित हो। जैसे शिक्षक दिवस पर शिक्षक, पर्यावरण दिवस पर पर्यावरण और वन्य प्राणी दिवस पर वन्य प्राणियों पर चर्चा होती है। उसी तरह ‘जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा’ की तर्ज पर, उस दिन सिर्फ जनता ही कर्म और बहस के केंद्र में हो।’
‘आपको ये आयडिया आया क्यों।’
‘हमें लगता है कि जनता के साथ छल हो रहा है।’ वे बोले-‘लोकतंत्र के प्रति जनता की आस्था और उसकी भावनाओं पर कुठाराघात हो रहा है। इसलिए हमने सोचा, क्यों न एक दिवस जनता के नाम समर्पित हो, जब जनता, जनता के साथ सहानुभूति जताए। उसकी आहत हो रही भावनाओं पर मरहम लगाए।’
‘लेकिन...।’
‘अब यही पूछोगे न कि इसका औचित्य क्या है।’ मेरी बात काटकर वे बोले-‘तो सुनो, जिस तरह शिक्षक दिवस, बाल दिवस, श्रमिक दिवस और पर्यावरण दिवस आदि मनाकर हम पंडित मदन मोहन मालवीय, चाचा नेहरु और 1 मई को शहीद हुए श्रमिकों का पुण्य स्मरण करते हैं, उनके योगदान को रेखांकित करते हैं। पर्यावरण दिवस के बहाने पर्यावरण के प्रति जागरुकता बढ़ाने के प्रयास किए जाते हैं, उसी तरह क्या लोकतंत्र के प्रति जनता की आस्था को रेखांकित नहीं किया जाना चाहिए। वह भी तब, जब हर बार उसकी आस्था पर कुठाराघात हो रहा हो।’
‘उस दिन होगा क्या और वो दिन कब मनाया जाना चाहिए।’ चाचा जी की बातों पर बेगम की दिलचस्पी बढ़ने लगी थी।
चाचा जी बोले-‘पिछली बार हुए चुनाव की तिथि में अगले चार साल तक यह आयोजन हो। पांच साल बाद जिस तिथि में चुनाव हो, उसके बाद वाले सालों में उसी तिथि में आयोजन हो। इस तरह हर बार चुनाव की तिथि में ही यह आयोजन हो। उस दिन जनता अपने-अपने मतदान केंद्रों में इकट्ठी हो और एक-दूसरे को गुलाब की कली भेंट कर एक-दूसरे के प्रति मौन सहानुभूति जताए। भाव ऐसा हो, जैसे एक-दूसरे से कहना चाह रहे हों-मुबारक हो, हम फिर ठगे गए।’
उनकी बातें सुनकर बेगम के ओठों पर मुस्कान तैर गई। मैं भी मुस्कुराए बिना न रह सका।
कुछ देर हमारे बीच चुप्पी छाई रही जिसे चाचा जी की आवाज ने ही तोड़ा। वे उठकर खड़े हो गए थे और कांधे पर धरी शाल को दुरुस्त करते हुए कह रहे थे- ‘चलते हैं। तुम लोग इस पर विचार करो। फिर बताना।’
मैं और बेगम भी उठ खड़े हुए थे। वे एक कदम आगे बढ़े। और एकदम से रुक गए। जैसे उन्हें कुछ याद आ गया हो। बोले-‘आज हम एक कार्यक्रम में गए थे। वो क्या है कि आज हिंदी दिवस है न। तो हमें भी बाकायदा बुलाया गया था। इसलिए हम भी गए थे कार्यक्रम में।’
‘फिर।’
‘फिर क्या। दिमाग भिन्ना गया हमारा वहां जाकर। कार्यक्रम हिंदी दिवस पर था और वक्ता अंगे्रजी में भाषण दे रहे थे। कह रहे थे-टुडे इज नेशनल हिंदी डे...यू नो...हिंदी इज अवर नेशनल लैंग्वेज। इट इज वेरी गुड लैंग्वेज, सो वी शुड राइट हिंदी...रीड हिंदी एंड स्पीक हिंदी...। तो सोच लो, जनता दिवस में भाषण तुम्हें ही देना है इसलिए कुछ अंगे्रजी-वंगे्रजी सीख लो।’ कहकर वे आगे बढ़ गए।
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